प्रेम कविता : प्रेम का रंग
संजय वर्मा "दृष्टि "
लहराती जुल्फों में
ढंक जाती तुम्हारे माथे की
बिंदिया
लगता हो जल जैसे बादलों ने
ढांक रखा हो चांद को ।
कलाईयों में सजी चूड़ियां
अंगुलियों में अंगूठी के नग से
निकली चमक
पड़ती है मेरी आंखों में
जब तुम हाथों में सजे
कंगन को घुमाती हो ।
सुर्ख लब
कजरारी आंखों में लगे
काजल से
तुम जब मेरी ओर देखो
तब तुम्हें केनवास पर
उतरना चाहूंगा ।
हाथों में रची मेहंदी
रंगीन कपड़ों में लिपटे
चंदन से तन को देखता
सोचता हूं
जितने रंग भरे तुम्हारी
खूबसूरत सी काया में
गिनता हूं
इन रंगों को दूर से ।
अपने केनवास पर उतारना
चाहता हूं तस्वीर
जब तुम सामने हो मेरे
पास हो मेरे ।
दूर से अधूरा पाता रंगों को
शायद उसमें प्रेम का रंग
समाहित ना हो ।