नई कविता : इंसानियत
इंसानियत होती रही
शर्मसार और हम
पत्थरों में ही
भगवान को पूजते रहे ।
दिखाने को अपनी
धार्मिक आस्था
जाते रहे - मंदिर, मस्जिद
चर्च और गुरुद्वारे ।
मांगते रहे
पत्थरों में विराजे
इन देवी-देवताओं से
धन-दौलत और खुशियां अपार ।
मिलता भी रहा है
यह सब हमको पर
बहुधा, मन से करते नहीं
कोई ऐसा सद्कार्य
जो निकाले हमें
अपने ही भरम से ।
फंसे रहते हैं सदा ही
अंध विश्वास और
गलत फहमियों के
उस माया जाल में जो करता है
विवश, पूजने को इन
पत्थर के भगवानों को ।
गलत कहीं से भी नहीं है
यह सब करना,
मगर साथ ही इसके
जरूरी है यह भी कि मानें हम
उन संस्कारों को जो सिखाते हैं -
मानव से मानव का जुड़ना
उन्हें समझना और
सुख-दुख में शामिल होना
जरूरी है यह भी -
दें बच्चों को तालीम ऐसी
कि उनसे कभी न हो
शर्मसार मानवता।
बोएं बीज ऐसे -
जो फलित हों उन आदर्शों में
जो दे गए हैं वे,
जिन्हें पूजते हैं हम सब
बनाकर पत्थर के देवता ।
- देवेन्द्र सोनी