गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By WD

भीगी पलकें उठा मेरी जाँ गम न कर...

भीगी पलकें उठा मेरी जाँ गम न कर... -
- अजातशत्र

भीगी पलकें उठा मेरी जाँ गम न कर, दिन जुदाई के ये भी गुजर जाएँगे

इस गीत में संगीत का अध्यात्म है। भक्ति न लगते हुए भी परमात्मा की भक्ति सुर-ताल की शक्ल में ईश्वर को साकार करती है


बेपनाह दर्द से भरा दिल बेपनाह चीखता है। पर अल्फाज खुद तो दर्द नहीं है। इसलिए एक हद के बाद अल्फाज कुछ नहीं कहते। वे गूँगे रह जाते हैं। अब इन अल्फाज को जिंदा कैसे किया जाए? इनमें आग कैसे भरी जाए? इन्हें खुद दर्द कैसे बना दिया जाए?

इस गीत में यह काम रफी साहब और लताजी करते हैं, और वे भी कैसे करते हैं इसे? यूँ कि वे इस गीत के पीछे छिपी अथाह वेदना में डूब जाते हैं उसे ओढ़ लेते हैं और खुद मुजस्सम दर्द बन जाते हैं।

यहाँ रफी का बेस, पथरीली संजीदगी और स्वर की स्थिरता गौर करने लायक है। ऐसा लगता है कि जैसे रात भर दिल में खामोश मातम करके प्रेमी की आँखें सूज गई हैं, गला भारी हो गया है और आवाज में गमगीनी की सर्दी उतर आई है।

इमोशन को, मानी को कथा के वजन को और किरदार की मजाहिया संजीदगी को इस अजीम पायदान तक उठा लाना अकेले रफी का ही कमाल हो सकता था। फिर यह मत भूलिए कि जिस अभिनेता पर यह गीत आया था, उसकी लहीम शहीम शख्सियत भी रफी को गहराने का मौका देती है।

यूँ लता वेदना को उभारने में रफी के साथ-साथ चलती है। पर गौर करें तो वे बहुत पीछे छूटी हुई हैं। रफी तो गम का हिमालय छाती पर रख देते हैं और हमारा ठगा हुआ गोश्त धीरे-धीरे पिघलने लगता है।

यूँ महसूस होता हैं जैसे दर्द का गेंडा बिखरकर गम की आग में भुनता हुआ हिरण होता जा रहा है और अब पथराए हुए दर्द के सिवा कुछ न बचा। बार-बार मैं कुरबान होता हूँ रफी साहब पर, और उनकी याद परेशान करने लगती हैं। कैसा गायक था यह? कम पढ़ा लिखा, देखने में सामान्य और करीब-करीब भावना शून्य। पर उनकी मन की आँखें और कुदरती समझ इतनी एक्स्ट्रा आर्डिनरी है कि जब वह अल्फाज के मानी में प्रवेश करता है तो लफ्ज उठ जाते हैं और जज्बात की जगह ले लेते हैं।

फिल्म दो गुंडे का यह प्रणय गीत रफी के कारण ही न भूली जाने वाली चीज हो गया है।
एक बात और। श्रेय संगीतकार गुलाम मोहम्मद साहब को भी दिया जाना चाहिए। वे उत्तरप्रदेश के लोकगीतों से ऐसी धुन लाए हैं और उसे ऐसी कसी हुई डूब से गवाया है कि वक्त थम जाता है और गम की बर्फ शीला पिघलने लगती है।

अगर आप सितार के उस छोटे टुकड़े पर ही गौर करें जो राग पीलू के करीब लाया गया है तो मद खिल उठता है और उदास हवाओं में जाने कहाँ बह जाता है जैसा कि मैंने बार बार लिखा है, उच्च कोटि का संगीत, धुन और गायन वह है जो गुमनाम सदियों की याद जगाने लगे और हमारे सामने जाने कब के कछार, घाटियाँ और कोहरे में डूबे पहाड़ खड़े कर दे। रफी साहब की यह बंदिश हमें वहीं तक पहुँचाती है।

इस गीत को मजरूह सुलतानपुरी ने लिखा था और सन्‌ 1959 के साथ यह जारी हुआ था। इस गीत के बारे में खास बात यह भी है कि लता 'जब तलक तेरी बाहें मिलेंगी मुझे, तब तलक तो ये गेसू बिखर जाएँगे और दो ही दिन तो मिले जिंदगानी के दिन, क्या ये दिन भी यूँ ही गुजर जाएँगे। जैसी पंक्तियों को इस नायोचित वेदना के साथ गाती हैं कि वे लता रहते-रहते शोकग्रस्त प्रेमिका में बदल जाती है और दर्द की बढ़ती हुई चादर उन्हें जाने कहाँ छुपा देती है।

तो यारों यह है संगीत का अध्यात्म, भक्ति न लगते हुए भी परमात्मा की भक्ति और सुरताल की शक्ल में ईश्वरीयता का मूर्तिकरण। हिन्दी सिनेमा को टाल देना और कुछ नहीं रूह की गरीबी है, जनाब।

पढ़े शब्द रचना-
रफी : भीगी पलकों उठा, मेरी जाँ गम न कर
दिन जुदाई के ये भी गुजर जाएँगे
लता : जब तलक तेरी बाहें मिलेंगी मुझे
तब तलक तो ये गेसू बिखर जाएँगे
रफी : भीगीं पलकें उठा
लता : तेरे दिल की कली गम से जल जाएगी-
रस उतर जाएगा, धूप ढल जाएगी-
रफी : आ पड़ी है कुछ ऐसी उलझन मगर,
फिर भी तेरे दीवाने किधर जाएँगे।
रफी : भीगी पलकें उठा... जाएँगे। भीगी पलकें उठा।

रफी : जिंदगी है तो मिल के ही रहेंगे गले
जा रही है बहारें तो जाने भी दे
लता : दो ही दिन तो मिले जिंदगानी के दिन
क्या ये दो दिन भी यूँ ही गुजर जाएँगे
रफी : भीगी पलकें उठा/लता : जब तलक...
रफी : भीगी पलकें उठा।

खास ताल (बीट्‌स) पर चलने वाला यह गीत हमें मोहता और समेटता जाता है। हम इसके दर्द में गुम जाते है। यह भी नोट कीजिए कि भीगी पलकें शब्दों के पीछे वेदना की जो गहराई है, उसे गुलाम मोहम्मद अपनी धुन में और रफी अपने गायन में खूब पकड़ते हैं।

नतीजा यह है कि शब्द जज्बात में बदलने लगते हैं और फिजाँ में गम और उदासी शाम के धुएँ सी ठहर जाती है। सच यह है कि हम शब्दों को सुनते हैं। पर अब शब्दों जैसा यहाँ कुछ नहीं है। है तो बस पथराया हुआ दर्द, जो हमारे सीनों पर टंग चुका है। इतना देखे समझे बिना रफी लता के वास्तविक काम के साथ समीक्षागत न्याय करना संभव नहीं है। सुन रहे हैं न आप?

चलते-चलते-
गमे जुदाई में इतनी राहत फिर भी निकल आती है
कि हवाएँ, जो आती हैं तुमे छूकर, मुझे भी छू जाती है।