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Written By अजातशत्रु

ओ सजना बरखा बहार आई

ओ सजना बरखा बहार आई -
यह गीत हिन्दी सिनेमा के इतिहास में इने-गिने पाँच-दस गीतों में से एक है। यह गीत वर्षा के बारे में कम, उसकी बूँदा-बाँदी, फुहार, ठंडी हवा और बरसात के माहौल को पकड़ता है

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कलात्मक अनुशासन की चौखट में कीलित यहाँ कुछ भी स्खलित नहीं होता। इस गीत का वाद्य संगीत इतना सटीक, सूक्ष्म और आणविक है कि लता को इस गीत को गाने में काफी एकाग्रता, सावधानी और कठोर अभ्यास से गुजरना पड़ा होगा।

ऐसे कम्पोजिशन के गाने में रियाज की लंबी उम्र और निसर्ग की दी हुई दुर्लभ प्रतिभा चाहिए। एक तरफ जहां सलिल चौधरी का कंसेप्ट बारीक डिटेलों से भरा हुआ है, वहीं लता ने उन्हें चुनौती के स्तर पर अद्भुत संयम, गहन दत्तचित्तता और प्रखर संवेदनशीलता की पारदर्शी आँख से गाया है और टक्कर का समानांतर संसार खड़ा किया है।

यह गीत हिन्दी सिनेमा के इतिहास में 'अवतरित' इने-गिने पाँच-दस गीतों में अपना स्थान रखता है। इसे जयदेव के 'अल्लाह तेरो नाम' (लता/हमदोनों) के तुरंत बाद रखा जा सकता है। यह हमारी फिल्म इंडस्ट्री का 'मेगा साँग' है।

वक्त इसकी ताजगी और बरसाती नमी पर धूल नहीं डाल सका। कुंवारे जंगल की हरियाली में स्फटिक का यह टुकड़ा आज भी ज्यों का त्यों चमक रहा है। भाषा की शूद्रता इस गीत की पाराशरी अतीन्द्रियता को छू नहीं पाती। भाषा सिंहद्वार से लौट आती है।

इस गीत में सलिल दा और लता दोनों ही गीत के शब्दों में गहराई से जाते हैं और अर्थों के माध्यम से समूचे 'वार्षिक' वातावरण को वाद्य संगीत और गायन में अनुदित कर देना चाहते हैं। सलिल दा वर्षा की बूँदों और उनके कौमार्य पावित्र्य को सितार जैसे शालीन-सात्विक वाद्य के तारों के संगीतमय आघात के साथ पकड़ते हैं।

लता भी बरसात की पवित्रता, ताजगी, शीतलता और कुंवारेपन को अपनी आत्मा में भरपूर उतार लेती है और उस चाशनी से अपने शब्दों को डेलीवर करती है। साउंड ट्रेक पर बरसात उतरने लगती है!

काश! गीत भी भीग गया होता! और ऐसा नहीं हो सकता, जबकि होना चाहिए- यही सलिल चौधरी और लता की दिव्य सीमा है। पीड़ा है, आनंद है और उस आनंद की कसक है। यह कलाकार और भक्त का अनादि संघर्ष है। कला का स्वयंसिद्ध अध्यात्म।

गौर करें तो यह गीत वर्षा के बारे में कम, उसकी बूँदाबाँदी, फुहार, ठंडी हवा और आर्द्रता के बारे में ज्यादा है। यह वर्षा गीत नहीं, वातावरण प्रधान गीत है, जो वर्षा को नहीं, उसके माहौल को पकड़ता है। यहां न घनघोर बारिश हो रही है और न सूखा पड़ा है, बल्कि बरसात शुरू होने, फुहार पड़ने और मूसलधार जलपात के तनिक दूर होने का मिलाजुला प्रसंग है। आर्केस्ट्रा बूँदों को ज्यादा पकड़ता है और लता भी गीत को बूँद-बूँद गाती हैं।

एक बात और। फिल्म 'परख' (1960) के निर्माता-निर्देशक बिमल राय जैसे संवेदनशील, सौंदर्यवादी, गुणवान निर्देशक थे। 'परख' की नायिका साधना भी कहानी में, परदे पर और निजी जीवन में तब निष्पाप, तरोताजा सौंदर्य की धनी थीं। उन्हें देखकर शबनम में नहाया ताजा गुलाब याद आता था।

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साधना और कथा की इसी पृष्ठभूमि में तब लता और सलिल दा को अपनी इस कृति में निर्मलता, शालीनता और कौमार्य के फील को तीन-तीन विचार चैनलों पर घनीभूत करके लाना पड़ा था। तब सलिल दा ने जैसा रिच, एस्थेटिक संगीत दिया, लता ने भी उसे अपनी अंतरात्मा और दिव्य आवाज के पावन सौंदर्य के साथ गाया।इस गीत को शैलेंद्र ने लिखा था।

खास बात यह कि मूल गीत बंगला में था। धुन और वाद्य संगीत ऐन वही। बस, सलिल दा ने उसका हिन्दी संस्करण तैयार कर लिया... सनद रहे, बिमल राय ऐसी कृति के निर्माण के लिए कम धन्यवाद के पात्र नहीं हैं।

पढ़िए, शब्द रचना-(पहले धीरे से 'ओऽऽ सजना', बिना संगीत के। इसके बाद सितार के तारों द्वारा वर्षा की बूँदें पड़ने का इफेक्ट! और फिर...)

ओऽऽ सजना, बरखा बहार आई,
रस की फुहार लाई
अंखियों में प्यार लाई,
ओऽऽ सजन
(सारी पंक्तियाँ फिर से)

तुमको पुकारे मेरे
मन का पपिहरा (2)
मीठी-मीठी अगनी में,
जले मोरा जियरा,
ओऽऽ सजना...बरखा...
ओ सजना। (2)

ऐसी रिमझिम में ओ सजन,
प्यासे प्यासे मेरे नयन
('विरहिन ख्वाब में खो गई' -मीठी सी फुसफुसाहट में गद्य का टुकड़ा)

ऐसी रिमझिम में ओ सजना...
ख्वाब में खो गई।
साँवली सलोनी घटा, जब जब आई (2)
अंखियों में रैना भई, निंदिया ना आई,

ओऽऽ सजना बरखा बहार आई,
रस की फुहार लाई,
अंखियों में प्यार लाई,
ओऽऽ सजना।
ओऽऽ सजना...फुहार...प्यार...ओऽऽ सजना!

आज इतने वर्षों बाद भी गीत ज्यों का त्यों ताजा है। इसकी स्वच्छता और अपील खत्म नहीं होती। वर्षा के आगमन की प्रथम बूँदों की तरह लता की आवाज निष्पाप और अछूती है और सलिल बाबू का सितार भी इसमें ध्वनि सौंदर्य का योगदान करता है।