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Written By रवींद्र व्यास

भारतीयता का अद्भुत चितेरा मनजीत बावा

भारतीयता का अद्भुत चितेरा मनजीत बावा -
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मनजीत बावा नहीं रहे। किसी भी कलाकार के कला में योगदान को आँकने का एक आधार तो यह हो सकता है कि उसने अपने से पहले आए कलाकारों से अलग क्या और कैसे किया है। पहले भी और आज भी भारतीय चित्रकला में ऐसे चित्रकार हैं जिन पर यूरोपीय कला का असर साफ देखा जा सकता है, लेकिन इनमें मनजीत बावा शामिल नहीं हैं।


मनजीत बावा का भारतीय चित्रकला में बड़ा योगदान तो यह है कि उन्होंने अपने फॉर्म का ज्यादा कल्पनाशील ढंग से डिस्टार्शन किया। फिर मनोहारी रंगों का संवेदनशील इस्तेमाल किया और अपने आकारों के लिए यूरोप की ओर कभी टकटकी लगाकर देखने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्होंने महाभारत, रामायण, पुराण और सूफी कविता से अपने चित्रों की आत्मा को खोजा, चित्रित किया और हासिल किया।

उनके चित्रों पर यदि सरसरी निगाह डाली जाए तो ये तीन-चार बातें बाआसानी देखी जा सकती हैं। उन्होंने कहीं कहा भी था कि कला में ताजगी और नयापन जरूरी है, अन्यथा वह कला अर्थहीन होगी। अलग होने का अर्थ यह है कि वह करने की कोशिश की है जो इसके पहले किसी ने नहीं किया हो। यह बिना झिझक कहा जा सकता है कि मनजीत बावा ने जो बात कही, उसे उन्होंने अपने खूबसूरत चित्रों में अभिव्यक्त किया है।

एक ऐसे समय में जब भारतीय चित्रकला में अधिकांश चित्रकार भूरे-धूसर रंगों की तरफ जा रहे थे और अपने को अमूर्तता में व्यक्त कर रहे थे, तब मनजीत बावा ने अपने लिए एक नई राह चुनी।

उन्होंने अपने चित्रों के लिए ठेठ भारतीय चटख रंगों का चयन किया। उनके चित्रों में उन्होंने गुलाबी, जामुनी, पीले, हरे, नीले और लाल रंग का समावेश किया। मनजीत बावा उन कलाकारों में से थे, जिन्होंने देश के तमाम इलाकों में घूमकर भारतीय लोगों औऱ उनके रंगों की आत्मा को जाना-बूझा।

वे हिमाचलप्रदेश, गुजरात और राजस्थान खूब घूमे। भारतीय लोगों के सरल जीवन ने उन्हें आकर्षित किया। लोगों की सरलता-सहजता उनका दिल छूती थी और चटख रंग उन्हें खूब लुभाते थे। वे जहाँ जाते वहाँ पेपर बिछाकर उस जीवन को अपने ड्राइंग में धड़कता हुआ बना देते।

जब वे दिल्ली में रहते हुए कला की शिक्षा ले रहे थे तब उनके गुरु थे सोमनाथ होर और बीसी सान्याल, लेकिन उन्होंने अपनी पहचान बनाई अबानी सेन की छत्रछाया में।

श्री सेन ने उन्हें कहा था कि रोज पचास स्कैच बनाओ। मनजीत बावा रोज पचास स्कैच बनाते और उनके गुरु इनमें से अधिकांश को रिजेक्ट कर देते थे। जाहिर है यहीं से मनजीत बावा की स्कैच बनाने की रियाज शुरू हुई। उन्होंने अपने उन दिनों को याद करते हुए कहीं कहा भी था कि तब से मेरी लगातार काम करने की आदत पड़ गई। जब सब अमूर्त की ओर जा रहे थे मेरे गुरुओं ने मुझे आकृतिमूलकता का मर्म समझाया और उस ओर जाने के लिए प्रेरित किया।

वे आकृतिमूलकता की ओर आए तो सही लेकिन अपनी नितांत कल्पनाशील मौलिकता से उन्होंने नए फॉर्म्स खोजे, अपनी खास तरह की रंग योजना ईजाद की और मिथकीय संसार में अपने आकार ढूँढ़े।

यही कारण है कि उनके चित्र संसार में ठेठ भारतीयता के रंग आकार देखे जा सकते हैं। वहाँ आपको हीर-राँझा भी मिलेंगे, कृष्ण, गोवर्धन भी मिलेंगे, देवी भी मिलेंगी तथा कई मिथकीय और पौराणिक प्रसंग-संदर्भ भी। ...और सूफी संत भी मिलेंगे। इसके साथ ही उनके चित्रों में जितने जीव-जंतु मिलेंगे उतने शायद किसी अन्य भारतीय कलाकार में नहीं।

उनकी माँ नहीं चाहती थीं कि वे कलाकार बनें। उनकी माँ कहती थीं कि कला के बल पर जीवन नहीं जिया जा सकता लेकिन ईश्वर में गहरी आस्था और विश्वास की बदौलत मनजीत बावा मानते थे कि रोजी-रोटी तो ईश्वर दे देगा बाकी चीजें वे खुद हासिल कर लेंगे।

उनके मनोहारी कैनवास ये बताते हैं कि इस कलाकार ने यूरोपीय कला के असर से मुक्त होकर अपने लिए एक कठिन राह खोजी, बनाई औऱ उस पर दृढ़ता से चलकर दिखाया।

कुछ समय के लिए उनके चित्रों को लेकर विवाद भी हुआ था। उनके ही सहायक ने आरोप लगाया था कि मनजीत बावा के चित्र मैंने चित्रित किए हैं लेकिन वे इससे अविचलित रहे और अपनी गहरी आध्यात्मिकता से इससे बाहर निकल आए।

मनजीत बावा के जाने का मतलब यही है कि अब हम उनके जरिये उस भारतीय आत्मा की यात्रा को जारी नहीं देख पाएँगे जो उनके चित्रों में जीवंत होती रही थी।