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सबके आदर्श हैं भगवान परशुराम

सबके आदर्श हैं भगवान परशुराम - Hindi Article On Parshuram ji
डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
भगवान परशुराम का आदर्श चरित्र प्रत्येक युग और देश में सदा प्रासंगिक है। वे यथार्थ की कठोर प्रस्तर शिला पर सुप्रतिष्ठित हैं और मानव मन की फूल से भी कोमल तथा वज्र से भी कठोर-‘वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि’ अन्तः वृत्तियों के संवाहक हैं। मनुष्य में ‘सत्’ और ‘असत्’ का द्वन्द्व सनातन है। उसके ‘सत्’ का संवर्धन करने के लिए ‘शास्त्र’ और ‘असत्’ का नियंत्रण करने के लिए ‘शस्त्र’ का विधान सभ्यता के अरूणोदय काल में किया गया। आज भी मानव चरित्र सत् और असत् से घिरा है, अतः युग-युगांतर की तथाकथित विकास यात्रा के बाद आज भी शास्त्र और शस्त्र की सत्ता स्वीकृत है।
 
यद्यपि भगवान परशुराम के परवर्ती युग में भगवान बुद्ध, महात्मा गांधी आदि महापुरूषों ने शस्त्र की शक्ति को अस्वीकार कर केवल शास्त्र (आत्मबल) की सत्ता ही प्रचारित की है, किंतु इन विचारकों के विचार अर्द्धसत्य और काल्पनिक आदर्श ही अधिक सिद्ध हुए हैं। मानव समाज के व्यापक-फलक पर वे अर्थहीन हैं। मनुष्य के अंदर का पशु आज भी शस्त्र के नियंत्रण को ही मानता है।
 
शास्त्र के शिक्षण को तो वह प्रलाप ही समझता है, उसकी उपेक्षा करता है और पर-पीड़न के आत्मघाती पथ पर तब तक बढ़ता जाता है, जब तक कि शस्त्र की धार उसकी मृत्यु का कारण नहीं बन जाती। वाल्मीकि और अंगुलिमाल हृदय परिवर्तन के अपवाद हो सकते हैं, नियम नहीं। सृष्टि का नियम तो यही है कि जब मनुष्य की पशु-वृत्ति प्रबल हो उठती है तो उसका नियंत्रण करने के लिए मनुष्य को अपने अंदर का पशु अपने प्रतिपक्षी से भी अधिक उग्र रुप में आग्रह-पूर्वक जगाना पड़ता है, नृसिंह बनना पड़ता है, ताकि वह उन्मत्त पाशविकता को अंकुशित कर भोली मानवता का जीवन निरापद बना सके। राम का संधि प्रस्ताव और युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा शस्त्र बल के विश्वासी रावण और दुर्योधन जैसे लोगों के समक्ष व्यर्थ ही सिद्ध होती है। 
 
तात्पर्य यह है कि मनुष्य के लिए आत्मरक्षण और समाज-सुख- संरक्षण के निमित्त शस्त्र का आराधन भी आवश्यक है। शर्त यह है कि उसकी शस्त्र-सिद्धि पर शास्त्र-ज्ञान का दृढ़ अनुशासन हो। भगवान परशुराम इसी शस्त्र-शास्त्र की समन्वित शक्ति के प्रतीक हैं। सहस्रार्जुन के बाहुबल पर उनकी विजय उनकी शस्त्र-सिद्धि को प्रमाणित करती है तो राज्य भोग के प्रति उनकी निस्पृहता उनके समुन्नत शास्त्र ज्ञान का सबल साक्ष्य देती है। ऐसे समंवित व्यक्तित्व से ही लोक-रंजन और लोक-रक्षण संभव है।
 
भगवान परशुराम जन प्रतिनिधि हैं। वे शैव-संस्कृति के समुपासक हैं। शैव-संस्कृति समानता की वर्ण-हीन सामाजिक व्यवस्था की व्यवस्थापक रही है। उसके सूत्रधार भगवान शिव स्वयं वैराग्य की विभूति से विभूषित हैं। उनके व्यक्ति‍त्व और आचरण में ऐश्वर्य भोग की गंध तक नहीं है। प्रायः शक्ति भोगोन्मुखी होती है। शक्ति की उपलब्धि व्यक्ति को विलासी बना देती है और विलास-वृत्ति से वह परपीड़न के पतन-गर्त में गिरता है। मानव-विकास के इतिहास में बड़े-बड़े शक्तिमानों के पराभव का यही कारण रहा है। शिव की शक्ति विलासोन्मुखी न होकर त्यागोन्मुखी है, अतः सदा सकारात्मक है और इसीलिए वंदनीय भी है। यद्यपि शिव के आराधकों में असुर (रावण आदि) शक्ति अर्जन से पूर्व और पश्चात-निरन्तर भोग-विलास में प्रवृत्त रहे हैं और पराभव को प्राप्त हुए हैं तथापि परशुराम द्वारा संरक्षित और परिवर्द्धित शैव-संस्कृति भोग-विलास से दूर लोक-हित के लिए सर्वस्व समर्पण में ही व्यस्त रही है। 
 
आज जब सत्ता और शक्ति से जुड़ा वर्ग असुरों की परंपरा के अनुगमन में भोग की पंकिल-भूमि पर सुख तलाश करने में सारी ऊर्जा का क्षरण करता हुआ स्वयं और समाज-दोनों के लिए भस्मासुर सिद्ध हो रहा है, तब लोक-रक्षक परशुराम का चरित्र और आदर्श अनुकरणीय है। उसका स्पष्ट संदेश है कि यदि अर्जित शक्ति का उपयोग शिवत्व की प्रतिष्ठा में करना है तो शक्तिधर को शिव के समान त्यागपूर्ण आचरण करना ही होगा। शिवत्व की साधना के लिए अपेक्षित चिंतन प्रकृति के एकांत में ही संभव है, प्रासादों के ऐश्वर्य में नहीं। भगवान परशुराम इसलिए लोकरक्षा का व्रत लेकर तप-त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, वैभव और ऐश्वर्य से सतत्
निर्लिप्त रहते हैं।
 
शक्तिधर परशुराम का चरित्र जहां शक्ति के केन्द्र सत्ताधीशों को त्यागपूर्ण आचरण की शिक्षा देता है, वहां वह शोषित पीड़ित क्षुब्ध जनमानस को भी उसकी शक्ति और सामर्थ्य का अहसास दिलाता है। शासकीय दमन के विरूद्ध वह क्रांति का शंखनाद है। वह सर्वहारा वर्ग के लिए अपने न्यायोचित अधिकार प्राप्त करने की मूर्तिमंत प्रेरणा है। वह राजशक्ति पर लोकशक्ति का विजयघोष है। आज स्वातंत्र्योत्तर भारत में जब सैकड़ों-सहस्रों सहस्रबाहु देश के कोने-कोने में विविध स्तरों पर सक्रिय हैं, कहीं न्याय का आडंबर करते हुए नेतृत्व के छल में भोली जनता को छल रहे हैं, उसका श्रम हड़पकर अबाध विलास में ही राजपद की सार्थकता मान रहे हैं तो कहीं अपराधी माफिया गिरोह खुले आम आतंक फैला रहे हैं, तब असुरक्षित जन-सामान्य की रक्षा के लिए आत्म-स्फुरित ऊर्जस्वित व्यक्तियों के निर्माण की बहुत आवश्यकता है। इसकी आदर्श पूर्ति के निमित्त परशुराम जैसे प्रखर व्यक्तित्व विश्व इतिहास में विरल ही हैं। इस प्रकार परशुराम का चरित्र शासक और शासित-दोनों स्तरों पर प्रासंगिक है।
 
शस्त्रशक्ति का विरोध करते हुए अहिंसा का ढोल चाहे कितना ही क्यों न पीटा जाये, उसकी आवाज सदा ढोल के पोलेपन के समान खोखली और सारहीन ही सिद्ध हुई है। उसमें ठोस यथार्थ की सारगर्भिता कभी नहीं आ सकी। सत्य हिंसा और अहिंसा के संतुलन बिंदु पर ही केंद्रित है। कोरी अहिंसा और विवेकहीन पाश्विक हिंसा-- दोनों ही मानवता के लिए समान रूप से घातक हैं। आज जब हमारे राष्ट्र की सीमाएं असुरक्षित हैं। कभी कारगिल, कभी कश्मीर, कभी बंग्लादेश और कभी देश के अंदर नक्सलवादी शक्तियों के कारण हमारी अस्मिता का चीरहरण हो रहा है तब परशुराम जैसे वीर और विवेकशील व्यक्तित्व के नेतृत्व की आवश्यकता है।
 
गत शताब्दी में कोरी अहिंसा की उपासना करने वाले हमारे नेतृत्व के प्रभाव से हम समय पर सही कदम उठाने में हिचकते रहे हैं। यदि सही और सार्थक प्रयत्न किया जाएं तो देश के अंदर से ही प्रश्न खड़े होने लगते हैं। परिणाम यह है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों और व्यवस्थापकों की धमनियों का लहू इतना सर्द हो गया है कि देश की जवानी को व्यर्थ में ही कटवाकर भी वे आत्मतोष और आत्मश्लाघा का ही अनुभव करते हैं। अपने नौनिहालों की कुर्वानी पर वे गर्व अनुभव करते हैं, उनकी वीरता के गीत गाते हैं किंतु उनके हत्यारों से बदला लेने के लिए उनका खून नहीं खौलता। प्रतिशोध की ज्वाला अपनी चमक खो बैठी है। शौर्य के
अंगार तथाकथित संयम की राख से ढंके हैं। शत्रु-शक्तियां सफलता के उन्माद में सहस्रबाहु की तरह उन्मादित हैं लेकिन परशुराम अनुशासन और संयम के बोझ तले मौन हैं।
 
राष्ट्रकवि दिनकर ने सन् 1962 ई. में चीनी आक्रमण के समय देश को ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ शीर्षक से ओजस्वी काव्यकृति देकर सही रास्ता चुनने की प्रेरणा दी थी। युगचारण ने अपने दायित्व का सही-सही निर्वाह किया, किन्तु राजसत्ता की कुटिल और अंधी स्वार्थपूर्ण लालसा ने हमारे तत्कालीन नेतृत्व के बहरे कानों में उसकी पुकार ही नहीं आने दी। पांच दशक बीत गए। इस बीच एक ओर साहित्य में परशुराम के प्रतीकार्थ को लेकर समय पर प्रेरणाप्रद रचनाएं प्रकाश में आती रहीं और दूसरी ओर सहस्रबाहु की तरह विलासिता में डूबा हमारा नेतृत्व राष्ट्र-विरोधी षड्यंत्रों को देश के भीतर और बाहर-- दोनों ओर पनपने का अवसर देता रहा। परशुराम
पर केंद्रि‍त साहित्यिक रचनाओं के संदेश को व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार करके हम साधारण जनजीवन और राष्ट्रीय गौरव की रक्षा कर सकते हैं।
 
महापुरूष किसी एक देश, एक युग, एक जाति या एक धर्म के नहीं होते। वे तो सम्पूर्ण मानवता की, समस्त विश्व की, समूचे राष्ट्र की विभूति होते हैं। उन्हें किसी भी सीमा में बांधना ठीक नहीं है। दुर्भाग्य से हमारे स्वातंत्र्योत्तर युग में महापुरूषों को स्थान, धर्म और जाति की बेड़ियों में जकड़ा गया है। विशेष महापुरूष विशेष वर्ग के द्वारा ही सत्कृत हो रहे हैं। एक समाज विशेष ही विशिष्ट व्यक्तित्व की जयंती मनाता है, अन्य जन उसमें रूचि नहीं दर्शाते, ऐसा प्रायः देखा जा रहा है। यह स्थिति दुभाग्यपूर्ण है। महापुरूष चाहे किसी भी देश, जाति, वर्ग, धर्म आदि से संबंधित हो, वह सबके लिए समान रूप से पूज्य है, अनुकरणीय है। इस संदर्भ में भगवान परशुराम जो उपर्युक्त बिडंबनापूर्ण स्थिति के चलते केवल ब्राह्मण वर्ग तक सीमित हो गए हैं, समस्त शोषित वर्ग के लिए प्रेरणा स्रोत क्रांति‍दूत के रूप में स्वीकार किए जाने योग्य हैं और सभी शक्तिधरों के लिए संयम के अनुकरणीय आदर्श हैं।