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Last Modified: शनिवार, 13 सितम्बर 2014 (12:09 IST)

देश की आर्थिक संरचना भाषा को प्रभावित करती है

देश की आर्थिक संरचना भाषा को प्रभावित करती है - देश की आर्थिक संरचना भाषा को प्रभावित करती है
- वीरेंद्र जैन  
 
जीवित प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जिसे भाषा की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। अन्य प्राणी तो अपनी भूख, खतरे और सैक्स के लिए बहुत थोड़े से स्वरों से अपना काम चला लेते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य एक विकसित सामाजिक प्राणी है और अनेक आयामों पर काम करता है। वह अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील होता है और उसकी जीवन पद्धति अधिक संश्लिष्ट है। 



 
देखा गया है कि जो मानव समुदाय विकास की दौड़ में जितना पीछे है उनकी शब्द संपदा उतनी ही कम है और भाषा भी पिछड़ी हुई है। दूसरी ओर बहुत तेजी से विकास के रास्ते पर दौड़ने वाले लोग अनेक भाषाएं सीखने में भी पीछे नहीं रहते। इससे दो बातें सिद्ध होती हैं, पहली तो यह कि भाषा का विकास से सीधा संबंध है दूसरे आमजन उसी भाषा को सीखने में अधिक रुचि रखते हैं, जो उनके अपने विकास के मापक की ओर पहुंचाने में मददगार होती है।
 
पुरातत्वशास्त्री संस्कृत-पाली व प्राकृत सीखते हैं तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र में उपाधि पाने के इच्छुक लोगों को संस्कृत सीखना होती है। सत्तर के दशक में जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने अनेक राजनीतिक कारणों से बैंकों, बीमा कंपनियों और अनेक दूसरे संस्थानोंका राष्ट्रीयकरण किया व इन संस्थानों को आमजन के लिए खोल दिया तो इन संस्थानों को आम आदमी के साथ व्यवहार में आना पड़ा। इस व्यवहार को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक था कि उक्त संस्थान अपने कामकाज में आम आदमी की भाषा का प्रयोग करें। 
 
ये वही दौर था जब बड़े पैमाने पर इन संस्थानों में हिन्दी अधिकारियों की नियुक्तियां हुईं और इनके रजिस्टरों व प्रपत्रों में हिन्दी का उपयोग शुरू हुआ। नई आर्थिक नीति आने व कम्प्यूटरीकरण के बाद इस सब पर रोक लग गई। हिन्दी का विरोध करने वाले क्षेत्रों के पर्यटन स्थलों और तीर्थस्थलों पर सभी दुकानदार व परिवहन वाले लोग बखूबी हिन्दी सीख चुके हैं और व्यवहार करते हैं। तमिलनाडु के राजनेताओं को जब केंद्रीय सत्ता में भागीदारी मिलने लगती है तब उनका हिन्दी विरोध कम होने लगता है। ठीक से मोलभाव करने के लिए शुद्ध खड़ी बोली का इस्तेमाल करने वाले; सब्जी वालों से क्षेत्रीय बोली में बोलते देखे जाते हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि हमारा आर्थिक ढांचा हमारी भाषा का निर्धारण करता है।  
 
हमें अपने दैनंदिन जीवन लक्ष्यों को पाने के लिए संवाद की आवश्यकता होती है व उस संवाद के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। अच्छा संवाद तभी संभव हो सकता है जब हम संबोधित करने वाले व्यक्ति/व्यक्तियों को अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर सकने में सफल हो जाते हैं। इसलिए तय है कि अपनी भाषा को हम अकेले तय नहीं कर सकते अपितु इसमें उस व्यक्ति की भी भूमिका होती है, जिससे हमें संवाद बनाना होता है। अपना लक्ष्य पाने के लिए हम अपनी भाषा में आवश्यकतानुसार सुधार करते रहते हैं। 
 
चूंकि हमें अधिक लोगों से व्यवहार करना होताहै इसलिए प्रत्येक के अनरूप किए गए परिवर्तनों से हमारी भाषा एक नया रूप ग्रहण करती जाती है। ऐसा प्रत्येक व्यक्ति के साथ होता है पर जब एक जैसा परिवर्तन बड़ा रूप ले लेता है तो भाषा के नए स्वरूप का जन्म होता है। सुनिश्चित है कि भाषा समाज में विकास की दिशा के समानुपात में गति करती है तथा दबाव द्वारा इसमें परिवर्तन की संभावनाएं बहुत कम होती हैं। 
 
एक बार हिन्दी के प्रमुख कवि व आलोचक अशोक वाजपेयी ने न्यूयॉर्क में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन का आमंत्रण ठुकराते हुए अपने पिछले अनुभवों के आधार पर उसकी निरर्थकता का वर्णन एक राष्ट्रीय दैनिक में किया था। उनका कहना था कि मैं इसे व्यर्थ लक्ष्यहीन और फिजूलखर्ची मानता हूं। इससे हिन्दी की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और ख्याति में कोई इजाफा नहीं होता। सम्मेलन पर खर्च की जा रही राशि अगर कुछ प्रमुख विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्ययन को सबल करने और वहाँ चेयर्स आदि स्थापित करने में लगाई जाती तो हिन्दी का भला होता और धन का सदुपयोग भी। 
 
अब तक के सम्मेलन हिन्दी की बहुलता, सर्जनात्मकता, बौद्धिक संपदा और संभावनाओं का सार्थक इजहार करने में सफल सिद्ध हुए हैं। अशोकजी का यह कथन शतप्रतिशत सही होते हुए भी इसलिए निरर्थक रहा, क्योंकि वे स्वयं ऐसे एक नहीं अपितु अनेकआयोजनों के आयोजक रह चुके हैं इसलिए ऐसे वक्तव्य देने के तब तक सुपात्र नहीं हो सकते जब तक कि अपनी भूलों के लिए प्रायश्चित करते हुए यह सब नहीं लिखते। 
 
भाषा के जड़त्व का दुराग्रह भी किसी भी तरह से दूसरे जड़त्वों के दुराग्रहों से भिन्न नहीं होता है। जब कबीरदास ने कहा था कि -संसकिरत है कूप जल भाषा बहता नीर- तब वे किसी भाषा या लिपि के प्रति पक्षधरता न करते हुए ऐसी पक्षधरताओं को ठुकरा रहे थे। भाषा के लोकतंत्र की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि व्यक्ति अपनी भाषा में अपनी बात कह सकने में स्वतंत्र हो। तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस को जनभाषा में लिखते समय देवभाषा में ही प्रभु चरित्र लिखे जाने की सीमा बांधने वाले पुरोहितों से लंबा संघर्ष किया था।