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Written By WD

विजय चौक लाइव : 'खबरों की दुनिया' की खबर लेता उपन्यास

चैनल दुनिया के अंदर की 'धुंआ' धार पेशकश

Vijay Chouk Live : Book Review | विजय चौक लाइव : ''खबरों की दुनिया'' की खबर लेता उपन्यास
विजय विद्रोही, एबीपी न्यूज

देश में न्यूज चैनलों की बाढ़ आई हुई है। कुछ बंद होते हैं तो कुछ खुल भी जाते हैं। कुछ सूचना प्रसारण मंत्रालय में हरी झंडी के इंतजार में है। हर जगह न्यूज चैनलों की चर्चा है। जितनी चर्चा चैनलों के बाहर हैं उतनी चैनलों के भीतर भी हैं। यह चर्चा अब तब किताबों की शक्ल भी लेती रहती हैं। पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि अखबारों और पत्रिकाओं में न्यूज चैनलों की समीक्षा भी होने लगी हैं। हंस, नया ज्ञानोदय और कथादेश जैसी पत्रिकाओं ने न्यूज चैनलों के अलग अलग पहलुओं पर विशेषांक भी छापे हैं। किताबें भी कुछ बाजार में आई हैं।

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इस सिलसिले को आगे बढ़ाया है टेलीविजन पत्रकार शिवेन्द्र कुमार सिंह ने अपनी किताब विजय चौक लाइव के जरिए। जिसे सामयिक प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। किताब पर वरिष्ठ साहित्यकार स्वर्गीय राजेंद्र यादव समेत कई दिग्गजों ने अपनी टिप्पणी की है। जिसमें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर, निर्देशक मधुर भंडारकर, सुभाष घई, अभिनेता इरफान समेत वरिष्ठ पत्रकार विनोद कापड़ी शामिल हैं।

विजय चौक लाइव में शिवेन्द्र ने न्यूज चैनलों में काम कर रहे पत्रकारों की बुनियादी जरुरतों को भी उठाया है और बड़े मुद्दे भी सामने रखे हैं। शिवेन्द्र का टीवी न्यूज चैनलों में बारह सालों से ज्यादा के काम का अनुभव है। इस दौरान वह जी न्यूज, स्टार न्यूज, बाद में एबीपी न्यूज और इंडिया टीवी जैसे चैनलों में रहे हैं। वह जानते हैं कि किस तरह से न्यूज चैनलों में काम होता है, कैसे संपादक की पसंद-नापसंद से किसी रिपोर्टर की छवि चैनल में बनती बिगड़ती है और कैसे चैनलों में राजनीति भी अपनी जगह काम करती है।

इस सबको उपाध्यायजी और डियरजी नाम के दो कैरेक्टरों के माध्यम से बडी ही बेबाकी और खूबसूरती से शिवेन्द्र ने उठाया है। इस बात को शिवेन्द्र ही उठा सकते थे कि न्यूज चैनल का पत्रकार मौके बेमौके ‘छुटटी’ क्या अपने ‘वीकेली ऑफ’ तक के लिए तरसता है । यह बात शायद पहली बार इतने पुरजोर ढंग से कही गई है। इस उस काम के बहाने ‘ऑफ’ वाले दिन भी बुलवा लिए जाते हैं पत्रकार , कोई बड़ी घटना हो तो छुटटी कैंसिल हो जाती है। ऐसे में बेचारे पत्रकार को बहाने लगाने पड़ते हैं। प्यार, पेमेंट, प्रमोशन और पत्रकारिता को अनोखे अंदाज में शिवेन्द्र ने सामने रखा है।

विजय चौक लाइव की सबसे खास बात यह है कि इसे टीवी न्यूज के बुलेटिन स्टाइल में लिखा गया है। जैसे बुलेटिन में मुख्य समाचार होते हैं उसी तरह उपन्यास में भी विजय चौक से रोज रात को एक लाइव बुलेटिन प्रसारित होता है। इसमें उस दिन न्यूज चैनलों में क्य़ा-क्या हुआ उसकी विस्तार के साथ चर्चा की जाती है। टीवी न्यूज की स्टोरी की तरह।

एक बुलेटिन की हेडलाइंस देखिए- मालिक का नौकर जमकर दे रहा है ज्ञान। संपादकीय टीम को बताता है कि किस स्टोरी के साथ जंचेगी किस गाने की तान। बहार टीवी के एक सीनियर अधिकारी ने ऑफिस की पार्टी में पेग लगाए चार, संपादक को दी गाली साथी रिपोर्टर को थप्पड़ दिया मार। ट्रेनी रिपोर्टर को लिखे प्रेम पत्र की शिकायत को संपादक ने दिया टाल, लेकिन अकेले में चटकारे ले-लेकर किया सवाल और पत्नी से नाराज संपादक ने उतारा इंटर्न पर गुस्सा, 4 दिन बाद ही दोबारा नाइट शिफ्ट में ठूसा। इन हेडलाइंस के साथ पहले एंकर है फिर पहला वी ओ या वायस ओवर उसके बाद पहली बाइट है। फिर दूसरा वी ओ, फिर दूसरी बाइट और अंत में पीटीसी । यानि पीस टू द कैमरा यानि अपनी स्टोरी के आखिरी में जिस तरह से रिर्पोटर खुद फ्रेम में आता है और अपनी बात रखता है ।

उपाध्यायजी इस लाइव शो की एंकरिंग करते हैं। वह बताते हैं कि चैनल में मैनेजमेंट ने तनख्वाह नहीं बढ़ाने का फैसला दुबई की बैठक में लिया है। कैसे संपादक ने एक रिपोर्टर को डांट दिया क्योंकि किसी बड़े नेता से उसकी मुलाकात में देरी हो रही थी, कैसे बात न मानने पर किसी प्रोडयूसर को नाइट शिफ्ट में डाल दिया गया और कैसे किसी बेचारे का वीकली आफ रद्द कर दिया गया।

उपाध्याय जी सिर्फ लाइव शो तक ही सीमित नहीं रहते। शो के बाद कैमरामैन , दूसरे एंकरों, रिपोर्टरों के साथ शराब के दौर चलते हैं जहां ड्राइवर बताता है कि किस एंकर का किसके साथ चक्कर चल रहा है और कौन क्या किसके लिए कह रहा था। उपाध्यायजी का एक इसके अलावा एक निजी हिस्सा भी है। उनकी और डियरजी की कहानी। शिवेन्द्र ने उपाध्यायजी के तीनों चरित्रों के बहाने न्यूज चैनलों की कहानी सामने रखी है।

उपाध्यायजी लाख शराबी हो या वक्त के साथ व्यवस्थावादी हो गये हों लेकिन वह लाइन शो में उच्चारण से लेकर शक्ल तक का खास ध्यान रखते हैं। वह भले की अपनी नौकरी से उकता गये हों और संपादकों, मालिकों को चैनलों के पतन के लिए जिम्मेदार ठहराते हों लेकिन जब लेकिन डियरजी के यहां कुछ आईएएस अफसर न्जूज चैनलों को गरियाते हैं तो जिस तरह से उपाध्यायजी फटते हैं उसे शिवेन्द्र ने पूरी संवेदनाओं के साथ सामने रखा है।

अभिनेता इरफान की विजय चौक लाइव पर लिखी गई टिप्पणी बेहद सटीक है। उन्होंने लिखा है कि 'कुछ कहानियां लेखक के अस्तित्व से फूट पड़ना चाहती हैं। लेखक के निजी तजुर्बे तक ही सीमित रह जाना अब उन के बस में नहीं। इस किताब के पन्नें पढ़ कर यही लगा कि लेखक के अनुभव उसे कोंच रहे हैं, वह सब के मन का हिस्सा होना चाहते हैं। अनुभूतियों को पर लग गए हैं। ख़बरों के उद्योग के अन्दर की 'धुंआ' धार पेशकश”।

देश में हाल की कुछ घटनाओं ने विजय चौक ‘लाइव’ को और प्रासंगिक भी बना दिया है। बड़े संपादकों का अलग अलग मामलों में फंसना हो या फिर पत्रकारों का राजनीति में जाना। इसके अलावा हाल के दिनों में बड़े समाचार चैनलों में अचानक हुई ‘छंटनी’ । इन सभी पहलुओं की तरफ विजय चौक लाइव इशारा करती है। अगर आप मीडिया में हैं और इस किताब को पढ़ रहे हैं तब तो ये आपको अपने आस पास घट रही घटनाओं का लेखा जोखा लगती है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने आपको झकझोंर कर रख दिया हो कि जिस पत्रकारिता की दुनिया में हैं उसका मौजूदा स्वरूप कैसा होता जा रहा है।

अगर आप पत्रकारिता की दुनिया से बाहर एक आम पाठक के तौर पर इसे पढ़ रहे हैं तो ये उपन्यास एक खिड़की की तरह है जो आपको खबरों की दुनिया के भीतर ले जाता है। ये उपन्यास उस फैंटेसी को भी काफी हद तक तोड़ता है जो इस पेशे में आने वालों के दिमाग में होती है। उन्हें लगता है कि किस तरह उन्हें नौकरी मिले फिर जल्दी से उनका चेहरा स्क्रीन पर दिखाई देने लग जाए। उनके हाथ में चैनल का माइक हो। गले में किसी भारी भरकम मीडिया चैनल का परिचय पत्र हो। लेकिन विजय चौक लाइव बताता है कि इन सबके पीछे का संघर्ष।

जैसा इस किताब के बारे में वरिष्ठ टीवी पत्रकार विनोद कापड़ी ने लिखा भी है कि टेलीविजन की एक ऐसी दुनिया जिसमें सब कुछ है, नाम है...पैसा है...ग्लैमर है, कुछ नहीं है तो वक्त, चैन और सूकून। न्यूजरूम की दुनिया में हजारों खबरों के बीच टीवी वाले खुद से, परिवार से, रिश्तों से कितने बेखबर हैं इसकी मिसाल ये कहानियां हैं। टीवी न्यूज की जो पीड़ा लेखक ने समझी है वो सोचने को मजबूर करती है कि कैमरा लाइट्स और एक्शन के पीछे का जीवन आखिर है कहां?

कुल मिलाकर विजय चौक लाइव में अधिकतर न्यूज चैनलों का नकारात्मक पक्ष ही सामने रखा गया है। यहां संपादकीय विभाग की दिक्कतों तकलीफों का तो विस्तार से जिक्र है लेकिन आर्थिक मंदी के इस मुश्किल दौर में मैनेजमेंट संपादक किस तरह से जैसे-तैसे चैनल को चलाए हुए हैं, सबको तनख्वाह देने का जुगाड़ कर रहे हैं उस पक्ष पर शिवेन्द्र की नजर नहीं के बराबर ही पड़ी है। अगर इस पहलू की तरफ भी ध्यान दिया जाता तो उपन्यास और ज्यादा संपूर्ण हो सकता था। शिवेन्द्र की भाषा साफ सुथरी है। वह चाहते तो प्रेम प्रसंगों को लंबा खींचकर चटपटा बना सकते थे लेकिन वह इससे बचे हैं। सरल टीवी की भाषा में पूरा उपन्यास लिखा गया है जो अपने लिखने के रोचक अंदाज के कारण भी एक सांस में पढ़ा जाने लायक है। उपाध्यायजी का एक शो पढ़ने के बाद दूसरे दिन की हेडलाइंस क्या होगी। इसे जानने की उत्सुकता उपन्यास को और ज्यादा पठनीय बना देती है।