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दलितों की जनतांत्रिक चेतना

पद और सत्ता के बाद...

दलितों की जनतांत्रिक चेतना -
- डॉ. हेमलता दिखित

ND
बिहार के गाँवों की पृष्ठभूमि पर रामधारी सिंह दिवाकर का उपन्यास 'अकाल संध्या' आया है। रचना में जमीदारी समाप्ति के बाद सवर्णों की घटती सत्ता और दलितों में जनतांत्रिक चेतना के कारण बढ़ते आत्मविश्वास की कहानी है। यह ग्रामीणों द्वारा उन्हीं की भाषा में कही गई, उन्हीं की कहानी है।

यह मानवीय संबंधों के उपयोगी और अनुपयोगी होने और समय के अंतराल के कारण रिश्तों की गरमाहट कम होते जाने की भी कहानी है। मुख्य पात्र माई का कथन 'समझो तो सब अपने, नहीं तो सब पराए', साबित करता है कि रिश्ते होने भर से नहीं, निभाने से होते हैं। खाली पढ़-लिख लेने से आदमी समझदार नहीं, हाँ, चतुर और स्वार्थी जरूर हो जाता है। माई का बेटा नंदू इसका जीवंत उदाहरण है। ग्रामीण भाषा में संवाद पात्रों को स्वाभाविक बनाते हैं।

कहानी उस समय का उल्लेख करती है, जब गाँव वर्ण व्यवस्था के आधार पर 'टोलों' में बँटे थे। फिर आजादी के बाद बाबा साहब आम्बेडकर, विनोबा भावे के भूदान यज्ञ, बिना जात-पात की व्यवस्था, साम्यवाद, वीपी सिंह के मंडल कमीशन और मुख्यमंत्री मायावती का उल्लेख है।
  बिहार के गाँवों की पृष्ठभूमि पर रामधारी सिंह दिवाकर का उपन्यास 'अकाल संध्या' आया है। रचना में जमीदारी समाप्ति के बाद सवर्णों की घटती सत्ता और दलितों में जनतांत्रिक चेतना के कारण बढ़ते आत्मविश्वास की कहानी है।      


रचना वर्तमान राजनीति के दोगलेपन को भी उजागर करती है। कहानी, लेखक के कथन, 'जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं और जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता' को, पूर्णतः सिद्ध करती है। सवर्ण, वोट के अधिकार को सामाजिक व्यवस्था टूटने का कारण मानते हैं। पंडित खड्गनाथ की बेटी कलावती, दलित बीडीओ विनोद से शादी करती है। दुखी पंडितजी कहते हैं, 'यह कलियुग है...हम लोग तो सोचते थे, कि अभी सनातन धर्म की व्यवस्था चलेगी, लेकिन अकाल संध्या आ गई है। साँझ के पहले साँझ हो गई।'

बड़का गाँव की माई एक लंबे समय की गवाह है। उसने जमीदारों का वैभव और पतन दोनों देखे हैं, साथ ही दलितों के बेटों को एसपी और बीडीओ बनकर सवर्ण कन्याओं से शादी करते भी। वह दुखी है कि पद और सत्ता मिलने पर ये लोग भी वही सब कर रहे हैं, जो पहले जमींदार किया करते थे। एकमात्र बेटा नंदू विदेश में है, मगर वह अकेली और दयनीय नहीं है। वह मानती है,

'अपने को बाँटने से सुख मिलता है।' मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानने वाली माई का दालान 'होम फॉर होमलेस' है। यहाँ शराबी बाप की बेटी कजरी, कबीरपंथीमहाबिर मियाँ, उलटदास, सौखी परिवार और एड्स का रोगी हदीस रहते हैं। माई ने नंदू को, पति के ऑपरेशन के पैसे बचाते ('अब जीकर भी क्या करेंगे बाबूजी?') और उनकी मृत्यु के बाद मिले पैसे, विदेश यात्रा में खर्च करते देखा है। उसे गए 5 वर्ष हो गए हैं, मगर वह अपनी पेंशन, कजरी के बच्चे और दालान में रहने वाले अपने बड़े से परिवार में सुखी है।

मरकसवा (मार्क्सवादी) गाँव की कजरी एक दूसरा सशक्त पात्र है। आत्मविश्वास और समझदारी से भरपूर और माई के हर काम में सहायक। वह विधायक भदेसर को उसकी कुदृष्टि के कारण अच्छा सबक सिखाती है। पिता की मृत्यु के बाद अपनी जमीन मुक्त करवाती है। दंगा-पीड़ितबनारसी और किसुनियाँ को मुआवजा दिलवाने पटना ले जाती है। सखी सँझियाँ के गाँव में बच्चों और बुजुर्गों के स्कूल शुरू करवाती है और जख्मी बिदेसर के परिवार को बड़ी मालकिन के चंगुल से मुक्त करवाती है। उसकी इसी सक्रियता के कारण कुछ लोग उस पर हमला करते हैं।

स्कूल के स्वर्ण जयंती उत्सव में बुद्धन माँझी के माध्यम से लेखक अपना संदेश देता है। डिप्टी सीएम प्रो. अनवर हुसैन बुद्धन को मंच पर बैठाकर पूछते हैं कि राज बदलने से गाँव में क्या कुछ असर हुआ है? वह निडरता से कहता है, 'असर नहीं हुआ है, तो हम आपके सामने कुर्सी पर कैसे बैठे हैं?' वह आगे कहता है, कि जिन दलितों को लोग मनुष्य नहीं समझते थे, वे आज न केवल बदल रहे हैं, बल्कि एक होकर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी हो गए हैं। पुस्तक बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहे गाँवों का प्रामाणिक दस्तावेज है।

पुस्तक : अकाल संध्या
लेखक : रामधारी सिंह दिवाकर,
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-3
मूल्य : रु. 225