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नतोहम् : उपन्यास के प्रवाह में सिंहस्थ स्नान

नतोहम् : उपन्यास के प्रवाह में सिंहस्थ स्नान - Book Review #Natoham
सुषमा मुनीन्द्र 
साहित्य अकादमी, म.प्र. के अखिल भारतीय राजा वीरसिंह देव पुरस्कार से सम्मानित सुपरिचित रचनाकार मीनाक्षी स्वामी की यह कृति भारत की समृद्ध, गौरवशाली और लोक कल्याणकारी संस्कृति के गौरव को समूचे विश्व के समक्ष रखती है।

सिंहस्थ एकमात्र वैश्विक आयोजन है और इसे केंद्र में रखकर लिखा गया एकमात्र उपन्यास है "नतोहम्"। कथा लेखन की सशक्त हस्ताक्षर डॉ. मीनाक्षी स्वामी का यह उपन्यास हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट कृति के रूप में विषय विशेषज्ञों और पाठकों के बीच लोकप्रियता व ख्याति अर्जित कर चुका है।
 
उपन्यास के विलक्षण कथा संसार को कुशल लेखिका ने अपनी लेखनी के स्पर्श से अनन्य बना दिया है। नायक एल्विस के साथ पाठक शिप्रा के प्रवाह में प्रवाहित होता है, डुबकी लगाता है। विदेशी यात्री और फोटोग्राफर एल्विस, शिप्रा की प्रतीक काकी, डॉ. मंगलाकांत पौराणिक जैसे किरदारों के अतिरिक्त उपन्यास में उज्जैन और शिप्रा भी महत्वपूर्ण किरदार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते आकर्षित करते हैं। पाठक लौकिक जगत की सैर करते हुए सिंहस्थ के जरिए पारलौकिक जगत में पहुंच जाते हैं।
 
सिंहस्थ केवल धर्म नहीं समूची संस्कृति है, जिसमें कलाएं है, साहित्य है, ज्ञान है, विज्ञान है, दर्शन है, पर्यटन है, लोकजीवन है, अध्यात्म है, आस्था है, परंपरा है, सामाजिक समरसता है, राष्ट्रीय एकता और विश्व बंधुत्व है। इन सभी बिंदुओं को कथारस में समेटता यह अनूठा उपन्यास है। 
 
इस उपन्यास में मंत्रमुग्ध करने वाली भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के सभी पहलुओं पर वैज्ञानिक चिंतन है। यह शब्द नाद का प्रतिफलन है। सृष्टि के हंता और नियंता भगवान महाकाल की प्रिय भूमि उज्जैन के समूचे सांस्कृतिक सौष्ठव को दर्शाती यह कृति लौकिक और अलौकिक दोनों जगत से साक्षात्कार कराती चलती है। 
 
बाहर का सब कुछ जानने के बाद जब भीतर को जानने की चाह पैदा होती है, तो इसकी पूर्ति शिव के उसी वैभव में होती है, जो किसी ऊंची तकनीक में नहीं वरन भस्मारती के रूप में महाकाल में हर सुबह घटित होती है। यह भीतर को जानने की चाह का समाधान है। जिसमें एल्विस के साथ पाठक भी समाधान पा लेते हैं।
 
"एल्विस सब कुछ भूल भस्म आरती में डूब गया...खो गया...और खुद को खोकर उसने सर्वस्व पा लिया...सर्वस्व...। विराट के वैभव से वह समृध्द हो गया। पूरी देह रोमांच से प्रकंपित हो गई। हृदय भावविभोर हो आसमान की ऊंचाई छूने लगा। वह बावरा सा हो गया। ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम् की सच्ची अनुभूति...। क्या मेरी देह कभी महाकाल का अभिषेक करेगी...?’ उसे जैसे लौ ही लग गई। आरती के बाद का यह एल्विस कोई और था। उसके भीतर सब कुछ बदल गया था। इन कुछ मिनटों में वह जाने कितने युग पार कर चुका था।
 
उसे लगा सब छोड़कर अभी से ही यहीं रुक जाए, देह के भस्म होने तक...। तब देह की भस्म हो महाकाल की देह पर और देहातीत आत्मा का समागम हो विदेह महाकाल से। वह भाव विह्वल हो वहीं महाकाल के नंदी के समीप बैठ गया। अश्रुधारा सूख चुकी थी मगर चिन्ह शेष थे। बावजूद इसके महाकाल से मिलन का प्रखर तेज उसके मुखमंडल को विराट आभा प्रदान कर दैदीप्यमान बना रहा था। उसका समग्र प्रभामंडल अलौकिक आभा से तेजस्वी हो गया था। पौराणिकजी कुछ पल उसे देखते रह गए फिर ‘ओम नमः शिवाय’ कहते हुए उससे कुछ दूर जाकर बैठ गए। परमानंद में डूबे एल्विस को किसी का होश न था। महाकाल दर्शन उसके लिए चमत्कारिक आध्यात्मिक अनुभव था।" पृष्ठ ४७
 
इसी तरह मोक्षदायिनी शिप्रा में स्नान की नायक एल्विस के साथ पाठक भी अनुभव करता है "और उसने डुबकी लगा दी़। यह स्नान उसे आज तक के सारे स्नानों से बिल्कुल अलग लगा। अच्छे से अच्छे स्वीमिंग पुल में तैरा था, नहाया था। नदी तो क्या समुद्र में भी डुबकी लगा चुका था। मगर यहां डुबकी लगाते ही जैसे उसका कायांतरण हो गया। अनोखी पावनता तन मन से आगे आत्मा तक में समाती महसूस हुई। क्या यह उस आध्यात्मिक शक्ति का चमत्कार था या शिप्रा के पुण्य सलिला होने का या फिर अमृत की उन बूंदों का जो कभी यहां छलकी थी। जो भी वह अलौकिक अनुभूति के साथ बाहर निकला।" पृष्ठ २२८
 
उज्जयिनी का फलक विराट है, कदम-कदम पर रहस्य है। बार-बार और बार-बार खोजते जाने पर भी लगता है जैसे सब कुछ अनखोजा ही है। पीछे और पीछे चक्र घूमता ही जाता है पर उज्जयिनी अनादि है, कालजयी है। पौराणिक मान्यतानुसार यह सृष्टि की रचना का केन्द्र है। पृथ्वी का केन्द्र है, यह वैज्ञानिक तथ्य है। यह नगरी अनवरत सांस्कृतिक प्रवाह की साक्षी है। इसमें कुछ ज्ञात हैं, कुछ अनुमान और बहुत कुछ अज्ञात। यहां का वैभवशाली अतीत जिसका गौरव वर्तमान में भी अक्षुण्ण है भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का महान यथार्थ है। इसके सम्मुख नतमस्तक होने का परिणाम है- यह उपन्यास।
 
यूं तो उज्जयिनी का जिक्र आते ही धार्मिक, पौराणिक परिदृश्य उभरता है। उज्जैन के धार्मिक, पौराणिक महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। मगर इसके अलावा भी उज्जैन का बहुत विराट फलक है जो धार्मिक परिदृश्य की महाछाया में छुप जाता है। 
 
उज्जैन की द्वापर कालीन गुरुकुल परंपरा वर्तमान में विक्रम विश्वविद्यालय के आधुनिक स्वरूप में निरंतर विकास की ओर अग्रसर है। कालिदास की नाट्य परंपरा इस युग में, वैश्विक परिदृश्य में इस तरह उभरती है कि कालिदास समारोह में संस्कृत नाटकों का मंचन समूचे विश्व में बेजोड़ है। पं. सूर्यनारायण व्यास ने उज्जयिनी के गौरव को समूचे विश्व में बढ़ाने में अपना पूरा जीवन ही खपा दिया। चाहे सांदीपनि ऋषि की परंपरा हो या कालिदास की नाट्य परंपरा। शिप्रा के आसपास की सांस्कृतिक विरासत को सहेजना और मालवी संस्कृति के विकास की उनकी प्रेरणा, यहां आज भी जीवंत हैं। 
 
यह उपन्यास उज्जैन के बहाने भारतीय दर्शन, परंपराओं और संस्कृति की खोज है जो सुदूर विदेशियों को भी आकर्षित करती है। इसमें इतिहास की महक के साथ आधुनिक दृष्टिकोण भी है। यह भारतीय चिंतन, धर्म और संस्कृति के मानवीय पहलू को उजागर करता है। इसमें भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं का सतत् आख्यान है। 
 
सिंहस्थ में विदेशी भी कृतकृत्य होकर जाते हैं।"कृतज्ञता की लहरों के वेग से आंसू उमड़ने लगे। परमपिता परमात्मा का अपार...अनंत धन्यवाद। उसका शीश झुक गया। वह धरती पर बैठ गया। उसका माथा इस पावन धरा पर टिक गया। उमड़ते आंसुओं से मिट्टी नम होने लगी। ‘इस मिट्टी ने मुझे परमात्मा की अनुभूति कराई है।’ धरती पर टिके उसके हाथों की मुट्ठी बन गई। मुट्ठी में बंद था, पावन मिट्टी का अनमोल खजाना। खजाना उसने हृदय से लगा लिया। ‘इस मिट्टी के जरिए पूरा भारत मेरे पास आ गया है।’ उसे अपने रुमाल में रख लिया। ‘इसे मैं अपने साथ ले जाऊंगा।’ सोचता हुआ एल्विस उठ खड़ा हुआ।" पृष्ठ ३४७
अनुभूतियों के वेग से पाठक के नेत्र भी उमड़ने लगते हैं। 
 
मीनाक्षी स्वामी चूंकि समाजशास्त्री भी हैं सो उपन्यास में सिंहस्थ जैसे आयोजन के सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक आदि सभी पहलुओं का गहराई से विश्लेषण करते हुए उपन्यास आगे बढ़ता है। विराट वैश्विक आयोजन सिंहस्थ में देश भर के आध्यात्मिक रहस्य और सिद्धियां एकजुट हो जाते हैं। इन्हें देखने, जानने, समझने को विश्वभर के जिज्ञासु अपना-अपना दृष्टिकोण लिए एकत्र होते हैं। इन्हीं गूढ़ रहस्यों को उपन्यास उद्घाटित करता है। इसमें सिंहस्थ के साथ पूरे विश्व को आकर्षित करने वाले भारतीय दर्शन, संस्कृति और परंपराओं की खोज है। सिंहस्थ के दौरान मन प्राण के वे सूक्ष्मतम भाव, जो उज्जैन की पवित्र धरा पर उपजते हैं, वायु मंडल के जरिए मन में उतरते हैं, उनकी रोचक प्रवाहमय भावाभिव्यक्ति है। 
 
तथाकथित आधुनिकता से आक्रांत भारतीय जनमानस को यह उपन्यास अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए आकृष्ट करता है। इसमें पुराण और इतिहास की महक के साथ आधुनिक दृष्टकोण भी है। भारतीय संस्कृति व अध्यात्म में रुचि रखनेवाले पाठकों के लिए उपन्यास "नतोहम्" अप्रतिम उपहार है। इस उपन्यास के जरिए भारतीय संस्कृति के गौरवशाली पहलुओं को देश दुनिया के लोग जान सकेगें, भारतीय अध्यात्म प्रधान संस्कृति का देश दुनिया में प्रसार होगा।
    
अटलबिहारी बाजपेई हिंदी विश्वविश्वविद्यालय, भोपाल के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल यह उपन्यास युवा पीढ़ी को भारतीय सांस्कृतिक धारा से जोड़ता है। जेनेन्द्र कुमार के त्यागपत्र, चित्रा मुद्गल के गिलिगुडु, नरेंद्र कोहली के तोडो कारा तोडो जैसे कुल चार उपन्यासों के साथ इसका पाठ्यक्रम में शामिल होना इसकी सार्थकता दर्शाता है।आकाशवाणी द्वारा सिंहस्थ के अवसर पर इस पर आधारित धारावाहिक नाटक "सिंहस्थ यात्रा" शीर्षक से निर्मित व प्रसारित किया गया है। 
 
 
पुस्तक :  नतोहम्
रचनाकार :  मीनाक्षी स्वामी
प्रकाशक :  किताबघर प्रकाशन
मूल्य : चार सौ रुपए