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Written By WD

'नक्काशीदार केबिनेट' : नारी संघर्ष की एक सजीव गाथा

'नक्काशीदार केबिनेट' : नारी संघर्ष की एक सजीव गाथा - Book Review
समीक्षक - डॉ. अमिता
 
सुधा ओम ढींगरा का अमेरिका में रहते हुए अपने देश भारत और प्रांत (पंजाब) से गहराई से जुड़े रहना इस बात को सिद्ध करता है, कि उनके भीतर भारत की मिट्टी की महक उसके दर्द, पीड़ा और संवेदनाएं जिंदा है। उनका उपन्यास 'नक्काशीदार केबिनेट' मूल रूप में पंजाब प्रांत के एक परिवार और उसके साथ परिवेश के बनते-बिगड़ते रिश्तों की कथा है, जिसमें नारी संघर्ष बड़े प्रभावशाली रूप में उभरा है। नारी संघर्ष में सोनल और मीनल की कहानी बड़े मर्मस्पर्शी रूप में उपन्यास के पृष्ठों पर रूपायित है। इस संघर्ष में सोनल जैसी लड़की का साहस और धैर्य पाठक के हृदय को छू लेता है। इसके साथ ही पंजाब से विदेश की ओर आकर्षण जाल में फंसी नारियों के विवाह के चक्रव्यूह को उपन्यासकार ने बड़ी सच्चाई से उतारा है।
 

 
नशाखोरी, आतंकवाद और खालिस्तान जैसी समस्याओं में, संवेदनाओं के मध्य गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंद सिंह जैसे महान गुरुओं के हिंदू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान की कहानी रोचक ढंग से लेखिका ने सुनाई है। उपन्यास में डॉ. संपदा और सार्थक पति-पत्नी हैं। अमेरिका में 'हरीकेन' और 'टॉरनेडो' तूफान पूरी शक्ति के साथ उनके प्रांत में आ जाते हैं, जिसके कारण बारिश और चक्रवात उनके निवास के स्थान पर जबरदस्त क्षति पहुंचाते हैं। उनके घर में पानी घुस आता है और पेड़ टूट कर उनका घर तोड़ देते हैं। इसी प्रकार जहां अनेक नुकसान होते हैं वहीं नक्काशीदार केबिनेट रोज़ वुड से बना हुआ (मध्ययुगीन कला का सुंदर नमूना) क्षतिग्रस्त हो जाता है। वह पानी में औंधा पड़ा होता है। उसमें वर्षों की यादें थीं। इसमें एक काले रंग वाली डायरी भी थी जिसे फुर्सत में लेखिका पढ़ती जाती है और स्मृतियों में बसी कहानी डायरी शैली में उपन्यास पर उतरती जाती है। कहानी वर्तमान से अतीत की ओर, फिर अतीत से वर्तमान में आ जाती है।
 
डॉ. संपदा एक समाज सेवी संस्था से वर्षों से जुड़ी है। वहां उसकी मुलाकात सोनल से होती है। उसकी चाल ढाल और लहजे से डॉ. संपदा समझ जाती हैं, कि वह एक शिक्षित लड़की है और ग्रामीण पंजाब से संबंधित है। इस देश में उसने अपने अस्तित्व को तलाशा और अपने पांव पर खड़ी होकर, उन सबसे अपने हिस्से की खुशियां वापिस ली, जिन्होंने जवानी और बचपन में उससे वे छीन ली थी। मेरे लिए वह नारी सशक्तिकरण का जीवंत उदाहरण थी। उसने जीवन में घटनाओं, दुर्घनाओं, विश्वासघात धोखा और फरेब के जिस दौर को देखा था, उन सबसे निकलकर उसने जो कर दिखाया, वह खास था।'' इस प्रकार वास्तव में यह उपन्यास सोनल के विकट व भयावह संघर्ष की रोचक कथा है, जो अनेक संघर्षों से लड़कर भी हारती नहीं है, टूटती नहीं है। अनेक लड़कियों के लिए उसका संघर्ष एक प्रेरणा के रूप में सामने आता है जो विषम स्थितियों में डटकर लड़ती है।

लेखिका ने ग्रामीण परिवेश को प्रगतिशीलता की ओर अग्रसर करके नई सोच को प्रश्रय दिया है जो समयानुकूल आवश्यकता थी। लेखिका ने इस दौर में खालिस्तान की लहर का उल्लेख भी किया है जिसमें अधिकांश युवा भटक गए थे, लेकिन कुछ युवा इस हिंसा का विरोध कर रहे थे जिसमें निर्दोष लोगों की हत्या हो रही थी।

ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा की हत्या और तदनंतर फैली हिंसा का उपन्यासकार ने सजीव चित्रण किया है ''इस दौर में पंजाब, दिल्ली और देश के अन्य भागों में हिंसा भड़क उठी थी। और इस हिंसा ने वीभत्स रूप धारण कर लिया था।'' उपन्यासकार ने 1980 के आस-पास के परिवेश की सच्चाई के साथ उपन्यास में चित्रित किया है जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज बनकर उभरता है।
 
एक हादसे में बाऊजी, पिताजी और बीजी को गोलियों से भून दिया जाता है। केवल सोनल और उसकी मां घर में बच जाते थे। यह मर्मस्पर्शी कथा यहीं खत्म नहीं होती। सोनल के मामा, नाना परिवार सहित सोनल के घर पर आकर रहने लगते हैं। वे आए थे दुख में शामिल होने के लिए, लेकिन उन्होंने सोनल के घर पर डेरा जमा लिया।

इस कथा में सबसे पीड़ादायी स्थिति तब आती है, जब डॉ. बलदेव सिंह की शादी सोनल से करवाई जाती है। यह डॉ. बलदेव झूठ फरेब का पुतला होता है जिसका वास्तव में सुलेमान नाम होता है। सोनल को सुक्खी बहुत अच्छा लगता था। वह वास्तव में उसे बहुत प्यार करती थी। पर मां ने समझाया ''दिल को संभाल ले मेरी बच्ची, मास्टर जी का एक बेटा जा चुका है। दूसरे की जिंदगी खतरे में डालने का तुझे कोई हक नहीं। बंदूक की गोलियां किसी की सगी नहीं होती।

उपन्यास में सोनल का यह दर्द अपने समूचे आवेग में फैला हुआ है जो पाठक के मर्म को छू लेता है। उपन्यास में बलदेव अपने पारिवारिक लोगों को कहता है- ''...पहले इसका विश्वास जीतो। उसके नाने को वादा किया है, कागजों पर उसके साइन करवा कर दूंगा और बदले में उसके घर में पड़े हीरे मेरे होंगे। मुझे हीरे चाहिए। फिर हम सब इक्ट्ठे उसे नोच खाएंगे।'' सोनल उपन्यास में एक स्थान पर कहती है ''बाऊजी, बीजी और पिताजी की मौत के बाद मैं एक रात भी चैन से नहीं सोई थी। यही डर लगा रहता था पता नहीं कौन कहां से आकर, कब मुझे मार डालें।''
 
लेकिन सोनल की कथा यहीं खत्म नहीं होती सोनल बलदेव जैसे दुष्ट लोगों को पुलिस के हाथों पकड़वाने के लिए कृतसंकल्प हो जाती है। रॉबर्ट और डनीस के साथ के बाद वह एक संस्था में डॉ. संपदा को मिलती है। अन्याय का अंत करवाकर लेखिका ने आशावादिता और आस्था का संकेत दिया है जो प्रेमचंद की आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी शैली से मेल खाता है। 
 
लेखिका ने आदर्शात्मक समाधान भी दिए हैं। सोनल और सुखवंत विदेश में रहते हुए (पेरिस में पढ़ाते हुए) एक संस्था बनाते हैं जिसमें विदेशों में देह व्यापार में झोंकी गई भारतीय लड़कियों को खोजना और उन्हें मुक्त करवाने के लिए कार्य करना, पंजाब के गांवों के प्रतिभाशाली बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाना और चिकित्सा सुविधाएं प्रदान करना उनका लक्ष्य है।
 
उपन्यासकार ने कुछ जीवनानुभवों और मूल्यगत सत्यों को विचारों में व्यक्त किया है -
 
''भविष्य की चिंताओं में मनुष्य वर्तमान को जीना मूल जाता है और स्वयं का जीवन दूभर कर लेता है।'' 
''जिस दिन मानव वर्तमान में जीना सीख लेगा, बहुत सी परेशानियों और चिंताओं से मुक्त हो जाएगा।''
 
लेखिका देश-विदेश के रहन-सहन, आचार-विचार और जीवन मूल्यों का भी तुलनात्मक चित्रण करती हैं- ''सार्थक इस देश के अनुशासन, यहां की व्यवस्था, और लोगों के सेवाभाव से बहुत प्रभावित है। इस देश का अच्छा-बुरा सब समझते हैं। हालांकि यह बात नहीं कि यहां बुरे लोग नहीं हैं जो बुरे हैं, बहुत बुरे हैं। पर वे भी सड़कों पर लघुशंका का निवारण नहीं कर सकते। सड़कों पर थूक नहीं सकते। कत्ल, बलात्कार करके छूट नहीं सकते। यहां रंग भेद है, पर देश को रंगने का किसी को अधिकार नहीं। गंदी सोच के लोग हैं पर उन्हें देश को गंदा करने का हक नहीं। देश सबका है और इसे साफ रखना सबकी जिम्मेदारी है।'' 
 
तूफान की आशंकाओं का चित्रण स्वाभाविक जान पड़ता है। परिवेश का प्रामाणिक चित्र उपन्यास में उभरता है ''उस दिन वातावरण में घबराहट थी। तनाव था। बेचैनी थी। सड़कों पर कारें तेजी से भाग रही थीं। शहर के सारे ग्रोसरी स्टोर खाली हो चुके थे। लोगों ने खाने-पीने की वस्तुओं से घर भर लिए थे। एक अनजाना भय सबके भीतर बैठ चुका था। किसी को पता नहीं था, क्या होने वाला है और क्या-क्या उन्हें भुगतना पड़ेगा? सोचकर ही लोग परेशान थे।''
 
विदेशी परिवेश की अभिव्यंजना में लेखिका का पर्याप्त सफलता मिली है। उपन्यासकार अपने वतन के रिश्ते-नातों की पीड़ा से जुड़ती है और मैत्री भावना के मूल्य को समझाती है ''यहां तो मित्र ही परिवार हैं। दुःख-सुख के भागीदार। अपने परिवार तो देश में छूट गए और हाथ ही छूट गए ढेरों पल, सुखद यादें, रिश्ते और नाते। उनके लिए हम परदेसी हो गए और साथ ही बन गए मेहमान।''
 
लेखिका ने सरल, सहज भाषा का प्रयोग किया है। तत्सम, तद्भव शब्दों के साथ पंजाबी, अंग्रेजी शब्दों का सहज प्रयोग द्रष्टव्य है। ''भारतीय मूल के लोगों के पास दालें, चावल, और आटा तो काफी मात्रा में होता है फिर भी बहुतों ने डिब्बाबंद फूड अपने स्टोर में समेट लिया था। घर-घर में टार्च लाइट्स, फ्रलैश लाइट्स, बैटरियां, मोमबत्तियां इत्यादि कुछ इकट्ठा किया जा रहा था। अगर बिजली आनी बंद हो जाए तो वे काम आएंगी। जिस घरों में बिजली के चूल्हे थे उन्होंने गैस के सिलेंडर खरीद लिए और साथ ही गैस का चूल्हा भी।''
 
लेखिका ने अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी किया है ''वॉलन्टियर्ज आर कमिंग फ्राम अदर स्टेट्स एंड अदर सोसयटीज टू हेल्प दा विकटम्ज...।'' लेखिका ने पंजाबी भाषा का प्रयोग किया है। बाऊजी की भाषा है ''एथे दी पुलिस वि इनहां हरामियां ने खरीद लई ऐ, सारे एनहां दे अड्डे ते आंदे ने तो कोई मेरा साथ देन लई तियार नई।'' 
 
संवादों को उपन्यासकार जरा और तराशती तो अच्छा होता। छोटे और संक्षिप्त संवाद कथा के विकास और पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को अभिव्यक्त करने में सार्थक भूमिका निभाते हैं। लेखिका को स्वयं अधिक न बोलना पड़ता। उपन्यास में लेखिका को स्वयं ज्यादा बोलना पड़ रहा है। डायरी शैली का यह गुण भी है। मुख्य कथा सोनल के परिवार की है, जो आद्यंत कसावट लिए हुए है, कहीं बिखराव नहीं है। इसके साथ ही वर्तमान जीवन की कथा डॉ. संपदा और सार्थक की है, दोनों को उपन्यासकार ने कौशल से वर्ण‍ित किया है।
 
पात्रों के चरित्र चित्रण में स्वाभाविकता है। कहीं कोई अस्वाभाविकता दिखाई नहीं देती। ऐसा नहीं लगता कि उपन्याकार ने केवल कल्पना के सहारे इन पात्रों को उपन्यास में उतारा है ये पात्र जीते-जागते पात्र हैं जो जीवन की सच्चाई को अभिव्यक्त करते हैं और जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाने की प्रेरणा देते हैं। सोनल और सुखवंत इसी आदर्शवाद की ओर उन्मुख है। सद्पात्रों को जहां ऊंचाई दी है वहीं असद्पात्र भी अस्वाभाविक नहीं लगते हैं। लेखिका ने पात्रों की भीड़ नहीं इकट्ठी की है। पात्र लेखिका के हाथों की कठपुतली नहीं बने हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हिन्दी उपन्यास जगत की यह उपन्यास एक अमूल्य निधि है जो प्रासंगिकता एवं उपादेयता जैसी विशेषताओं से युक्त है।
 
पुस्तक : नक्काशीदार केबिनेट 
लेखि‍का : सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन, 
मूल्य : 150 रुपए 
पृष्ठ :  120