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Written By Naidunia

देव आनंद : मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया

- वेबदुनिया

देव आनंद : मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया -
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देव आनंद का जन्म 26 सितंबर 1923 को पंजाब के गुरदास कस्बे में हुआ था। उनके पिता पिशोरीमल नामी वकील होने के साथ कांग्रेस कार्यकर्ता थे और स्वतंत्रता आंदोलन में जेल भी गए थे। वे काफी अध्ययनशील थे और कई भाषाएँ जानते थे। उन्हें हिन्दी/अँग्रेजी/संस्कृत/उर्दू/पंजाबी/ /अरबी/जर्मन/हिब्रू जैसी भाषाएँ आती थीं। किताबें पढ़-पढ़ कर उन्होंने इन भाषाओं को सीखा था। गीता और कुरान पर उनका अच्छा अधिकार था और बाइबिल के बारे में तो वे सदा कहा करते थे कि अगर अँगरेजी भाषा सीखनी हो, तो बाइबिल पढ़ो।

देव आनंद अपने माता-पिता की पाँचवीं संतान थे। वे कुल नौ भाई-बहन थे। चार भाई और पाँच बहनें। देव तीसरे पुत्र थे। दो बड़े भाई थे, मनमोहन और चेतन आनंद और छोटा भाई विजय आनंद। देव आनंद को जानने वाले चेतन और विजय आनंद को जानते हैं, जिन्होंने देव आनंद की फिल्म निर्माण संस्था नवकेतन के माध्यम से फिल्मी दुनिया में अपना अलग मुकाम बनाया। मनमोहन और चेतन आनंद का निधन हो चुका है। 1940 में देव आनंद की माता का निधन हो गया था, इसलिए इन भाई-बहनों को आपस में एक-दूसरे की देखभाल की जवाबदारी पूरी करनी पड़ी।

फिल्म इंडिया और अशोक कुमार
बचपन के वे दिन कठिनाइयों भरे थे, फिर भी देव आनंद दोस्तों के साथ आवारागर्दी करने और कभी-कभार फिल्में देखने का मौका जुगाड़ लेते थे। उन्हीं दिनों उन्हें बाबूराव पटेल की पत्रिका 'फिल्म इंडिया' पढ़ने का चस्का लग गया। वे रद्दी की दुकान से इस पत्रिका के पुराने अंक खरीद लाते और बड़े चाव से पढ़ते। अच्छे-अच्छे अभिनेताओं को उनकी क्षमता से रूबरू कराने का पटेल का अंदाज, यानी लेखन शैली देव आनंद को बहुत भाती थी। पुरानी पत्रिकाओं के ग्राहक देव आनंद के प्रति दुकानदार को भी लगाव हो गया, जो पत्रिकाएँ छाँटकर अलग रख लेता और कभी-कभी मुफ्त में दे देता। इसी दुकान पर एक दिन देव आनंद ने सुना कि अपनी फिल्म 'बंधन' (1940) के प्रीमियर के लिए अशोक कुमार गुरदासपुर आने वाले हैं। वे आए, भीड़ ने उमड़कर अपनी खुशी को प्रकट किया। कुछ लोगों ने ऑटोग्राफ भी लिए, लेकिन देव आनंद दूर खड़े देखते रहे, श्रद्धा से अभिभूत।

प्रशंसकों की भीड़ में भी अशोक कुमार को निर्विकार भाव से शांतिपूर्वक सबसे मिलते देख देव को आश्चर्य हुआ। वह उसके जीवन का एक विशेष क्षण था, जब उसके दिमाग में यह विचार आया-अगर आगे की पढ़ाई के लिए विदेश नहीं जा सका तो फिल्म स्टार बन जाऊँगा। उस समय वह लाहौर कॉलेज से अँगरेजी साहित्य में बीए ऑनर्स कर रहा था और अँगरेजी में एम.ए करने की इच्छा भी रखता था।

किस्मत से बनी किस्मत
बच्चों की शिक्षा के मामले में पिशोरीमल जागरूक अवश्य थे। उन्होंने चेतन आनंद को लाहौर कॉलेज से एम.ए.कराया और आईसीएस की परीक्षा देने लंदन भेजा था, लेकिन जब देव आनंद के एम. ए. करने का समय आया, तब वे आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे थे, उन्होंने देव आनंद को किसी बैंक में नौकरी करने की सलाह दी। देव आनंद महत्वाकांक्षी थे। वे कुछ बनना चाहते थे। नाम कमाना चाहते थे। उन्होंने कहा कि वे बंबई जाकर फिल्मों में भाग्य आजमाना चाहेंगे।

पिता ने स्पष्ट कर दिया कि बंबई का खर्च उठाने की उनकी ताकत नहीं है। देव आनंद ने खुद के बलबूते पर बंबई में स्थापित होने का संकल्प लिया। बड़े भाई चेतन के साथ फ्रंटियर मेल से मुंबई आए। तब उनकी जेब में सिर्फ 30-35 रुपए थे। चेतन ने देव को अपने लेखक मित्र राजा राव के साथ रख दिया। यह जुलाई 1943 की बात है। उस समय देश भर के सिनेमा घरों में बॉम्बे टॉकीज की युगांतकारी फिल्म 'किस्मत' चल रही थी, जिसमें अशोक कुमार ने एंटी हीरो की भूमिका निभाई थी। यह एक अपराध कथा थी। और संयोग देखिए कि देव ने अपने आगामी फिल्मी जीवन में अपराध कथाओं की लीक पर चलना ही ज्यादा पसंद किया।

चेतन आनंद देहरादून के एक स्कूल में अँगरेजी साहित्य का अध्यापन करने लगे थे। देव के मुंबई आने का तात्कालिक कारण नौसेना की नौकरी प्राप्त करना भी था, जिसके लिए वे चुन लिए गए और छह महीने नौसेना में काम भी किया, लेकिन उनके पिता की राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण नौकरी पक्की नहीं हुई। बाद में देव ने डाक विभाग में कारकूनी कर ली। तनख्वाह थी 165 रुपए महीना। इतना रुपया उस जमाने में काफी होता था। मुंबई में जमे रह कर फिल्मों में हाथ-पैर मारने के लिए अच्छा सहारा था।

छुट्टिसयों में चेतन आनंद भी मुंबई आ जाते। उनका झुकाव वामपंथ की तरफ था और साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में उनकी अच्छी पैठ थी। देव आनंद उनके साथ इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) की गतिविधियों में भाग लेने लगे। यहीं ख्वाजा अहमद अब्बास और बलराज साहनी निर्देशित 'जुबैदा' में नायक के छोटे भाई का रोल दिया गया। इस मामूली भूमिका ने उनके लिए फिल्मों के द्वार खोल दिए। इसी नाटक के दौरान प्रभात फिल्म कंपनी (पुणे) संचालक बाबूराव पै की नजर देव आनंद पर पड़ी।

कॉफी के प्याले में तैरते सपने
उन दिनों बांद्रा में 'टॉक ऑफ द टाउन' नामक होटल 'पेरिसियन डैरी' के नाम से जाना जाता था। जहाँ फिल्मों में काम पाने के इच्छुक स्ट्रगलरों का जमावड़ा हुआ करता था। जहाँ कभी-कभार दिलीप कुमार और राज कपूर जैसे स्थापित कलाकार भी आया करते थे, जिससे होटल के कारिंदे हड़बड़ा जाते थे और कोहराम मच जाता था। उस जगह कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए भविष्य के सपने देखना जुझारू कलाकारों का खास शगल हुआ करता था। ऐसे ही एक दिन उस रेस्तराँ में देव आनंद ने सुना कि निर्माता प्यारेलाल संतोषी (फिल्मकार राकुमार संतोषी के पिता) को अपनी फिल्म 'हम एक हैं' के लिए नायक की जरूरत है। अगले ही‍ दिन देव आनंद संतोषी के दफ्तर पहुँचकर उनके आने की प्रतीक्षा में जा बैठे। संतोषी आए, देव आनंद ने अपना मकसद बताया। सभी स्ट्रगलों को दिया जाने वाला स्टॉक उत्तर मिला- कुछ सोचना पड़ेगा।

ऐसा कीजिए आप मुझसे टेलीफोन पर संपर्क कीजिए। जो भी उत्तर होगा, मैं बता दूँगा। देव आनंद ने इस टालू जवाब को गंभीरता से नहीं लिया। एक माह बाद संतोषी के दफ्तर से पत्र आया कि स्क्रीन टेस्ट के लिए पूना पहुँचिए। देव आनंद वहाँ गए और 55 अन्य युवकों के साथ स्क्रीन टेस्ट में चुन लिए गए। वेतन तय हुआ 400 रुपए माहवार।

प्रणय दृश्य की परेशानी
इसे देव आनंद का भाग्य ही कहा जाएगा कि प्रभात फिल्म कंपनी ने 'हम एक हैं' फिल्म के लिए उदयकुमार नामक जिस नवोदित अभिनेता का चयन किया था, वह उसी फिल्म की एक नई अभिनेत्री के प्रेमजाल में फँस गया। उनका प्रेम तीसरी अवस्था (थर्ड स्टेज) में जा पहुँचा था। और स्टूडियो के कामकाज में अड़चनें आने लगी थीं। प्रभात के कर्ताधर्ताओं ने उन्हें नारियल थमा कर बाहर कर दिया। नए नायक का प्रश्न उठा, तो देव आनंद को चुन लिया। इस फिल्म की नायिका कमला कोटनीस थीं, जो पहले भी कुछ फिल्मों अभिनय कर चुकी थीं। देव आनंद एकदम नए और सिर्फ 22 साल के थे।

आसपास सारा वातावरण मराठी था और पहले ही दिन देव को कमला के साथ प्रणय दृश्य फिल्माने के लिए कहा गया। कमला कोटनीस के सहयोगी रुख के कारण देव आनंद ने जैसे-जैसे यह फिल्म पूरी की। इसके बाद प्रभात की 'आगे बढ़ो' फिल्म में देव आनंद को गायिका अभिनेत्री खुर्शीद के साथ नायक बनाया गया। उस बुजुर्ग अभिनेत्री के साथ प्रणय दृश्य करने में देव आनंद को कठिनाई हुई। भारत-पाक विभाजन के कारण देव आनंद की ये दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिटकर आई-गई हो गई।

धोबी की दिलचस्प गलती
प्रभात स्टूडियो के शुरुआती दिनों में देव आनंद को अपने धोबी की गलती से एक ऐसे व्यक्ति की मित्रता नसीब हुई, जो आगे चलकर 'प्यासा' 'कागज के फूल' और 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी कालजयी फिल्मों का निर्देशक बना। वह थे गुरुदत्त। गुरुदत्त भी अलमोड़ा में उदयशंकर की नृत्य मंडली से प्रशिक्षित होकर फिल्मों में काम ढूँढने आए थे। इन दिनों प्रभात में सहायक निर्देशक का काम देख रहे थे।

धोबी ने इनके कुर्तों की अदलाबदली कर दी थी, देव आनंद ने स्टूडियो में गुरुदत्त को अपना शर्ट पहने देखा तो कहे बगैर नहीं रह पाए कि हममें से जो भी पहले कामयाब रहेगा, वह दूसरे को अपनी फिल्म में 'ब्रेक' देगा। 1951 और 52 में देव आनंद ने ‍अपनी फिल्म निर्माण संस्था नवकेतन के बैनर तले बनी फिल्म 'बाजी' और 'जाल' का निर्देशन गुरुदत्त से कराया। इसी प्रकार 1955 में गुरुदत्त ने अपनी फिल्म 'सीआईडी' में देव आनंद को शकीला और वहीदा रहमान के नायक के रूप में लिया था। (स‍ीआईडी गुरुदत्त प्रॉडक्शंस की पहली फिल्म थी)

बेकार देव आनंद को काम दो
प्रभात की दूसरी फिल्म 'आगे बढ़ो' (1947) का निर्माण पूरा होते न होते प्रभात के संचालक मंडल में मतभेद हो गए। बाबूराव पै ने प्रभात छोड़कर मुंबई के फेमस स्टूडियो से संबंध जोड़ लिए। फेमस ने मोहन नामक फिल्म का निर्माण शुरू किया, जिसकी नायिका के रूप में हेमावती को चुना गया। वह बाद में अभिनेता सप्रू की पत्नी बनी। यह फिल्म कभी प्रदर्शित नहीं हुई। प्रभात का तीन साल का करार भी खत्म हो गया और पोस्ट ऑफिस की नौकरी वे पहले ही छोड़ चुके थे। देव आनंद बेकारी की स्थिति में आ गए थे और गुरदासपुर लौटने का विचार चल ही रहा था कि दादामुनि (अशोक कुमार) के सौजन्य से उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फिल्म 'जिद्दी' (1948) में काम मिल गया।

इस फिल्म के लिए उन्हें बीस हजार रुपयों में अनुबंधित किया गया था। देव आनंद के लिए यह अच्छी शुरुआत थी। असल में इस फिल्म के निर्देशक शाहिद लतीफ और पटकथा लेखिका इस्मत चुगताई इस फिल्म में काम करने के लिए अशोक कुमार पर जोर डाल रहे थे। उन दिनों अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज के सर्वेसर्वा थे और बहुत व्यस्त थे। एक दिन झल्लाकर उन्होंने शाहिद और इस्मत (दोनों पति-पत्नी) से झल्लाकर कह दिया कि पीछे क्यों पड़े हो। वो देव आनंद बेकार घूम रहा है, उसे काम दो।

'जिद्दी' में देव आनंद की नायिका कामिनी कौशल थीं। इसका संगीत खेमचंद प्रकाश ने दिया था, जिन्होंने बाद में बॉम्बे टॉकीज की फिल्म 'महल' में लता मंगेशकर से 'आएगा आने वाला' जैसा शाश्वत गीत गवाया था। जिद्दी में किशोर कुमार ने पहली बार पार्श्वगायन किया, वह भी देव आनंद के लिए। यहीं से किशोर और देव आनंद के बीच अभिन्न मित्रता की शुरुआत हुई। आगे चलकर देव ने अपने अधिकांश गाने किशोर से ही गवाए। 1987 में किशोर कुमार के असामयिक निधन तक यह दोस्ती कायम रही।

अंतिम बार किशोर ने 'सच्चे का बोलबाला' (1989) फिल्म के लिए देव आनंद को अपनी आवाज दी थी। 'जिद्दी' की सफलता ने देव आनंद को स्टार का दर्जा दिला दिया। उस समय तक दिलीप कुमार और राज कपूर भी स्टार का दर्जा हासिल कर चुके थे। दोनों की आठ-दस फिल्में प्रदर्शित हो चुकी थीं। अशोक कुमार के बाद इन नवोदित अभिनेताओं के मासूम चेहरे देखकर सिने दर्शक अभिभूत थे, क्योंकि आजादी के बाद सचमुच नई शुरुआत हो गई थी।

अगले तीन दशकों तक इस त्रिमूर्ति की दोस्ताना प्रतिस्पर्धा को हिन्दी सिनेमा के दर्शकों ने बड़े चाव से देखा और इनकी फिल्मों का स्वाद चखा। तीनों की अभिनय शैलियाँ एक-दूसरे से भिन्न थीं और तीनों के वफादार दर्शकों का समूह भी अलग-अलग रहा। आज तक इन तीनों के नाम एक साथ लिए जाते हैं।