शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By रवींद्र व्यास

ये पब्लिक है, सब जानती है

ब्लॉग चर्चा में चुनाव पर लिखे गए ब्लॉग्स पर एक नजर

ये पब्लिक है, सब जानती है -
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पाँच राज्यों के चुनाव नतीजे कतई अप्रत्याशित नहीं हैं। यह पहले ही कहा जा रहा था कि मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के फिर से सरकार बनेगी क्योंकि यहाँ कि जनता यह मान रही थी कि शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में विकास के काम हुए हैं जबकि छत्तीसगढ़ में यह माना जा रहा था कि रमनसिंह की स्वच्छ छवि उनकी वापसी में एक बड़ा कारक थी और दूसरा यह कि आदिवासियों के लिए उनकी सस्ते चावल की योजना ने अपना काम कर दिखाया।


जहाँ तक दिल्ली में कांग्रेस मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वापसी और राजस्थान में वसुंधरा राजे की रवानगी का सवाल है, जनता ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि जनता को साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर अब ज्यादा बरगलाया नहीं जा सकता और वह चाहती है कि ठोस विकास हो। मिजोरम में कांग्रेस का आना भी अप्रत्याशित नहीं है।


यानी इन चुनावों के परिणामों ने एक बार फिर तमाम अहंकारी नेताओं, आत्ममुग्ध और संकीर्ण राजनीति में मुब्तिला राजनीतिक दलों की टोलियों को समझा दिया है कि जनता को वोट बैंक में देखने की निगाह को बदला जाए। लोकतंत्र के रूप में हमें विकसित होते हुए पचास से ज्यादा साल हो गए हैं। इन सालों में जनता ने समय-समय पर यह जताया है कि वह वयस्क है, समझदार है, विवेकशील है और समय पर सही फैसला लेने की उसमें भरपूर कूवत है।

इन चुनाव परिणामों को लेकर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहस और चर्चाएँ जारी हैं, विचार-विमर्श की तमाम मुद्राएँ हैं लेकिन इसके साथ ही ब्लॉग की दुनिया में उतनी तत्परता से इन चुनाव परिणामों के मद्देनजर लोग अपने ढंग से प्रतिक्रिया दे रहे हैं, विश्लेषण कर रहे हैं और विचार-विमर्श जारी है। यही नहीं कुछ ब्लॉगर ने तो लोगों की तुरंत जानने की इच्छा के मद्देनजर अपने ब्लॉग पर बाकायदा चुनाव परिणाम तालिका लगाई और उसे समय-समय पर अद्यतन करते रहे।


उदाहरण के लिए मयंक ने अपने ब्लॉग संचार पर चुनाव दंगल का हैडर ही लगा दिया है। उन्होंने चुनाव परिणामों का न केवल विश्लेषण किया है बल्कि राज्यों के चुनाव परिणामों की तालिका लगा दी है। दिग्गज हारे चुनाव जीती जनता शीर्ष पोस्ट में वे लिखते हैं कि इन चुनावों में कई बड़े-बड़े दिग्गज धूल चाट गए हैं। सबसे बड़ा उलटफेर हुआ है उमा भारती की हार से, आश्चर्यजनक रूप से उमा भारती अपने गृह विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के अखंड प्रताप सिंह से हार गई हैं।

उधर छत्तीसगढ़ में विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र करमा भी अपनी सीट गँवा बैठे हैं। जाहिर है भाजपा से अलग होने और भाजपा के खिलाफ लगातार कुप्रचार करने के कारण उमा हार गईं और उन्हें जनता ने यह सबक सिखाया है कि प्रलाप करने से जीत हासिल नहीं की जा सकती बल्कि क्षेत्र के लिए काम करना ज्यादा जरूरी है। इसलिए दिल्ली में कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तीसरी बार जीत कर आई हैं और उन्होंने अपनी छवि और काम की बदौलत अपने कद को और ऊँचा किया है।

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शीला दीक्षित का तीसरा राजकीय कदम में आलोक तोमर अपने ब्लॉग पर दिल्ली चुनावों की संतुलित समीक्षा करते हैं और श्रीमती दीक्षित की खूबियों को गिनाते हुए तीसरी बार उनके सत्ता पर काबिज होने का विश्लेषण करते हैं। वे लिखते हैं -शीला दीक्षित ने चुनाव अभियान के दौरान कभी भी भावी मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी मुद्रा नहीं त्यागी।


वे लगातार इस तरह घोषणाएँ करती रहीं कि आने वाले पूरे कार्यकाल में उन्हें ही काम करना है और इसीलिए न वे कभी अपने किसी काम के लिए पश्चाताप की मुद्रा में दिखीं और न उन्होंने यह कहा कि उनसे गलतियाँ हुई हैं और उन्हें जीत के लिए इन गलतियों के प्रति माफी माँगनी पड़ेगी या कुछ कदमों को वापस लेना पड़ेगा। उधर विजय कुमार मल्होत्रा के पास तो दिल्ली के भावी विकास का नक्शा ही नहीं था।


कहने की जरूरत नहीं कि दिल्ली में भाजपा ने आतंकवादी हमलों के दूसरे दिन बड़े-बड़े विज्ञापन दिए थे और सोचा था कि वे जनता का विचार बदल देंगे लेकिन जनता समझदार है और उसने शीला दीक्षित को जिताकर भाजपा को संदेश दिया की सनसनी और उत्तेजना पर सवार होकर सत्ता पर काबिज नहीं हुआ जा सकता।


धीरूसिंह अपने ब्लॉग दरबार में दिल्ली में भाजपा की हार पर कटाक्ष करते हैं कि आत्म मुग्ध भाजपा को सही झटका दिया है दिल्ली ने । नकारात्मक प्रचार भारी पड़ा भाजपा को। अपने हर प्रचार में शीला दिक्षित की बुराई , आतंक मुंबई काण्ड को ट्रम्प कार्ड की तरह इस्तेमाल करने के बावजूद करारी हार भाजपा को एक थप्पड़ की तरह लगा होगा ।

जबकि ' दिल एक पुराना म्यूजियम है ' में रौशन का मानना था कि इस बार सरकार विरोधी लहर नहीं थी। वे कहते हैं कि नतीजे बताते हैं कि पाँच राज्यों के मतदाताओं में सरकार विरोधी सोच कम ही थी । तभी तो जनता ने दिल्ली , छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में निवर्तमान सरकार को दुबारा मौका दिया है जबकि राजस्थान में परिवर्तन को वोट दिया है। वस्तुतः पहली तीन सरकारें अपने काम-काज को अधिक प्रचारित कर रही थीं जबकि राजस्थान में मुख्यमंत्री लगातार केन्द्र सरकार पर प्रहार करती नजर आ रही थी। जनता ने अपनी बात करने वालों पर ज्यादा भरोसा किया है।


और यह कितना दिलचस्प समाचार है। यह समाचार है नारदमुनि के ब्लॉग नारदमुनिजी पर। इस पर ब्लॉगर जनता ने की नई पहल शीर्षक पोस्ट में लिखा है कि राजस्थान में एक विधानसक्षा क्षेत्र के घोषित चुनाव परिणाम में जनता के उम्मीदवार गुरमीत सिंह कुन्नर विजयी हुए हुए हैं। गुरमीत सिंह कुन्नर चुनाव लड़ने के मूड में नहीं थे। मगर जनता ने जबर्दस्ती उनसे पर्चा भरवाया। उसके बाद उन्होंने ख़ुद प्रचार की कमान संभाली और गुरमीत सिंह को विजयी बना दिया।

कहा जाना चाहिए कि यह असल लोकतंत्र के लिए एक शुभ लक्षण है कि जनता जिसे चाहती है उसे खड़ा करती है, परचा भरवाती है और प्रचार कर जितवा भी देती है। इस दिलचस्प समाचार के साथ एक और मजेदार समाचार यह है और जो बताता है कि एक वोट की कीमत क्या हो सकती है।


कमल शर्मा अपने ब्लॉग पर लिखते हैं कि यदि राजस्‍थान कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी से कोई पूछे कि एक वोट की कीमत क्‍या होती है? इस सवाल का जवाब जोशी से बेहतर शायद ही कोई नेता दे पाएगा जिसने उन्‍हें न केवल राज्य का मुख्‍यमंत्री बनने से अटका दिया बल्कि विधानसभा में बैठने से ही रोक दिया। राजसमंद जिले की नाथद्वारा सीट से जोशी चुनाव हार गए हैं।

जोशी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में शुमार थे। वे काफी दुर्भाग्यशाली रहे। वे केवल एक वोट से चुनाव हारे हैं। जोशी को भाजपा के कल्याणसिंह ने हराया। कल्याण को 62 हजार 216 वोट मिले। जबकि सीपी जोशी को 62 हजार 215 वोट ही मिल पाए। देश के सारे नेता इससे सबक लेंगे कि एक वोट ही उनको दिन में तारे दिखाने के लिए खूब है।


ऐसा नहीं है कि ब्लॉग पर सिर्फ भाजपा और कांग्रेस का ही नोटिस लिया गया है। कुछ ब्लॉग पर वामदलों के पाखंड पर भी उँगलियाँ उठाई गई हैं। प्रवक्ता ने अपने ब्लॉग पर कुलदीपसिंह अग्निहोत्री की टिप्पणी पोस्ट की है जिसमें उन्होंने वामदलों की दु:खती रग पर हाथ धरा है। इसमें वे कहते हैं कि इन चुनाव परिणामों की सबसे आश्चर्यजनक बात यह कही जा सकती है कि आम भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने का दंभ पालने वाला साम्यवादी टोला इन पाँचों राज्यों में कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।


वैसे वे तर्क दे सकते हैं कि दास कैपिटल के शिष्यों को बेलेट पर नहीं बुलेट पर विश्वास है क्योंकि माओ कह गए थे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। आखिर नक्सलवादी माओवादी साम्यवादी टोले के वैचारिक सहोदर ही तो हैं। परन्तु इसे सीताराम येचुरी और प्रकाश करात का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के नक्सलवादी क्षेत्रों में लोगों ने भाजपा को जिता दिया है। यह साम्यवादी राजनीति का भीतरी खोखलापन भी जाहिर करती है।


विश्लेषण के साथ ही कुछ ब्लॉगरों ने जीत कर आई पार्टियों को यह भी याद दिलाया है कि वे अपने घोषणा पत्रों में जनता से जो वादा कर चुके हैं, जो अधूरे रह गए हैं, उन्हें पूरी जिम्मेदारी के साथ पूरा करें क्योंकि जनता ने उन्हें दोबारा इसीलिए मौका दिया है और यह इसलिए जरूरी है क्योंकि सामने लोकसभा चुनाव हैं।

अपने ब्लॉग तानाबाना में विधुजी मप्र पर लिखती हैं कि अपने घोषणा पत्र में सरकार ने जो कहा है ..पानी-बिजली जैसे मुद्दे पूरा उसे करने के लिए अब सरकार को जी-जान से जुटना होगा। जहाँ -जहाँ असंतोष है वहाँ चौकसी के साथ काम करना होगा, सरकार से अब उम्मीदें और बढ़ जाएँगी लेकिन अब उनके पास मौका भी है, और समय भी ,यही नहीं, ये चुनाव ऐतिहासिक ही नहीं आगामी लोकसभा चुनावों के लिए निर्णायक भी सिद्ध होंगे।

अपने ब्लॉग आरंभ में संजय तिवारी छत्तीसगढ़ में रमनसिंह के सत्ता में लौटने का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि भाजपा की इस जीते के पीछे रमनसिंह की छवि और उनकी एक रुपए किलो चावल देने की योजना का हाथ है। अपने ब्लॉग आजतक पर ओमकार चौधरी कहते हैं कि राजनीतिक विश्लेषकों और भाजपा के कुछ नेताओं को लगता था कि आतंकवाद इन राज्यों में बड़ा गुल खिला सकता है।


मध्यप्रदेश में कह सकते हैं कि भाजपा को फायदा हुआ होगा लेकिन अगर यह सही है तो वही बात दिल्ली और राजस्थान पर लागू क्यों नहीं हुई? राजस्थान की राजधानी जयपुर और अजमेर शरीफ में भी आतंकवादी हमला हो चुका है। इसी तरह दिल्ली में भी विधानसभा चुनाव से कुछ ही समय पहले सीरियल धमाके हुए थे। विश्लेषकों को लगा कि मुंबई पर हुआ हमला इन तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है परन्तु ऐसा नहीं हुआ।


अपने ब्लॉग विरोध में शंभुनाथ तिवारी के विश्लेषण का सार यह है कि इस बार चुनाव में मतदाताओं ने यह साबित कर दिया है कि उनके लिए भावनात्मक मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं। उनके लिए महती बात यह है कि विकास हुआ है या नहीं। यही कारण है कि मप्र और छत्तीसगढ़ में भाजपा तथा दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस की जीत हुई है।


  असल लोकतंत्र के लिए एक शुभ लक्षण है कि जनता जिसे चाहती है उसे खड़ा करती है, परचा भरवाती है और प्रचार कर जितवा भी देती है। इस दिलचस्प समाचार के साथ एक और मजेदार समाचार यह है और जो बताता है कि एक वोट की कीमत क्या हो सकती है।       
जबकि हिन्दी वाणी के यूसुफ किरमानी कहते हैं कि अगर आडवाणी को भी विजय कुमार मल्होत्रा की तरह सीएम इन वेटिंग जैसा तमगा (यानी पीएम इन वेटिंग) लगाकर खुश नहीं होना तो इस पार्टी को आतंकवाद की आड़ में जज्बातों से खेलने की लड़ाई बंद करना होगी। देश को बताना होगा कि असली मसला रोटी-रोजी है। लोगों के जज्बात किसी पार्टी को लंबे समय तक वोट नहीं दिला सकते। वोटरों की नई जमात धीरे-धीरे और बढ़ रही है। इस जमात की अपनी परेशानियाँ और चुनौतियाँ हैं, यह जमात इन जज्बाती नारों के बारे में अच्छी तरह वाकिफ है। तमाम राजनीतिक दलों के लिए आने वाला समय काफी मुश्किल भरा है।


कहने की जरूरत नहीं कि तमाम ब्लॉगरों ने इन चुनाव-परिणामों के मद्देनजर जनता की समझदारी को ने केवल रेखांकित किया है बल्कि उसके सही फैसले की प्रशंसा भी की है क्योंकि अब उसे किसी भी तरह से बरगलाया नहीं जा सकता। अब वह सिर्फ विकास और विकास चाहती है।

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