गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By ND

न्याय को लांछित न करें

न्याय को लांछित न करें -
- जस्टिस वीएन खरे

गाजियाबाद में कर्मचारियों की करोड़ों रुपए की भविष्यनिधि रकम हड़पने वाले बहुचर्चित नजारत घोटाला कांड में कुछ न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के नाम घसीटे जाने की घटना के बाद एक बार फिर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का मुद्दा चर्चा में है। भविष्यनिधि घोटाला कांड की सीबीआई से जाँच कराने जैसी माँग भी उठ रही है।

पहली नजर में यह माँग उचित लग सकती है। लेकिन हमें सोचना होगा कि क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनाए रखते हुए पुलिस अथवा किसी जाँच एजेंसी को न्यायाधीशों से पूछताछ की अनुमति देना तर्कसंगत होगा? क्या पुलिस से जाँच की तलवार सिर पर लटकते रहने के कारण न्यायाधीश स्वतंत्र होकर मुकदमों का निबटारा कर सकेंगे?

हमें ध्यान रखना चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता बेहद महत्वपूर्ण है। इस तथ्य से कोई इंकार भी नहीं कर सकता है। संविधान निर्माता भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। उनकी यही इच्छा थी न्यायपालिका की आजादी से किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं होना चाहिए।

यही वजह है कि संविधान निर्माताओं ने उच्च न्यायालयों को निचली अदालतों पर नियंत्रण का अधिकार दिया, लेकिन उच्चतम न्यायालय को उच्च न्यायालयों पर किसी प्रकार के नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं दिया। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का मामला समय-समय पर उठता रहा है। यह कहना गलत होगा कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है। अन्य क्षेत्रों की भाँति यहाँ भी कुछ ऐसे लोग हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए समूची न्यायपालिका अथवा संपूर्ण न्यायिक मशीनरी को लांछित करना ठीक नहीं है।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि न्यायाधीश भी इंसान ही हैं और वे भी इसी समाज का हिस्सा हैं। वर्तमान समय में न्यायाधीशों को तपस्वी अथवा संन्यासी समझना उचित नहीं है, क्योंकि समाज के आचरण और व्यवहार का असर उन पर भी पड़ता है और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की घटनाएँ समाज के इसी रूप और आचरण को परिलक्षित करती हैं।

इस स्थिति में हमें यह देखना है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखते हुए किस तरह न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए अधिक कारगर कदम उठाए जाएँ।

मैं महसूस करता हूँ कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच सीबीआई को सौंपने का सिलसिला यदि एक बार शुरू हो गया तो न्यायाधीशों और निचली अदालतों के न्यायिक अधिकारियों के लिए किसी प्रकार के दबावों से परे रहते हुए मुकदमों के फैसले करना ही मुश्किल हो जाएगा।

वैसे भी मैं समझता हूँ कि प्रथम दृष्टया पुलिस को न्यायाधीशों से पूछताछ की अनुमति देना उचित नहीं होगा। हमें इसके लिए वैकल्पिक उपाय अपनाने होंगे ताकि न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता भी बने रहे और भ्रष्ट आचरण वाले न्यायाधीशों को न्यायपालिका से हटाया भी जा सके।

न्यायपालिका को लांछित करने वाली घटनाओं से निबटने के लिए ऐसी किसी भी घटना की जाँच न्यायाधीशों की ही समिति से ही कराना सर्वोत्तम उपाय हो सकता है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और कदाचार के मामलों से निबटने के लिए पहले भी यह रास्ता अपनाया गया है, जो काफी कारगर रहा है।

न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार अथवा कदाचार के आरोपों की प्रथम चरण की जाँच के लिए तीन सदस्यीय समिति बनाई जा सकती है। इस समिति में उच्चतम न्यायालय के किसी वरिष्ठ न्यायाधीश के अलावा संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक अन्य न्यायाधीश को शामिल किया जा सकता है।

इस जाँच समिति की रिपोर्ट पर उच्चतम न्यायालय के पाँच वरिष्ठ न्यायाधीशों की समिति को विचार करना चाहिए। यदि उच्चतम न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों की समिति को रिपोर्ट के अध्ययन के बाद पहली नजर में यह लगता है कि अमुक न्यायाधीश के खिलाफ आरोपों में सच्चाई हो सकती है तो समिति उसके मामले में प्रधान न्यायाधीश से उचित कार्रवाई का आग्रह कर सकती है।

मैं समझता हूँ कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की समिति के निष्कर्ष के आलोक में प्रधान न्यायाधीश आरोपों में घिरे न्यायाधीश को पद से इस्तीफा देने की सलाह दे सकते हैं और ऐसा नहीं होने पर पुलिस को उसके खिलाफ कार्रवाई के लिए प्राथमिकी दर्ज करने की अनुमति देने का रास्ता अपना सकते हैं।

इस तरह के कदम उठाने से जहाँ किसी न्यायाधीश के खिलाफ कोई भी कार्रवाई शुरू करने से पहले आरोपों की गहराई से छानबीन हो सकेगी, वहीं इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी बनी रहेगी और भ्रष्ट न्यायाधीश भी बच नहीं सकेंगे।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए प्रधान न्यायाधीश की जाँच प्रक्रिया पूरी होने से पहले पुलिस अथवा सीबीआई से जाँच कराने का विचार अथवा इसकी माँग उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है।

मेरी स्पष्ट मान्यता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने और भ्रष्ट आचरण करने वाले न्यायाधीशों की समस्या से निबटने के लिए उच्चतम न्यायालय के स्तर पर इस तरह की आंतरिक व्यवस्था अधिक कारगर और प्रभावी हो सकती है। दो चरणों वाली इस आंतरिक जाँच व्यवस्था में जब पहले चरण में तीन न्यायाधीशों की समिति आरोपों की छानबीन करके रिपोर्ट तैयार करेगी और फिर इस रिपोर्ट पर उच्चतम न्यायालय के पाँच न्यायाधीश विचार करेंगे तो इसके नतीजों के प्रति किसी तरह के संदेह की गुंजाइश नहीं बचेगी।

न्यायमूर्ति विशेश्वरनाथ खरे (19 दिसंबर 2002 से 2 मई 2004) उच्चतम न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश हैं। उनके कार्यकाल में मैसूर सेक्स कांड, राजस्थान सेक्स कांड, डीडीए कांड और पंजाब कांड जैसे मामलों के मुकदमे चले। हाल में गाजियाबाद के 23 करोड़ रुपए के भविष्यनिधि घोटाला कांड में न्यायाधीशों के नाम उछलने के बाद से सबकी निगाहें उच्चतम न्यायालय की ओर टिकी हुई हैं। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति केजी बालाकृष्णन और उनके बाद वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल अलग-अलग कारणों से न्यायाधीशों से संबंधित इस मामले की सुनवाई से इंकार कर चुके हैं।