गुरुवार, 28 मार्च 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
Written By WD

नेपाल के साथ दोस्ती का यह सफर

अनिल जैन

नेपाल के साथ दोस्ती का यह सफर -
FILE
भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नेपाल में जिस गर्मजोशी से स्वागत हुआ और नेपाली संसद (संविधान निर्मात्री सभा) में उन्होंने जो भावुकतापूर्ण भाषण दिया, उससे भारत की पड़ोस नीति में उस शून्य को भरने की शुरुआत हुई है, जो यूपीए सरकार के कार्यकाल में निर्मित हो गया था। लेकिन क्या यह भावुकता द्विपक्षीय रणनीतिक संबंधों में भी काम आ सकेगी?

यूपीए सरकार दावा करती थी कि उसकी विदेश नीति सर्व समावेशी है, लेकिन उसके नीति-नियामकों ने कभी इस बारे में विचार करने की जहमत नहीं उठाई कि अपने सभी पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते खटासभरे क्यों होते जा रहे हैं।

राहत की बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सत्ता संभालने के बाद से ही इस पहलू को लेकर सचेत हैं और पड़ोसी देशों से रिश्तों को पटरी पर लाने की दिशा में काम कर रहे हैं।

इस सिलसिले में पहला काम उन्होंने उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाने का किया। इसके बाद अपने पहले विदेश दौरे के लिए उन्होंने भूटान को चुना और फिर नेपाल गए।

द्विपक्षीय लिहाज से भारत के किसी प्रधानमंत्री का 17 साल बाद नेपाल जाना हुआ। इससे पहले 1997 में उस समय के प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल काठमांडू गए थे।

हालांकि 2002 में प्रधानमंत्री रहते हुए अटलबिहारी वाजपेयी भी काठमांडू गए थे लेकिन उनकी वह यात्रा द्विपक्षीय रिश्तों के तहत नहीं थी बल्कि वे सार्क देशों के शिखर सम्मेलन में शिरकत करने वहां गए थे।

डॉ. मनमोहन सिंह 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे लेकिन वे पूरब की ओर ही देखते रहे और नेपाल मामले को उन्होंने बदमिजाज राजनयिकों और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के जिम्मे छोड़ रखा था। लेकिन राजनीतिक नेतृत्व नाकारा हो तो नौकरशाहों को बेलगाम और मगरूर होने से कौन रोक सकता है?

10 साल में एक बार भी नेपाल की ओर न देखने का निहितार्थ वहां के लोगों ने यही निकाला कि मनमोहन सिंह की इस उत्तरी पड़ोसी में कोई दिलचस्पी नहीं है।

पिछले 17 सालों में भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने नेपाल की सुध लेना क्यों जरूरी नहीं समझा, इसकी वजह तो हमारा विदेश मंत्रालय और विदेश नीति के नियामक ही बता सकते हैं। लेकिन उनकी इस काहिली का चीन ने भरपूर फायदा उठाया और उसने इन 17 वर्षों के कालखंड में नेपाल में अपनी जगह बना ली।

नेपाल से विभिन्न विपक्षी दलों के जो नेता पिछले दो दशक के दौरान दिल्ली आए, उन्हें भी भारत सरकार ने कभी तवज्जो नहीं दी। यही वजह रही कि पिछले 10 वर्षों के दौरान नेपाली नेताओं ने सबसे ज्यादा चीन की यात्राएं कीं और चीन के बड़े नेता भी लगातार नेपाल आते रहे।

खैर, नेपाल में यूपीए सरकार और उसके मुखिया की जो भी छवि बनी हो, मोदी ने अपनी यात्रा के जरिए उसे बीता हुआ अध्याय बताने का प्रयास किया और आगे भी नेपाल आते रहने का वादा किया। उनकी अगली नेपाल यात्रा आगामी नवंबर में होगी, जब वे सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लेने जाएंगे।

प्रधानमंत्री मोदी के नेपाल जाने से एक सप्ताह पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज वहां गई थीं जिससे भारतीय विदेश नीति में नेपाल की अहमियत बढ़ने के संकेत मिल गए थे। उन्होंने वहां कहा भी कि भारत अपनी विदेश नीति में नेपाल को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है।

मोदी ने भी दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के अपने इरादे का इजहार किया। भारत और नेपाल के बीच सांस्कृतिक रिश्ते सदियों पुराने हैं।

दोनों देशों लोगों में एक-दूसरे के प्रति बेहद लगाव रहा है इसलिए स्वाभाविक रूप से नरेन्द्र मोदी की यात्रा को लेकर न सिर्फ नेपाल की राजनीतिक जमातों ने बल्कि आम लोगों ने भी काफी उत्साह दिखाया। मोदी ने भी उन्हें निराश नहीं किया।

नेपाली संसद को संबोधित करने से लेकर पशुपतिनाथ के दर्शन करने तक भारतीय प्रधानमंत्री का एक-एक कदम बेहद नपा-तुला और सधा हुआ रहा। भारत और नेपाल के रिश्तों में हमेशा से जो एक घरेलूपन और आत्मीयता का तत्व शामिल रहता आया है, अर्से बाद मोदी ने उसमें फिर से स्पंदन पैदा कर दिया।

उन्होंने जहां एक ओर नेपाल के विकास में भारत की तरफ से मिलते आ रहे सहयोग का भरोसा बढ़ाया, वहीं आम लोगों के दिलों को छूने की कोशिश भी की।

उन्होंने बचपन में भारत आकर खो गए एक नेपाली युवक को उसके परिजनों से मिलाने का यही वक्त चुना और नेपाली संसद को हिन्दी में संबोधित करते हुए शुरुआत में कुछ पंक्तियां नेपाली भाषा में बोली।

मोदी किसी बाहरी देश के दूसरे ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने नेपाली संसद को संबोधित किया। इससे पहले 1990 में जर्मनी के चांसलर हेलमुट कोल नेपाली संसद से मुखातिब हुए थे।

भारत और नेपाल के बीच तमाम घनिष्ठ रिश्तों के बावजूद नेपाल में किसी हद तक यह माना जाता रहा है कि भारत उसके साथ दोस्ताना नहीं, बल्कि बड़े भाई की तरह बर्ताव करता है और उसके अंदरुनी मामलों में अनावश्यक दखलंदाजी करता रहता है।

ऐसा मानने का आधार यह है कि भारत सरकार नेपाली राजमहल और कोइराला परिवार के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस की जुगलबंदी को पसंद करती दिखाई देती रही है। इसके अलावा नेपाल के हर प्रधानमंत्री से भारत के हुक्मरान की अपेक्षा रही है कि वे सबसे पहले साउथ ब्लॉक आकर मत्था टेकें।

खुद को वाइसराय जैसा समझने वाले अहंकारी राजनयिकों तथा अवकाशप्राप्त जनरलों की सामंती और औपनिवेशिक मानसिकता भी हालात को पेचीदा बनाने में अहम भूमिका निभाती रही है।

मोदी की यात्रा के पहले भी कुछ हलकों में यह माना जा रहा था कि वे वहां हिन्दू राष्ट्र की वापसी के प्रच्छन्न एजेंडे के तहत वहां की प्रतिक्रियावादी और मगरूर राजशाही को अप्रत्यक्ष समर्थन दे सकते हैं या बिना पर्याप्त तैयारी के चीन के साथ प्रतियोगिता के खतरनाक अखाड़े में कूदने की जल्दबाजी कर सकते हैं।

लेकिन नरेन्द्र मोदी ने इस तरह के कयास लगाने वालों को सिरे से निराश किया। उन्होंने नेपाली संसद से मुखातिब होते हुए यह बात बार-बार रेखांकित की कि नेपाल की घरेलू राजनीति में दखलंदाजी का भारत का कोई इरादा नहीं है।

उन्होंने यह भी साफ किया कि भारत की रुचि एक 'संघीय जनतांत्रिक गणराज्य' के रूप में नेपाल के उदय में है।

उन्होंने अपने संबोधन के दौरान यह भी जताया कि नेपाल की सांस्कृतिक विविधता और उसके बहुलवादी समाज से वे बखूबी परिचित हैं।

पहाड़ी-मधेसी, गोरखा तथा जनजातीय तबकों की समस्याओं व अपेक्षाओं के मद्देनजर ही मोदी ने उस नेपाली गुलदस्ते का रूपक बांधा जिसका आकर्षण हर फूल की महक और रंग के समावेश से ही पैदा होता है।

उन्होंने कोइराला परिवार तथा नेपाली कांग्रेस के भारतीय स्वाधीनता संग्राम में योगदान का जिक्र करने के साथ ही उन जांबाज गोरखाओं को भी नमन किया जिनका महत्वपूर्ण योगदान भारत की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए लड़े गए हर युद्घ में रहा है। इन्हीं सब बातों का जिक्र करते हुए मोदी ने भारत और नेपाल के रिश्तों को हिमालय से ऊंचा और गंगा से अधिक गहरा बताया।

नेपाल से भारत के रिश्तों में खटास आने की एक अहम वजह दोनों देशों के बीच की मैत्री संधि भी है जिसकी बुनियाद आधी सदी से भी पहले रखी गई थी। भारत को खरी-खोटी सुनाने में नेपाली नेता इस संधि का भरपूर इस्तेमाल करते हैं और इसे अपने देश के खिलाफ बताते हैं।

नरेन्द्र मोदी ने नेपाली जन-मन को खुश करने और नेपाली नेताओं का मुंह बंद करने के लिए 1950 में हुई और अब लगभग अप्रासंगिक हो चुकी इस संधि के बारे में भी वह बात बोल दी, जो अब तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं बोल सका था।

यह संधि प्रतिरक्षा और विदेश नीति के मामले में नेपाल के लिए बंधनकारी थी। नेपाली लोग यह मानते थे कि इस संधि के जरिए भारत ने नेपाल के हाथ-पांव बांध रखे थे।

भारत को बताए बिना या भारत की मर्जी के बिना नेपाल किसी भी देश के साथ अपने सामरिक संबंध नहीं बना सकता था या सैन्य-सहायता नहीं ले सकता था।

इस संधि को 2008 में लगभग रद्द कर दिया गया था, लेकिन यह अभी तक अधर में लटकी हुई है। प्रधानमंत्री मोदी ने बेबाकी के साथ कहा कि नेपाल नई संधि का जो भी मसौदा पेश करेगा, वह हमें स्वीकार्य होगा।

मोदी के काठमांडू पहुंचने से पहले आशंका जताई जा रही थी कि नेपाल के माओवादी नेता उनकी यात्रा का विरोध करेंगे, लेकिन यह आशंका निर्मूल साबित हुई।

मोदी ने नेपाली संसद में अपने संबोधन के दौरान माओवादियो को यह कहकर मुदित कर दिया कि आप लोगों ने शस्त्र छोड़कर शास्त्र (संविधान) का मार्ग अपनाते हुए समता का संग्राम जारी रखा है, इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।

भारत के पड़ोसी देश भारत की तुलना में बेहद छोटे और कई मामलों में काफी कमजोर हैं। ऐसे में इनकी आबादी में भारत विरोधी ग्रंथि का उभर आना स्वाभाविक है।

नेपाल के लोकतांत्रिक दायरों में भारत को सबसे ज्यादा उसके 'बड़े भाई वाले रवैए' के लिए कोसने और उस पर अपने आंतरिक मामलों में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी लेने के आरोप लगाने की परंपरा रही है।

नरेन्द्र मोदी ने नेपाली नेताओं के शक-शुबहा को दूर करने लिए सपाट लहेजे में कहा कि नेपाल की शांति प्रक्रिया उसका आंतरिक मामला है और वह इसे कैसे तर्कसंगत परिणति तक ले जाता है, यह नेपाल को ही तय करना है।

मोदी ने नेपाल के ढांचागत विकास में भारत के सहयोग की प्रतिबद्घता जताते हुए रियायती ब्याज दर पर 1 करोड़ अमेरिकी डॉलर का कर्ज देने का ऐलान किया।

मोदी ने यह भी कहा कि अभी तो हम आपको कुछ सौ मेगावॉट बिजली देते हैं लेकिन जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा कि हम आपसे हजारों मेगावॉट बिजली खरीदेंगे।

मोदी और नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला की मौजूदगी में 3 समझौते भी हुए, जो घेंघा रोग से जूझ रहे नेपाल को आयोडीनयुक्त नमक की आपूर्ति, वहां आयुर्वेद को बढ़ावा देने तथा पर्यटन की संभावनाओं को बढ़ाने से संबंधित हैं। भारत फिलहाल 3 हजार नेपाली छात्रों को छात्रवृत्ति देता है। मोदी ने इसमें भी बढ़ोतरी का वादा किया।

मोदी की इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच महाकाली नदी पर बनने वाली 5,600 मेगावॉट की बहुउद्देश्यीय परियोजना का काम तेज करने पर भी सहमति बनी लेकिन जिस ऊर्जा करार की काफी चर्चा थी, उस पर हस्ताक्षर नहीं हो सके इसलिए कि इसमें निवेश संबंधी प्रावधान के स्वरूप को लेकर नेपाल को यह आशंका है कि इससे उसकी ऊर्जा परियोजनाओं में भारत की दखलंदाजी का रास्ता खुल जाएगा।

बहरहाल इस करार को विस्तृत समीक्षा के लिए टाल दिया गया। यह प्रसंग बताता है कि नरेन्द्र मोदी की वाकपटुता ने नेपाल को फौरी तौर पर भले ही मंत्रमुग्ध कर लिया हो लेकिन दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाने के लिए अभी बहुत कुछ करने और नेपाल के साथ अपने रिश्तों को ऊंचाई देने के प्रयास में हमें उत्साह दिखाने के साथ ही सावधानी बरतने की भी जरूरत है।

नरेन्द्र मोदी की यात्रा के दौरान ही यह खबर भी आई कि बिहार के कोसी क्षेत्र से हजारों लोगों को बाढ़ की आशंका के चलते पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। यह बात काफी समय से कही जाती रही है कि बिहार की बाढ़ की समस्या का निदान नेपाल की मदद के बगैर नहीं हो सकता।

मोदी ने भी नेपाली संसद में अपने संबोधन के दौरान इस मुद्दे को छुआ। उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों देश इस बारे में अब जल्द ही कोई ठोस साझा पहल करेंगे।

भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार की हिन्दुत्व की राजनीति को नेपाल के लोकतांत्रिक हलकों में थोड़ा शक की नजरों से देखा जाता रहा है, क्योंकि भारत की यह राजनीतिक धारा पारंपरिक रूप से नेपाल में राजतंत्र का समर्थन करती आई है।

एक समय था जब विश्व हिन्दू परिषद नेपाल के जनतांत्रिक आंदोलन को हिन्दुत्व विरोधी साजिश बताती थी और नेपाल नरेश के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय गोलबंदी करने का प्रयास करती थी। राजनाथ सिंह तो गृहमंत्री बनने से पहले कई बार अपने बयानों के जरिए नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित फैसले की आलोचना कर चुके हैं।

विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने तो गत अप्रैल में अपनी नेपाल यात्रा के दौरान विराटनगर में बयान भी दिया था कि अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाया जाएगा।

संतोष की बात है कि इस तरह के विवादों से बचने के लिए मोदी सरकार न तो नेपाल के पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र से कोई संपर्क रख रही है और न ही नेपाल के विश्व हिन्दू महासंघ, हिन्दू स्वयंसेवक संघ और नेपाली शिवसेना जैसे संगठनों से।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी इस यात्रा के दौरान बार-बार स्पष्ट किया कि नेपाल के आंतरिक मामलों से भारत का कोई लेना-देना नही है।

बहरहाल, दोनों देशों के रिश्तों में यहां से आगे का रास्ता काफी संवेदनशील और कुछ उलझा हुआ-सा है। मोदी को सबसे ज्यादा मेहनत अपने नौकरशाहों और अपनी पार्टी तथा सरकार के कुछ वाचाल नेताओं की जुबान काबू में रखने के लिए करनी होगी।

ऐसे नेताओं ने जिस तरह जोश में आकर मोदी के शपथ ग्रहण के समय नवाज शरीफ की भारत यात्रा को उन्हें सबक सिखाने के प्रयास के रूप में पेश कर दिया था, वैसा ही कुछ अगर इन्होंने नेपाल के बारे में भी कह दिया तो माहौल पलटते देर नहीं लगेगी।

भारत के शांतिपूर्ण विकास के लिए पड़ोसी देशों में भी शांति और खुशहाली का बने रहना जरूरी है।

भावुकतापूर्ण भाषणों और बयानों से आगे जाते हुए संबंधों के इस व्याकरण को अगर आने वाले दिनों में भारत की पड़ोस नीति का आधार बनाया जा सका तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी और इससे भारत को ही नहीं, पड़ोसी देशों को भी फायदा होगा।