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Written By गुरचरन दास
Last Updated : बुधवार, 9 जुलाई 2014 (15:28 IST)

चल पड़ा है भारतीय 'हाथी'

चल पड़ा है भारतीय ''हाथी'' -
आज नए साल का पहला दिन है। अपने आसपास के परिदृश्य का वृहद अवलोकन करने के लिए यह एक अच्छा अवसर है। हाल ही में हमें इतनी अधिक बुरी खबरें मिली हैं कि हम अच्छी खबरों की अनदेखी करने लगे हैं। अच्छी खबर यह है कि आर्थिक सुधारों के बाद अंततः भारत एक जीवंत, मुक्त बाजार लोकतंत्र के रूप में उभर रहा है और वह वैश्विक सूचना अर्थव्यवस्था में अपनी उपस्थिति दर्ज करने लगा है।

1947 से 1991 तक हमारी औद्योगिक क्रांति का दम घोंटने वाला पुरातन केंद्रीयकृत, अफसरशाही राज्य धीरे-धीरे ही सही, मगर निश्चित रूप से अस्त होने की ओर अग्रसर है। अधिकांश भारतीय भारत की आध्यात्मिकता और गरीबी को तो अपनी सहज बुद्धि से समझ जाते हैं, लेकिन हम इस शांत सामाजिक एवं आर्थिक क्रांति के महत्व को नहीं समझ पा रहे। यह परिवर्तन आंशिक रूप से सामाजिक लोकतंत्र और वोट के जरिए पिछड़ी जातियों के उभार पर आधारित है।

लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह भारत द्वारा पिछले 25 वर्षों से दर्ज की जा रही उच्च आर्थिक विकास दर पर आधारित है। देश ने 1980 से 2002 तक 6 प्रतिशत की वार्षिक विकास दर दर्ज की, जो 2003 से 2006 तक 8 प्रतिशत रही। यह उच्च विकास दर हर वर्ष एक प्रतिशत गरीबों को गरीबी से बाहर ला रही है। इस प्रकार 25 वर्षों में करीब 20 करोड़ लोग गरीबी से मुक्ति पा चुके हैं।

इस उच्च विकास दर ने मध्यम वर्ग के आकार को भी तीन गुना बढ़ाकर 30 करोड़ कर दिया है। यदि यही क्रम जारी रहता है, तो भारत की आधी आबादी अगली एक पीढ़ी के आते-आते ही मध्यम वर्ग में होगी। सच पूछा जाए, तो यह 'खामोश क्रांति' राजनीतिक नेताओं और पार्टियों की बनती-बिगड़ती किस्मत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जिसके बारे में चर्चा करते हम भारतीय कभी नहीं अघाते।

दो वैश्विक धाराएँ आकर अपस में मिली हैं और ये दोनों ही भारत के पक्ष में पलड़ा झुका रही हैं। पहली धारा है उदारीकरण की क्रांति की, जो पिछले एक दशक में पूरे विश्व में फैल गई है और जिसने गत पचास वर्षों से अलग-थलग पड़ीं अर्थव्यवस्थाओं को खोलकर एक वैश्विक अर्थव्यवस्था में समाहित कर दिया है।

भारत के आर्थिक सुधार भी इसी धारा का हिस्सा हैं। इन सुधारों से अनावश्यक बंधन टूट रहे हैं और भारतीय उद्यमियों एवं आम लोगों की लंबे समय से दबी ऊर्जा मुक्त हो रही है। इनसे राष्ट्र, खासतौर पर युवाओं की मनोवृत्ति बदल रही है। इस धारा का दूसरा नाम है भूमंडलीकरण'।

दूसरी वैश्विक धारा यह है कि विश्व अर्थव्यवस्था औद्योगिक या उत्पादन अर्थव्यवस्था से हटकर 'ज्ञान अर्थव्यवस्था' बन चली है। इस सूचना आधारित अर्थव्यवस्था में भारतीय काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। इसका कारण तो कोई भी ठीक तरह समझ नहीं पा रहा, लेकिन एक अनुमान पेश किया जा सकता है।

भारतीय मूल रूप से कारीगर नहीं, वैचारिक लोग हैं। यह शायद इस बात का भी एक प्रमुख कारण है कि हम औद्योगिक क्रांति करने में विफल रहे। कारीगर बौद्धिकता और मानसिक शक्ति के साथ शारीरिक श्रम को भी मिला लेते हैं। औद्योगिक नवोन्मेष इसी प्रकार होता है।

भारत में मानसिक शक्ति पर हमेशा ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा और शूद्र मुख्यतः शारीरिक श्रम करते रहे। अतः हमारे समाज में इन दोनों गतिविधियों के बीच हमेशा एक खाई रही है और शारीरिक श्रम से जुड़ी गतिविधियों में नवोन्मेष बहुत कम हो पाया है। इसके साथ ही गलत नीतियों और लाइसेंस राज के नौकरशाहों ने हमारे यहाँ औद्योगिक क्रांति के लिए दरवाजे बंद रखे।

औद्योगिक युग में हमारी कमजोरी रही विरासत ही ज्ञान युग में हमारी शक्ति बनकर उभरी है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में हमारी सफलता का एक कारण ज्ञान के प्रति श्रद्धा की हमारी युगों पुरानी परंपरा हो सकती है। हम भारतीय ढाई हजार वर्षों से उपनिषदों की अमूर्त अवधारणाओं से दो-चार होते आए हैं। हमने शून्य का आविष्कार किया।

जिस प्रकार आध्यात्मिक विस्तार अदृश्य होता है, उसी प्रकार सायबर स्पेस भी दिखाई नहीं देता। अतः हमारा मूल सामर्थ्य अदृश्य रह सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी के रूप में हमने संभवतः वह क्षेत्र पा लिया है जिसमें हम औरों से आगे जा सकते हैं। यह क्षेत्र हमारे देश को बदलकर रख सकता है। इंटरनेट ने भी समान अवसरों का मैदान खोल दिया है और भारतीय उद्यमियों के लिए अनेक संभावनाएँ प्रस्तुत कर दी हैं।

इन दो वैश्विक धाराओं ने भविष्य में भारत की आर्थिक सफलता के लिए अनुकूल स्थितियाँ तैयार कर दी हैं। इन्होंने तेजी से मध्यम वर्ग का विस्तार तो किया ही है, साथ ही गरीबी की सनातन समस्या से छुटकारा पाने की आस भी बँधाई है। 1980 से पहले, जब हमारी विकास दर 3.5 प्रतिशत थी, तब गरीबी से मुक्ति पाने में हमें सफलता न के बराबर मिल पाई थी।

गरीबी उन्मूलन के लिए गरीबी हटाने की योजनाएँ नहीं, विकास चाहिए होता है। जब आप विकास के साथ अच्छे स्कूल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करते हैं, तो यह गरीबों की मदद करने का सबसे अच्छा तरीका होता है। यही कारण है कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य मंत्रालय देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। दुर्भाग्य से हमने ये मंत्रालय हमेशा निकृष्टतम नेताओं के हवाले किए हैं।

मैं भारत को शेर ('एशियाई शेरों' की भाँति) कहने के बजाए हाथी कहना पसंद करता हूँ, क्योंकि भारत को पहले लोकतंत्र मिला और फिर पूँजीवाद। भारत 1950 में लोकतंत्र बना, लेकिन उसने बाजार की ताकतों को 1991 में ही खुला छोड़ा। अमेरिका को छोड़कर दुनिया के शेष सभी देशों ने इससे ठीक उल्टा किया।

इस उल्टी धारा के मतलब ये हैं कि भारत न तो 'एशियाई शेरों' की गति से विकास करेगा और न ही उनकी गति से गरीबी व अशिक्षा को मिटा पाएगा। सच तो यह है कि लोकतंत्र हमारी गति को धीमा कर देता है। इसकी वजह से नीतियों में परिवर्तन करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि सभी अपनी-अपनी बात मनवाना चाहते हैं। यही कारण है कि हमारे सुधार इतनी धीमी गति से चल रहे हैं।

खैर, अब भारतरूपी हाथी आगे बढ़ने लगा है। हमारी अर्थव्यवस्था चीन के बाद विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। हमें इस बात को लेकर ज्यादा दुखी नहीं होना चाहिए कि चीन हमसे अधिक तेजी से विकास कर रहा है। जीवन भारत और चीन के बीच कोई दौड़ नहीं है। लोकतंत्र के साथ 7 प्रतिशत की दर से विकास करना लोकतंत्र के बिना 9 प्रतिशत की दर से विकास करने से बेहतर है।

कई भारतीय भी इसे ही पसंद करेंगे, भले ही इसकी वजह से हम चीन से 25 वर्ष पिछड़ जाएँ। यह लोकतंत्र की कीमत है और अनेक भारतीय इसे चुकाने के लिए तैयार हैं। आखिर हमने इस क्षण के लिए 3000 वर्ष तक इंतजार किया है, जब हम व्यापक समृद्धि पा सकेंगे और एक मुक्त, लोकतांत्रिक समाज में गरीबी पर विजय पा सकेंगे।
(लेखक प्रॉक्टर एंड गैंबल इंडिया के पूर्व चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक तथा वर्तमान में स्वतंत्र स्तंभकार हैं।)