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Written By WD

कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए..!

कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए..! -
-आचार्य अरुण कानपुर
61 साल कम तो नहीं होते? देश की आजादी के बाद की एक समूची पीढ़ी, तमाम आशाओं और निराशाओं के बीच बूढ़ी हो गई। इस पीढ़ी का कल कौन और कब दुनिया से आजादी के बाद की अपेक्षाओं की पूरे न होने की टीस लिए कूच कर जाएगा।

इस सवाल के जवाब का किसी को कोई कोई पता नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के कुछ बचे-खुचे उपेक्षित सेनानी देश में इधर-उधर लावारिस पड़े हुए हैं। हकीकत तो यह है कि वे अब तो न घर के रहे और न घाट के। पिछले दो और तीन अक्टूबर को लखनऊ के सिटी मांटेसरी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में आशियाना परिवार और सिग्नस ग्रुप ऑफ कम्पनी कोलकता के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सम्मेलन में उनकी तकलीफों को सुन-सुनकर अंतर मन बहुत ही आहत हो गया।

कैसे-कैसे ख्वाब संजोए इन्होंने स्वतंत्रता पाने के पहले और उसके बाद में थे। वे सारे के सारे ख्वाब ही रह गए। इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देश की आजादी को हासिल करने के लिए दी गई अपनी कुर्बानियों के बाद के यह 61 साल किस तरह से बिताए, यह अपने आप में लंबी और दर्दनाक दास्तानें हैं। हकीकत तो यह है कि अब इन स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को देश में बेहतरी की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। इनमें से हर एक बस आज और कल यहाँ से कूच कर जाने की बाट जोह रहा है। आजादी में साँस लेने और सत्तानशीन कराने वाले के लिए वक्त नहीं।

अलबत्ता, वे इस बात से थोड़े-बहुत खुश जरूर नजर आए कि कम से कम देश के स्वतंत्रता संग्राम के 150 साल पूरे होने पर किसी ने तो उनकी सुध ली। दुःखद पहलू यह है कि सम्मेलन में राष्ट्रपति, उत्तरप्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री सहित अनेक प्रदेशों के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन कुछ को छोड़कर कोई भी नहीं आया।

इन सेनानियों की पीड़ा यह भी थी कि जिन्हें उन्होंने आजाद भारत में साँस लेने और सियासत करने के बाद सत्ताधीश बनाया, उन्हीं के पास उनके लिए इस समारोह में आने के लिए वक्त नहीं निकला।

करोड़ों लोगों को शौचालय की सुविधा नहीं : बकौल राष्ट्रपति आज भी देश में करोड़ों लोगों को शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है। हिसार, हरियाणा में आयोजित नौ प्रदेशों के 3187 प्रतिनिधियों को निर्मल ग्राम पुरस्कार देते हुए उन्होंने कहा कि 2012 तक देश संपूर्ण स्वच्छता के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। यानी अगामी महज चार सवाल में देश के छह लाख गाँव पू्र्ण स्वच्छ हो जाएँगे। ऐसा इतनी कम अवधि में हो जाएगा, इसमें संदेह है।

आज भी देश के करोड़ों किसान, ग्रामीण और मजदूरों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। वे तालाब और पोखरों से प्रदूषित पानी पीने पर मजबूर हैं। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, बंगाल, झारखंड और छत्तीसगढ़ के ऐसे सैकड़ों इलाके हैं, जहाँ लोगों को दो जून की रोटियों को जुटाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं।

गरीब और हो रहा गरीब...बढ़ रही है कुछ की अमीरी : जेट एयरवेज ने हाल में ही सेवामुक्त किए गए 600 कर्मचारियों की बहाली तो कर दी, सो उनकी दिवाली भी खुशनुमा ही होगी। चूँकि जेट एयरवेज का यह मामला केन्द्रीय उड्यन मंत्रालय के अंतर्गत आता है, इसलिए इस मंत्रालय के प्रभारी मंत्री प्रफुल्ल पटेल का हस्ताक्षेप करना विभागीय जिम्मेदारी के अधीन आता है, सो उनका अब इन कर्मचारियों की बहाली के बाद श्रेय लेना वाजिब है। वरना इस चुनावी साल में यह मामला विपक्ष का मुद्दा जरूर बनता और केन्द्रीय उड्डयन मंत्री सहित संप्रग सरकार की जवाबदेही ही नहीं, बल्कि अच्छी खासी किरकिरी भी होती।

...लेकिन अब जो दूसरा संकट बीपीओ के क्षेत्रों में निकट भविष्य में कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर की जाने वाली छँटनी का आने वाला है। यही नहीं टाटा ने भी अपने 300 कर्मचारियों को जबरन हटाने का फैसला ले लिया है। इस आने वाली समस्या से निपटने की कोई रणनीति फिलहाल सरकार के पास नहीं है।

इस संदर्भ में उल्लेखनीय यह है कि बीपीओ का भारत में 70 प्रतिशत कारोबार अमेरिकी कम्पनियों के पास है और इस समय अमेरिका में जो आर्थिक मंदी के हालात हैं, वे किसी छिपे हुए नहीं हैं। तुर्रा यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ के ताजा रपट में साफ-साफ चेतावनी देते हुए कहा गया है कि 1990 और 2007 के मध्य विश्वभर में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और बढ़ी है।

संगठन के निदेशक ने अपने अध्ययन में उल्लेख किया है कि दुनियाभर की मौजूदा अर्थव्यवस्था के मद्देनजर निष्कर्ष यही निकलता है कि वर्तमान वैश्विक वित्तीय संकट भविष्य में और गहराएगा।

कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए...: पिछले दिनों प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने कहा था कि परमाणु करार से हमारा देश 2020 तक ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर हो जाएगा। अगर ऐसा होता है तो यहाँ की एक अरब जनता के लिए इससे अच्छी और क्या बात होगी, लेकिन अमेरिका की अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जो इस करार की सम्पन्नता के बाद अपने वित्तीय संकट से उबरने के लिए 150 अरब के आसपास का कारोबार करने के लिए आतुर हैं तो उसके निमित्त हमारे पास मौजूद आर्थिक संसाधन कितने पर्याप्त हैं? देश की आजादी के 61 साल बाद भारत जो हमारे गाँवों में बसता है, वहाँ तो आज मिट्टी के तेल की चिमनी ही जलती है, वह भी उतनी ही देर तक लिए जितने वक्त में परिवार के लोग रात की रोटी खाते हैं। बाकी रातभर उसे जलाए रखने की उनकी हैसियत नहीं है।

बात देश के शहरों की करें तो 10 से 12 और 15 घंटों की बिजली कटौती किए जाने से जनजीवन बेहाल है। फिर एक दिन की दीवाली पर रोशनी का स्वांग करके बाकी अगले साल की जिंदगी के दिन अंधेरों में गुजराने का सबब अपने आप से फरेब नहीं है तो और क्या है?

सो शायद दुष्यंत कुमार ने आज से 31 साल पहले यह जो लिखा था-
कहाँ तो तय था चराँगा हरेक घर के लिए
कहाँ शहर मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ चलें और उम्रभर के लिए
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिए