गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
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Written By रवींद्र व्यास

एक लेखक की सोच का आईना है..'फिलहाल'

साहित्यकार गिरिराज किशोर के ब्लॉग की चर्चा

एक लेखक की सोच का आईना है..''फिलहाल'' -
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ब्लॉग की दुनिया ने जहाँ हर किसी को लिखने का अधिकार दे दिया है और वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं, सामाजिक से लेकर आर्थिक, राजनीति से लेकर विज्ञान और खेल से लेकर सिनेमा पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं वहीं ब्लॉग की इस दुनिया के दूसरे सिरे पर वे साहित्यकार भी हैं जो अधिक से अधिक लोगों के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए इस दुनिया में आकर इसे अपने तईं समृद्ध कर रहे हैं।

इसमें एक तरफ साहित्यकार उदय प्रकाश से लेकर विष्णु नागर, कुमार अंबुज से लेकर बोधिसत्व, अशोक पांडे से लेकर गीत चतुर्वेदी तक शामिल हैं। ये अपने विचारों, कहानियों -कविताओं और अनुवादों के जरिये इस परिदृश्य को ज्यादा विविध बना रहे हैं और समृद्ध कर रहे हैं। इधर एक और वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर का ब्लॉग फिलहाल ध्यान खींचता है।

जाहिर है किसी भी साहित्यकार के लिए भाषा न केवल एक औजार है बल्कि एक ऐसा सेतु भी जिसके जरिए वह दूसरों तक पहुँच कर अपनी कल्पना और संवेदना से उसे ज्यादा मानवीय ज्यादा संवेदनशील बनाने की अघोषित और संवेदनशील कोशिश करता है। लिहाजा गिरिराज किशोर शुरूआत में ही भाषा पर लिखते हुए जता देते हैं कि भाषा उनके लिए क्या है।

वे लिखते हैं- भाषा केवल शब्द संचयन नहीं है और न संभाषण का कोई मानव निर्मित उपकरण है। संवेदना उसकी आत्मा है। साहित्य उसे जानने-पहचानने और बढ़ाने की जुस्तजू में रात दिन लगा रहता है। अनुभव के स्तर पर भी और अभिव्यिक्त के स्तर भी। भाषा और संवेदना साहित्य का सामूहिक आविष्कार है जो पता नहीं कब से चल रहा है और कब तक चलता रहेगा। शायद यह अनन्त प्रक्रिया है।

इसी तरह वे हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं के सवाल पर लिखते हैं कि भाषाओं के पास एक अंतर्निहित सामर्थ्य होती है। भाषा में जितनी जल्दी समन्वय और सामंजस्य होता है उतना ही भेदभाव और तनाव घृणा के बीज भी बो सकती है। हम लोग अपनी अपनी भाषा की संतान है लेकिन दूसरी भाषा का सम्मान करने की कला से अनभिज्ञ क्यों है। खासतौर से जो हमारी अपनी देशी भाषाएँ हैं।

  विजया माल्या अगर न होते तो शायद देश की इतनी कीमती निधि पता नहीं किसके व्यक्तिगत संचयन का हिस्सा होती। यह उनका अपना निर्णय था। इस बात में किसी को एतराज नहीं होना चाहिए।      
उनका यह ब्लॉग इसी अनंत प्रक्रिया की एक संवेदनशील और वैचारिक झलक प्रस्तुत करता है। उनके इस ब्लॉग से गुजरना उनकी किस्सागोई की खूबी से भी परिचित होना है और उनकी बारीक और थरथराती वैचारिक संवेदना से भी। इसमें उनकी स्मृतियाँ हैं, डायरी का मजा है और समाज से जुड़े महत्वपूर्ण सवालों से सामना भी है। मिसाल के तौर पर उनका यह गद्यांश पढ़ा जा सकता है जो मार्मिक होने के साथ विचार भी देता है और कुछ नैतिक सवाल उठाकर सोचने को भी मजबूर करता है।

वे लिखते हैं प्रभो, हम बच्चों को केवल फूलों की तरह न निहारकर उन्हें सींचकर ऐसा पुष्पवृक्ष बनाना चाहते हैं कि उस पर फल फूल हमेशा खिलें। महकें। राहगीर को छाया दें। भूखे को फल दें। लेकिन हम ऐसा नहीं करते। उन्हें दुखी करते हैं। उनकी भावनाओं और भाषा से खेलते हैं। उन्हें रुलाते हैं। प्रताड़ित करते हैं। उनमें अपने स्वार्थों के प्रतिबिंब देखते हैं और उन्हीं से उन्हें लाद देते हैं। गलत रास्ते पर डाल देते हैं। कैसे माता पिता हैं? कैसे शिक्षक और समाज सुधारक हैं। बच्चे ख़ुश नहीं तो जग कैसे खुश रहेगा। वे हमारे लिए काँटे बन जाएँगे हम उनके लिए बबूल।

जाहिर है यह उनके अधिक आत्मयी और पारदर्शी गद्य का नमूना है। इस तरह डायरीनुमा उनके गद्य यहाँ पढ़े जा सकते हैं। यही नहीं वे साहित्य अकादमी जैसी रचनात्मक संस्था के प्रति अपनी चिंता प्रकट करते हैं और कहते हैं कि यदि यहां चल रही स्वार्थी राजनीति और गतिविधियों का साहित्यकारों ने विरोध नहीं किया तो यह संस्था जल्द ही डूब जाएगी। एक सच्चे साहित्यकार की भाँति उनकी यह चिंता जायज है क्योंकि आज सब दूर यह हालात हैं कि रचनात्मक संस्थाओं में निहायत ही गैर रचनात्मक लोग काबिज हैं और उनकी साख को बट्टा लगा रहे हैं। लेकिन उनकी नजर टीवी कार्यक्रम बिग बॉस पर भी थी और खुदी को बुलंद कर इतना में यह साफ देखा जा सकता है कि वे राहुल महाजन को क्या हिदायतें दे रहे हैं।

इसके अलावा वे सुरक्षा के सवाल पर भी तीखे ढंग से सोचते हुए टिप्पणी करते हैं कि सरकारें भी चुनाव के चलते इस स्थिति के प्रति लापरवाह हैं। जिस लोकतंत्र पर मानवीय सुरक्षा की जिम्मेदारी सर्वाधिक है अगर वह अपने दायित्व को निबाहने में कोताही केवल इसलिए करता है कि सत्ता उसके हाथ से निकल सकती है तो वह देश के प्रति अन्याय की श्रेणी में गिना जाएगा।

वे देश की तमाम घटनाओं के मद्देनजर यह भी कहते हैं कि राजनीति और राजनेताओं पर नैतिक दबाव बनाए रखने के लिए जनता को सवाल पूछने की आदत डालना होगी। और यदि वे शिर्डी जैसी धार्मिक जगह के बारे में भी लिखते हैं तो उनकी प्रगतिशीलता के साफ दर्शन किए जा सकते हैं। अपनी इस पोस्ट साँई बाबा के नाम एक कृपाकांक्षी की चिट्ठी में उनका कहना है कि उन्हें यहाँ आकर इसलिए अच्छा नहीं लगता कि अमीरों के लिए पीछे से दर्शन करने की सुविधा है और यहाँ जो पैसा आता है वह जनहित के काम में नहीं लगाया जाता जिनके बीच में रहकर और जिनके लिए साँईबाबा ने काम किए।

अपनी एक दिलचस्प पोस्ट 'गाँधी कितना महँगा कितना सस्ता' में वे लिखते हैं कि-विजया माल्या अगर न होते तो शायद देश की इतनी कीमती निधि पता नहीं किसके व्यक्तिगत संचयन का हिस्सा होती। यह उनका अपना निर्णय था। इस बात में किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। माल्या कितने भी विवादास्पद व्यक्ति हों पर उनमें देश की निधि के प्रति कितना सम्मान है उनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट है। मुझे चित्रलेखा का बीजगुप्त याद आता है जो व्यसनों को जितना समझता है उतना ही सत्य को भी समझता है। लेकिन हम तो कुमारगिरियों से घिरे हैं जिनके पास सत्य का ढोंग है पर व्यसनों का सच है।

और अंत में विजदेवनारायण साही द्वारा लोहिया जी को निराला जी से मिलाने का एक दिलचस्प संस्मरण पठनीय है।

ये रहा इस ब्लॉग का पता-

http://girirajkishore.blogspot.com