मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
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Written By रवींद्र व्यास

एक तरल, सरल और सहज आवारा

इस बार ब्लॉग चर्चा में मैं आवारा हूँ ब्लॉग

एक तरल, सरल और सहज आवारा -
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यह एक और ब्लॉगर है जो किसी भी विषय, फिल्म या संगीत या कि किसी मशहूर हस्ती पर लिखता है तो उसमें उसके अपने दुःख या सुख या कि सपने या कि बरसों से दबी कोई तमन्ना का निहायत ही निजी स्पर्श दिखाई देता है और यह निजी स्पर्श ही उसे नया बनाता है, थोड़ा भावुक बनाता है, थोड़ा समझदार बनाता है और इसलिए उसकी लगभग सारी पोस्टें पठनीय होती हैं। इसमें तरलता है, सरलता है और है एक तरह की सहजता। कोई नकली मुद्राएँ नहीं, कोई आडंबर नहीं। न जीवन, का न लेखन का। न ही कोई अहंकार कि देखो मैं कितना अच्छा लिखता हूँ।

ये ब्लॉगर हैं मिहिर पंड्या। इनके ब्लॉग का नाम है- मैं आवारा हूँ। यहाँ कई तरह की कैटेगरीज हैं- फिल्म, क्रिकेट, म्यूजिक, मेमॉयर और लिटरेचर। खास अपनी पसंद का, अपने ढंग का और इन सब पर अपने ढंग की सादा लेकिन अर्थवान टिप्पणियाँ हैं। जीवन के हर भाव और रंग का यहाँ स्पर्श है। भाव है, कल्पना है और रचने का अपना एक सहज कौशल है। यह उनकी सहज भाषा में प्रवाहित है।

अबाधित। अकुंठित। कल-कल। जीवन, सिर्फ जीवन, पल-पल। एक सहृदय की निगाह है जो चीजों को संवेदनशीलता से देखती-दिखाती है। किसी फिल्मी गीत की दिल को छूती कोई धुन हो या अपने साधारण से स्वप्न को देखता कोई मध्यमवर्गीय पात्र। कोई खास दृश्य हो या उस दृश्य से निकलती कोई मानीखेज बात। क्रिकेट हो या उसके दिग्गज खिलाड़ी कुंबले या सचिन। कोई कविता हो या घर की याद। ये सब हैं लेकिन इनके साथ ही लिखने वाले की खुद की ख्वाहिशें हैं, जो हर पोस्ट को मोहकता और मारकता देती है।

उदाहरण के लिए हाल ही में प्रदर्शित शशांत शाह की चर्चित फिल्म दसविदानिया पर उनकी टिप्पणी पर गौर किया जा सकता है। यह पोस्ट निहायत ही पर्सनल नोट के साथ शुरू होती है जिसमें मिहिर लिखते हैं कि बहुत दिनों बाद थिएटर में अकेले कोई फ़िल्म देखी। बहुत दिनों बाद थिएटर में रोया। बहुत दिनों बाद यूँ अकेले घूमने का मन हुआ। बहुत दिनों बाद लगा कि जिन्हें प्यार करता हूँ उन्हें जाकर यह कह दूँ कि मैं उनके बिना नहीं रह पाता।

माँ की बहुत याद आई। रिवोली से निकलकर सेन्ट्रल पार्क में साथ घूमते जोड़ों को निहारता रहा और प्यार के उस भोलेपन/ अल्हड़पन का एक बार फ़िर कायल हुआ। निधि कुशवाहा याद आई। मेट्रो में उतरती सीढ़ियों पर बैठकर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए किसी लड़की के बालों की क्लिप सामने पड़ी मिली और मैं उसे अपना बचपन याद करता हुआ जेब में रख साथ ले आया। दसविदानिया आपके साथ बहुत कुछ करती है। ये उनमें से कुछ की झलक है।

जाहिर है एक फिल्म मिहिर को स्मृति की कच्ची पगडंडी पर उतार देती है जहाँ ख्वाहिशें हैं, रूलाई है, चुस्कियाँ हैं और क्लिप के बहाने जीवंत होता बचपन है। और इन सबसे मिलकर बना वह रसायन है जो उनसे इसी पोस्ट में आगे यह लिखवा देता है कि अमर कौल को बारिश में भीगते हुए/डमशिराज़ में आई लव यू कहते हुए देखें और आप समझ जाएँगे कि ऐसे मौकों पर कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं होती।

न जाने इस बारिश में क्या चमत्कार था कि मैंने देखा मैं भी अपनी आँखें पोंछ रहा था। मैज़िकल चार्ली चैप्लिन ने कहा था कि उन्हें बारिश इसलिए भाती है कि उसमें कोई उनके आँसू नहीं देख पाता। दसविदानिया में अमर कौल को भी यूँ रोने की ज़रूरत नहीं पड़ती और मुंबई की मशहूर ‘बिन मौसम बरसात’ आती है।

वे दसविदानिया पर लिखते हुए इतनी सारी चीजें याद करते हैं और याद दिलाते हैं तो जब वी मेट पर लिखते हुए वे सहज इस फिल्म के निर्देशक इम्तियाज अली के तार अपनी नायाब किस्सागोई के लिए मशहूर रहे कथाकार-उपन्यासकार मनोहर श्याम जोशी की घनघोर प्रेमकथा कसप से जोड़ देते हैं। वे मिथ्या पर लिखते हैं कि दरअसल उसके सपने का भी अंत है। उसकी ‘जागने’ की निरंतर कोशिश एक बंदूक की गोली उसके भेजे में जाने के साथ ही सफल हो जाती है।

गोली लगने के साथ ही उसका खौफ़नाक सपना टूट जाता है और उसे एक फ्लैश में सब याद आ जाता है। उसकी आखिरी पुकार …सोनल में एक चैन, एक संतुष्टि, एक सुकून सुनाई देता है। यह त्रासद अंत नहीं। वी.के. एक कमाल का दोहराव रचते हुए एक ‘परफैक्ट मौत’ मरता है जो फ़िल्म के पहले दृश्य से उसकी तमन्ना थी। मौत उसे अपनी खोई हुई पहचान, खोई हुई जिंदगी से जोड़ देती है।

इसके साथ ही वे इस फिल्म पर लिखते हुए मिथ्या, डिपार्टेड, दिल पे मत ले यार आदि फिल्मों को याद करते हुए टिप्पणी करते चलते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि वे अपनी पसंदीदा फिल्मों पर लिखते, उनकी खासियतों पर ही रिझते हैं। उनकी चौकस निगाह किसी फिल्म के झोल को भी लक्षित करती है। रेस पर लिखते हुए वे कहते हैं कि फ़िल्म में दोनों नायकों में से किसी एक के पास हत्या के लिए एक सौलिड मोटिव का होना ज़रूरी था।

अक्षय के नकारात्मक किरदार में इसकी कोशिश तो की गई लेकिन ‘सौतेला’ वाला फंडा कुछ जम नहीं पाया। यूँ भी नायक जब सैफ़ को पेश किया जा रहा है तो उसका एक नायक के रूप में स्थापित होना ज़रूरी था जो नहीं हो पाया। हालाँकि फ़िल्म में इसकी गुंजाइश थी। शुरुआती पन्द्रह मिनट तक जिस तरह रनिंग कमेंट्री (वायस ओवर) के साथ किरदारों का परिचय करवाया जा रहा था वह थिएटर का सबसे मूलभूत गड्ढा है। इसके बजाए एक अतीत का गढ़ना कहीं कारगर होता जहाँ भाइयों का टकराव बचपन से ही स्थापित किया जाता। एक सौलिड मोटिव रचा जाता। एक माँ भी होती तो क्या कहने! ऐसी एक अदद ‘माँ’ आने वाली हर हत्या को नायक का बदला बना देती है। एक क्रूर लेकिन दिलचस्प बदले की कहानी और रेस में बस इतना ही फ़ासला है।
यही नहीं, वे चक दे इंडिया के जरिए शाहरुख खान की वाहवाही का गुब्बारा फुस्स करते हुए उसके असल मर्म को पकड़ने की एक विनम्र कोशिश करते दिखाई देते हैं। वे चक दे इंडिया पर टिप्पणी करते हैं कि चक दे इंडिया जितनी ज़िद्दी कोच कबीर खान की फ़िल्म थी उतनी ही वे उन तेरह अनजान चेहरों की फ़िल्म भी थी जिनकी ताज़गी से सिनेमा जगत अभी तक चमत्कृत है। और कबीर खान भी तो उस मीर रंजन नेगी का आईना था जो जिन्दगी की लड़ाई हारने वालों का प्रतिनिधित्व करता है। उसका वो खटारा बजाज स्कूटर कौन भूल सकता है जिसे वह दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर बेधड़क चलाता रहा।

टैक्सी ड्राइवर जैसी फिल्मों के पटकथा लेखक पॉल श्रेडर ने दिल्ली में आसियान फिल्म समारोह में जो इमर्जिंग न्यू मीडिया और डेथ विषय पर व्याख्यान दिया था, उन्होंने उसका सार प्रस्तुत किया है और साथ ही अपनी असहमति भी दर्ज की है। वे श्रेडर के व्याख्यान का सार में लिखते हैं- इससे भी बड़ी बात।

सिनेमा हमेशा से एक एकतरफा संवाद प्रणाली रहा है। पेसिव मीडियम। और आज की पीढ़ी जो इंटरेक्टिव वीडियो गेम और इंटरनेट पर बड़ी हुई है उसने इस पेसिव मीडियम पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। और अब बड़े स्टूडियो इस सवाल से भी जूझ रहे हैं जो उनसे बार-बार पूछा जाएगा, ‘जब मैं फ्री में फ़िल्म डाउनलोड कर देख सकता हूँ तो मैं उसके लिए पैसा क्यों चुकाऊँ?’ और अभी तक उनके पास इसका कोई मुफ़ीद जवाब नहीं है।

पॉल श्रेडर से असहमति जताते हुए मिहिर कहते हैं कि यह बात सही है कि नए रूप में सिनेमा अपना सामूहिक प्रभाव खो रहा है लेकिन नई तकनीक अपने साथ और बहुत सारे नए विचार लेकर आती है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि पेसिव माध्यम कहा जाने वाला सिनेमा अपना यह चोला उतारकर एक ज़्यादा दुतरफा बात करने वाला चोगा पहन ले। किसे पता कल इंटरनेट सिनेमा का दुश्मन नहीं सहयात्री बनकर उभरे। मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया शुरू भी हो गई है।

और अपने पसंदीदा संगीतकार एआर रहमान पर लिखते हुए वे उसकी खासियत का जिक्र करते हैं और उनके संगीत में पानी के संस्मरण (रघुवीर सहाय) को याद करते हैं। वे एआर रहमान पर लिखते हैं- मैं दिनभर रहमान के गाने सुनाता। वो रातभर शीर्षक एक पोस्ट में वे रहमान के संगीत की एक खासियत का जिक्र करते हुए लिखते हैं- रहमान को मालूम है कि हम आधे से ज़्यादा पानी के बने हैं। पानी की आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ होती है। इसीलिए वे बार-बार अपने गीतों में इस आवाज़ को पिरो देते हैं। ‘साथिया’ में उछालते पानी का अंदाज़ हो या ‘लगान’ में गरजते बादलों की आवाज़। ‘ताल’ में बूँद-बूँद टपकते पानी की थिरकन हो या ‘रोजा’ में बहते झरने की कल-कल। रहमान की सबसे पसंदीदा धुनें सीधे प्रकृति से निकलकर आती हैं। इसके अलावा समकालीन हिंदी कहानी के विरल कहानीकार उदय प्रकाश की लंबी कहानी मोहनदास पर बनी फिल्म की समीक्षा भी पठनीय है।

ये तो रही उनकी वे पोस्टें जो फिल्मों और संगीत पर हैं लेकिन क्रिकेट पर उनकी पोस्टें भी कुछ-कुछ इसी रंग में हैं। इनमें भी उनकी निजी दुनिया का स्पर्श है। कुंबले पर एक बातचीत है जो उन्होंने अपने कथाकार मित्र वरुण के साथ की है। वे इसमें वरुण को लिखते हैं कि- एक दौर था जब मैं कुंबले के एक-एक विकेट को गिना करता था। मैं उसकी ही वजह से स्पिनर बना (अपनी गली क्रिकेट का ऑफ़ कोर्स!) और उसके होने से मुझे दुनिया कुछ ज्यादा आसान लगती थी। क्लास में बिना होमवर्क किए जाने के डर से कुंबले की बॉलिंग निजात दिलाती थी।
...और सचिन पर उन्होंने लगभग मुग्ध होते हुए लिखा है। यह उनका इस अप्रतिम खिलाड़ी से प्रेम भी है और क्रिकेट के लिए जुनून का इजहार भी। वे लिखते हैं- सचिन नामक यह मिथक उनकी बल्लेबाज़ी की उन्मुक्तता में नहीं है। वह उनके व्यक्तित्व की साधारणता में छिपा है। उनके समकालीन महान ब्रायन लारा अपने घर में बैट की शक्ल का स्विमिंग पूल बनवाते हैं।

सचिन सफलता के बाद भी लंबे समय तक अपना पुराना साहित्य सहवास सोसायटी का घर नहीं छोड़ते। एक और समकालीन महान शेन वॉर्न की तरह उनके व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी मसालेदार और विवादास्पद नहीं है। वे एक आदर्श नायक हैं। शेन वॉर्न पर भी मजेदार टिप्पणी है।

वे कहते हैं- इस महान वीर कर्म के लिए वॉर्न को तेजाजी, पाबूजी और रामदेवजी की तरह लोकदेवता का दर्जा मिल सकता है। आपकी जानकारी के लिए हम बता दें कि ये सभी लोकदेवता साधारण मनुष्य ही थे जो आमतौर पर गाय या अन्य पशुओं की रक्षा में मारे गए। वैसे ही उसके मन्दिर बन सकते हैं जहाँ प्रसाद में सिगरेट चढ़ा करेंगी।

बोलो शेन वॉर्न महाराज की जय! और युवराज पर लिखी पोस्ट का नमूना भी पढ़िए- कहा गया था कि युवराज में ग्रीम पोलक और गैरी सोबर्स के बीच का क्रॉस दिखाई देता है। मुझसे जब भी पूछा गया कि अपना पसन्दीदा बल्लेबाज बताओ तो हमेशा गिब्स के बाद मैं युवराज का ही नाम लेना चाहता था। मेहनत और लगन में स्टीव वॉ से लेकर राहुल द्रविड़ तक का नाम आएगा लेकिन दर्शनीयता में लारा और गिब्स के बाद युवराज का उदय हुआ है।

लिटरेचर कैटेगरी में उन्होंने बद्रीनारायण की कविता पोस्ट की है और यहाँ भी एक पर्सनल नोट से शुरुआत है। यह मार्मिक है। वे कहते हैं - बद्रीनारायण की कविताएँ मेरे जीवन में एक घटना की तरह आती हैं। मैं उन्हें व्यवस्थित रूप से नहीं पढ़ता। वे आती हैं, अनिश्चितता और तनाव के क्षणों में वे एक छोटी-सी उदास खुशी की तरह आती हैं। अचानक, जैसे हृषिकेश मुखर्जी की ‘बावर्ची’ में रघु भैया आते हैं। भूले हुए गीत को याद दिलाने। और वे मेरा कैनवास बड़ा कर देती हैं। यहाँ राजेंद्र यादव और ममता कालिया के संस्मरण हैं जो पत्रिकाओं से साभार लिए गए हैं। तस्लीमा नसरीन पर टिप्पणी है और उनकी कविताएँ भी।

और अंत में सारी तालीमात पोस्ट से एक बेहतरीन चीज :
शीत ऋतु की एक सुब
शिक्षिका ने बच्चों को प्रात:कालीन दृश्य बनाने के लिए कहा। एक बच्चे ने अपना चित्र पूरा किया और पार्श्व को गाढ़ा कर दिया लगभग सूर्य को छिपाते हुए। ‘मैंने तुम्हें प्रात:कालीन दृश्य बनाने के लिए कहा था, सूर्य को चमकना चाहिए।’ शिक्षिका चिल्ला उठी, उसने यह ध्यान नहीं दिया कि बच्चे की आँखें खिड़की से बाहर देख रही हैं; आज अभी तक अँधेरा था, सूर्य गहरे काले बादलों के पीछे छिपा हुआ था।
‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ 2005 से।

इस ब्लॉग को पढ़ा जाना चाहिए, पढ़िए। ये रहा उनके ब्लॉग का यूआरएल-
http://www.mihirpandya.com/