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Written By विश्वनाथ सचदेव
Last Updated : सोमवार, 3 नवंबर 2014 (17:49 IST)

आस्था को कसौटी पर न परखें

आस्था को कसौटी पर न परखें -
यह हमारी राजनीति और राष्ट्र दोनों का दुर्भाग्य है कि रामसेतु से उठा विवाद राम के अस्तित्व तक जा पहुँचा है। बावजूद इसके कि दुनिया में अनिश्वरवादी हैं, ईश्वर के अस्तित्व को लेकर विवाद नहीं उठता।

ईश्वर का अस्तित्व आस्था का प्रश्न हो और इसलिए इस बारे में विवाद उठाना कोई माने नहीं रखता। आस्था को किसी तर्क की कसौटी पर कसना गैरजरूरी ही नहीं, गलत भी है।

इसलिए ऐसे मामलों में यह मान लिया जाता है कि हर एक को अपने विश्वास के अनुरूप आचरण करने दिया जाना चाहिए। हाँ, इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाए कि एक का आचरण दूसरे के विश्वास को आहत न करे। यह भी एक पहचान है किसी सभ्य समाज की। लेकिन, लगता है हम इस पहचान के प्रति न तो जागरूक हैं और न ही ईमानदार।

जिस तरह भाजपा करुणानिधि का विरोध कर रही है, उसे देखकर उसकी मंशा में शक होना स्वाभाविक है। भाजपा के एक नेता वेदांती द्वारा करुणानिधि के खिलाफ जारी किए गए फतवे को किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। यदि उन्होंने यह कहा हो कि करुणानिधि का सिर काटने वाले को साधु-संत सोने से तौलेंगे, तो वही अपराध किया है, जो उत्तरप्रदेश के एक पूर्व मंत्री ने मोहम्मद साहब का कार्टून बनाने वाले की हत्या करने के लिए इनाम घोषित करके किया था।

यह अच्छी बात है कि भाजपा ने स्वयं को इस कथित फतवे से पृथक करने की कोशिश की है, लेकिन वेदांती का यह कहना पर्याप्त नहीं है कि वे करुणानिधि का राजनीतिक अस्तित्व समाप्त करने की बात कह रहे थे। राम के बारे में करुणानिधि के शब्द यदि भारतीय समाज के एक बड़े तबके की भावनाओं को आहत करते हैं, तो किसी का अस्तित्व समाप्त करने का आह्वान भारतीय कानून-व्यवस्था में अविश्वास दर्शाने के साथ-साथ देश की सामाजिक समरसता में जहर भी घोलता है। करुणानिधि एवं वेदांती दोनों के भर्त्सनीय बयानों के परिणाम सामने आने भी लगे हैं। तमिलनाडु में हुई हिंसक घटनाएँ इस संदर्भ में हमारे लिए एक चेतावनी है, पर हम चेतना चाहें तब न।

सच तो यह है कि हमारे राजनेता धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों को भुनाने में कोई संकोच नहीं करते। राजनीतिक स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति से उबरना जरूरी है। राजनेताओं और राजनीतिक दलों की इस प्रवृत्ति के चलते बहुत कुछ खो चुके हैं हम। संबंधित राजनीतिक दलों को भले ही धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति स्वार्थों की सिद्धि का माध्यम लगती रही हो और तात्कलिक लाभ उन्हें मिलते रहे हों, लेकिन सत्ता की इस राजनीति के खेल में हार भारत देश के हिस्से में ही आई है।

वेदांती का कथित फतवा और करुणानिधि का भगवान राम के बारे में अनावश्यक अनर्गल बयान दोनों एक बीमार मानसिकता तथा खतरनाक सोच से उपजी बातें हैं। एक सामाजिक संस्कृति वाले भारत में ऐसे सोच और ऐसी बातों के लिए कोई जगह नहीं होना चाहिए।

हाँ, सवाल इस आवश्यकता को प्रमाणित करने का अवश्य है। भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने भी इस प्रयोजना के सारे पहलू जनता के समक्ष नहीं रखे थे और अब यूपीए की नेता कांग्रेस भी यही कर रही है। मामला न्यायालय में है, इसके बावजूद इतना तो कहा ही जा सकता है कि इससे जुड़े सारे तथ्यों को जनता के सामने रखकर योजना की अपरिहार्यता को प्रमाणित किया जाए।

लेकिन, पूरे प्रकरण का यह एक पहलू है। दूसरा पहलू हमारे राजनीतिक दलों की संकुचित दृष्टि का है। ये वोट की राजनीति में विश्वास करते हैं, सेवा की राजनीति में नहीं। इसी दृष्टिकोण का परिणाम है कि कभी समुद्र में मार्ग बनाने की प्रयोजना राम के अस्तित्व से जुड़ जाती है और कभी वोट बटोरने का सरल माध्यम लगने लगती है।

आज आवश्यकता धर्म की राजनीति की बजाय राजनीति के धर्म को समझने की है। राजनीति का धर्म जन-साधारण के हितों को साधना है। इसमें नागरिक का हित सर्वोपरि होता है। आस्था का महत्व भी तभी है, जब वह व्यक्ति के निर्माण में सहायक बने। आस्था के नाम पर राजनीति की रोटियाँ सेंकना गलत है और किसी भी आस्था पर चोट करके राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति की कोशिश भी गलत है। हमें समझना यह भी है कि दो गलत मिलकर एक सही नहीं बनते।
(लेखक समसामयिक घटनाओं के टिप्पणीकार हैं।)