शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By रवींद्र व्यास

आग तो लोगों के दिलों में भी धधक रही है

हमले की घटना पर विभिन्न ब्लॉगरों के विचार

आग तो लोगों के दिलों में भी धधक रही है -
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मुंबई जल रहा है। कई लोग मारे गए हैं, कई घायल होकर चीख रहे हैं। उनके जख्मों की मरहम-पट्टी हो रही है। पुलिस के बाद अब हमारे जाँबाज सैनिक आतंकवादियों से जूझ रहे हैं। यह आग देर-सवेर बुझा दी जाएगी लेकिन इस हमले को लेकर देशवासियों के दिलों में जो आग धधक रही है वह शायद आसानी से ठंडी नहीं होगी।

उनमें जबर्दस्त गुस्सा है। आतंकवादी हमले से पूरा देश व्यथित है। गुस्साए लोग हर तेवर और भाषा में अपना यह गुस्सा व्यक्त कर रहे हैं। इस गुस्से में उनका दुःख तो शामिल ही है, उन परिवारों का दुःख भी शामिल है जो इस हमले में मारे गए हैं।

इनमें उनका वह गुस्सा भी शामिल है जो देश की राजनीति और नेताओं पर बरस रहा है लेकिन यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेता इस पर भी अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं। निश्चित ही यह हमला मुंबई पर ही नहीं, ताज और ओबेराय पर ही नहीं, देश के स्वाभिमान पर भी हुआ है।

जिस तरह से मीडिया में इस हमले की तमाम कोणों से रिपोर्ट की जा रही है और भिन्न-भिन्न नजरिए से इसका विश्लेषण किया जा रहा है ठीक उसी स्तर पर इंटरनेट व ब्लॉग की दुनिया में भी उसी तेवर के साथ गुस्सा जाहिर किया जा रहा है।

इसका निशाना एक तरफ हमारे राजनेता हैं तो दूसरी तरफ आतंकवाद और पाकिस्तान भी हैं। इसमें शिवराज पाटिल पर सबसे ज्यादा गुस्सा है जो हमले होने के कई घंटों बाद मुंबई पहुँचे। उन्हें इस हमले में लोगों के उड़े चीथड़ों ने कतई परेशान नहीं किया, वे तो परेशान रहे कि मुंबई जाते हुए अपने सूटकेस में कौन-सा सफारी सूट रखें, जो उन पर फबे।

गुस्सा राज ठाकरे पर भी है जो आमची मुंबई के अपने प्रेम की बदौलत हाल ही में सुर्खियों में थे और उनकी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं ने अपने ही देशवासियों पर हमले किए थे। लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मनमोहनसिंह तक अपने-अपने बयानों से अपनी-अपनी राजनीति का ढोल बजा रहे हैं।
  जिस तरह से मीडिया में इस हमले की तमाम कोणों से रिपोर्ट की जा रही है और भिन्न-भिन्न नजरिए से इसका विश्लेषण किया जा रहा है ठीक उसी स्तर पर इंटरनेट व ब्लॉग की दुनिया में भी उसी तेवर के साथ गुस्सा जाहिर किया जा रहा है।      
इस पूरे परिदृश्य को लेकर इंटरनेट की दुनिया में भी आग उगली जा रही है।

शिवराज पाटिल का अंतिम कलंक शीर्षक पोस्ट में वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर कहते हैं- अभी कुछ दिन पहले शिवराज पाटिल ने बयान दिया था कि आतंकवादी घटनाएँ इतनी नहीं हो रही जितनी का प्रचार किया जा रहा है।

उन्होंने अपने अफसरों से मेहनत करवाकर एनडीए सरकार के दौरान के आँकड़े निकलवाए थे और इन्हें पेश करते हुए कहा था कि देश में जितने लोग आतंकवादी हिंसा में एनडीए के शासन में मारे गए हैं, उनकी तुलना में यूपीए सरकार के दौरान कम मौतें हुई हैं।

इंसान की जिंदगी को चिल्लर की तरह गिनने वाले अपने देश के गृहमंत्री पर हमें पता नहीं अब भी शर्म क्यों नहीं आती? शिवराज पाटिल देश की सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों के भी जिम्मेदार हैं और जिस तरह का हमला मुंबई में हुआ है उसकी तैयारी एक-दो दिन में या एक-दो सप्ताह में भी नहीं हो सकती।

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इतनी तैयारी से हुए हमले का पता भी अगर भारत की गुप्तचर एजेंसियाँ नहीं लगा सकीं और उन्हें पता तो छोड़िए, अंदाजा तक नहीं लगा तो शिवराज पाटिल को लाल बत्ती की गाड़ी में बैठने और उसमें तिरंगा झंडा फहराने का कोई हक नहीं हैं। जिसको तिरंगे से ज्यादा अपने सफारी सूट की परवाह हो, वह सफारी सूट पहनकर रिटायर क्यों नहीं हो जाता?

शिवराज पाटिल पर ये भी गुस्सा उतारते हैं। हितचिंतक में संजीव कुमार सिन्हा लिखते हैं- भारत के नालायक गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने देशवासियों का जीना हराम कर दिया है। उनके हाथ निर्दोष लोगों के खून से लाल हो गए हैं। स्वाभिमानी भारत में उन्होंने भय और दहशत का माहौल कायम कर दिया है।

इसी तरह राज ठाकरे पर भी गुस्सा उतारा गया है। लूज शंटिंग की ब्लॉगर दीप्ति इस मौके पर राज ठाकरे को आड़े हाथों लेती हुई सवाल करती हैं कि आखिर कहाँ है राज ठाकरे मुंबई तो उनकी है तो वो क्यों नहीं आ रहे हैं आगे गोलियाँ खाने के लिए, उन आतंकियों को मारने के लिए। कहाँ गए वो लोग जो मुंबई में भैया लोगों को घुसने नहीं देना चाहते हैं। आतंकी क्या उन्हें मंजूर है मुंबई में... इस विवाद में भैयाओं को मारने वाले कुछ-कुछ ऐसे ही हैं जैसे गली-मोहल्ले में कुछ टुटपुन्जिया-से गुंडे होते है। जो लड़की को छेड़ते तो हैं लेकिन, जैसे ही वो पलटकर देखती है डर के मारे भाग जाते हैं...
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कहने की जरूरत नहीं कि भारत आतंकवाद को लेकर जो राजनीति करता रहा है उसमें वह दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति नहीं दिखाई दी है जो इस गंभीर समस्या को लड़ने के लिए जरूरी है। एक ब्लॉगर हैं सतीश पंचम। उनकी चिंता जायज लगती है।

सफेद घर में सतीश पंचम आतंकवाद की जड़ों में मट्ठा डालने में देर हो गई शीर्षक पोस्ट में लालकृष्ण आडवाणी की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि मुंबई के आतंकी घटना के मूल में हमारा भ्रष्ट राजनीतिक इतिहास रहा है।

आडवाणी को आज कहते सुना कि ये 1993 का ही Continuation है, लेकिन आडवाणी शायद भूल गए कि 1993 की जड़ में वही राममंदिर था जिसके दम पर उन्होंने सरकारी सुख भोगा था। और आगे बढ़ें तो उस राममंदिर के मूल में हिंदू-मुस्लिम फसाद था जो आजादी के वक्त बहुत कुछ हमारे राजनीतिज्ञों की दूरदृष्टि में कमी की वजह से पनपा था।

फसाद के जड़ में यदि शुरुआत में ही मट्ठा डाल दिया जाता तो ये आतंकवाद का विषवृक्ष पनपने न पाता। रही बात अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की, तो वह भी इसी तरह के जैसे मसलों की उपज है। बस उसकी जड़ों में मट्ठा डालने में देर हो गई है। अब ये आतंकवाद का वृक्ष कब तक फलेगा-फूलेगा, समझ नहीं आ रहा।

आतंकवाद से न लड़ पाने की अक्षमता से लोग दुःखी भी हैं, क्रोधित भी। वे चाहते हैं कि इसका कोई ठोस इलाज हो। इसीलिए कुछ ब्लॉगर कहते हैं कि हमें आतंकवाद से लड़ने के लिए अमेरिका से प्रेरणा लेना चाहिए। उसी से इच्छाशक्ति हासिल करना चाहिए।

कुछ ईश्वर की कुछ इधर की ब्लॉग पर डीके शर्मा कहते हैं- हमारा देश राजनीतिक इच्छाशक्ति में सचमुच नपुंसक ही साबित हुआ है। अरे अमेरिका से ही कुछ सीख लो। 9/11 के बाद उनके देश में कोई आतंकी हमला नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने आतंकवादियों के आकाओं तक को सबक सीखा दिया। आप से तो एक अफ़ज़ल गुरु को फाँसी नहीं दी जाती तो ठोस क़दम क्या उठाओगे।

भगवान के लिए वोटों की राजनीति बंद कीजिए और देश के बारे में कुछ सोचिए। देश ही नहीं रहेगा तो राज़ किस पर करोगे। अब जाने से पहले एक बार तो अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते जाइए, ताकि हम भी फख्र से कह सकें कि हमारी रीढ़ में पानी अभी बाकी है।

लेकिन कुछ ब्लॉगर्स इस हमले के मद्देनजर कुछ तीखे सवाल उठाते हैं। धीरू सिंग अपने ब्लॉग दरबार में एक आग उगलता शीर्षक लगाकर कुछ सवाल पूछते हैं। उनका शीर्षक है अगर आतंक से निजात पाना है तो एक ही रास्ता है पाकिस्तान पर। और उनके सवाल ये हैं-

क्या अब भी कसर बाकी है ?

क्या यह हमला हमारे कान खोलने को काफी नहीं है ?

कितनी लाशें देखने के बाद हमारी नींद खुलेगी ?

क्या हमारा खून पानी हो गया है ?

क्या अब भी आतंक की विवेचना करनी पड़ेगी ?

क्या पाकिस्तान की साजिश को साबित करना वोट बैंक पर भारी पड़ता है ?

खट्टी-मीठी ब्लॉग पर कामोद लिखते हैं राजनीति और विशेषकर वोट की राजनीति ने कड़े फैसले लेने से हमेशा रोका है। संसद पर हमले के दोषी पाए गए अफज़ल गुरु को फाँसी की सज़ा दिए जाने के बाद भी आज वो जिन्दा है। आखिर क्यों??

क्यों नहीं भारत में अमेरिका की तरह कड़े फैसले लेने का साहस है? क्यों भारत में देश की सुरक्षा के नाम पर खिलवाड़ होता है जबकि अमेरिका में सुरक्षा के लिए भारत के रक्षा मंत्री के कपड़े उतारने से भी परहेज नहीं किया जाता है?

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क्यों भारत में वोट की राजनीति खेली जाती है जबकि वहाँ विरोध के बाद भी इराक के राष्ट्रपति को फ़ाँसी दे दी जाती है? इसी तरह की भाषा में सुर से सुर मिलाते हुए हथौड़ा पर अंशुमाल रस्तोगी क्रोधित होकर लिखते हैं कि क्या हम जनता सिर्फ यूँ ही मरते रहने के लिए है?

आखिर हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या हमारा वोट सिर्फ उन्हें राजा बनाने तक ही सीमित होकर रह गया है? वोट जनता के और सुरक्षा नेताओं-मंत्रियों की! उन सैनिकों का क्या जो अपनी हिफाजत के लिए नहीं, हमारी-आपकी हिफाजत के लिए हर पल मुस्तैद रहते हैं।

उनकी चिंता कौन करेगा? उनके परिवारों की फिक्र किसे है? बस, इंतजार कीजिए। इस हमले पर भी राजनीति होगी। बहुत बेशर्मी के साथ होगी। आतंकवाद के पुतले यहाँ-वहाँ फूँके जाएँगे। बस, कड़े शब्दों में ही निंदा होगी।

जिन्हें शहीद होना था, वे हो गए। अब यह हम जनता को ही तय करना है कि हम नेताओं या सरकार के सहारे रहें या फिर अपनी ही कोई 'कठोर रणनीति' बनाएँ आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए।

इसके अलावा कुछ ब्लॉगरों ने कविता के जरिए अपने भाव व्यक्त किए हैं। पूनम ने अपने ब्लॉग पर कविता के जरिए अपना गुस्सा जताया है।
उनकी कविता की आखिरी पंक्तियाँ ये हैं -

बर्दाश्त नहीं हो पाता है
एक भी हमवतन का रक्त बहे
नेता जान बचाएँ अपनी और
बार-बार हम ज़ुल्म सहें'

अनवरत ब्लॉग पर दिनेशराय द्विवेदी की कविता का एक अंश-

हम सिर्फ भारतीय हैं, और
युद्ध के मोर्चे पर हैं
तब तक हैं जब तक
विजय प्राप्त नहीं कर लेते
आतंकवाद पर।
एक बार जीत लें, युद्ध
विजय प्राप्त कर लें
शत्रु पर।
फिर देखेंगे
कौन बचा है? और
खेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीच
कभी न आने के लिए चला गया
जीवन यात्रा छोड़कर।
हम तभी याद करेंगे
हमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगे
अपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,
एक साथ
विजय की खुशी के साथ।

  जिन्हें शहीद होना था, वे हो गए। अब यह हम जनता को ही तय करना है कि हम नेताओं या सरकार के सहारे रहें या फिर अपनी ही कोई 'कठोर रणनीति' बनाएँ आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए।      

और अंत में गीतकार की कलम ब्लॉग पर राकेश खंडेलवाल लिखते हैं -

कब तक नगर जलेगा ? शासक वंशी में सुर फूँकेंगे

कब तक शुतुर्मुर्ग से हम छाए खतरों से जूझेंगे

कब तक ज़ाफ़र, जयचन्दों को हम माला पहनाएँगे

कब तक अफ़ज़ल को माफ़ी दे, हम जन गण मन गाएँगे

सोमनाथ के नेत्र कभी खुल पाए अपने आप कहो

उठो पार्थ गाण्डीव सम्भालो, और न कायर बने रहो

जो चुनौतियाँ न स्वीकारे, कायर वह कहलाता है

और नहीं इतिहास नाम के आगे दीप जलाता है ।


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