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Written By ND

अँधेरे से लड़ने की ऊर्जा जज्बात में

अँधेरे से लड़ने की ऊर्जा जज्बात में -
- उमेश त्रिवेद

यह तय है कि लोकतंत्र ही भारत में नया नसीब लिखेगा और उम्मीदों को नया आसमान देगा, लेकिन उसके मौजूदा हालात बेहतर प्रतीत नहीं हो रहे हैं। लोकतंत्र की सीधी-सरल लकीरें टेढ़े-मेढ़े वृत्तों में तब्दील हो गई हैं। वृत्त पर घूमने के कारण देश एक ही स्थान पर ठहरा और थमा महसूस हो रहा है। इन परिस्थितयों में लोकतंत्र की नई इबारत लिखना मुश्किल जरूर है, लेकिन असंभव नहीं है।

देश में नए सोच, नई दृष्टि और कई राहों के स्रोत अभी भी बहुतायत में मौजूद हैं, जो बेहतर और चमकीली उम्मीदों को जिंदा रखने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन देने में समर्थ हैं। देश की जनता लोकतंत्र को लेकर नए सवाल चाहती है ताकि नए उत्तर सामने आ सकें, लेकिन जनता की चाहत में खोट है। खोट यह है कि वह खुद भी नए सवालों के प्रति संजीदा नहीं है, संवेदनशील नहीं है।

नए सोच के प्रति उसके सोच में ऊर्जा नहीं है, उत्तेजना नहीं है, उत्साह नहीं, उल्लास नहीं है। पिछले साठ वर्षों से लोकतंत्र को लेकर उठने वाले घिसे-पिटे सवालों और उनके घिसे-पिटे उत्तरों ने लोगों के मन में निराशा घोल दी है, लेकिन इससे उबरना होगा, क्योंकि फलक कतई निराशाजनक नहीं है।

पिछले दिनों केंद्र सरकार ने संसद में अपना बहुमत साबित करने के लिए विश्वास प्रस्ताव पेश किया। सरकार को बचाने-गिराने का ड्रामा पूरे देश ने देखा और नफे-नुकसान का आकलन किया। इसके बाद अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट का हादसा हुआ जिसमें अनेक जानें गईं, संपत्ति का नुकसान हुआ। आतंक की आशंकाओं ने बड़े पैमाने पर लोगों को परेशान कर दिया। इन घटनाओं का विश्लेषण किया जाए तो कोई गर्वीले भाव सामने नहीं आते हैं।

विश्वास मत के ड्रामे में लोकतंत्र को लजाने के सारे उपक्रम हुए और देश को दुनिया के सामने शर्मसार होना पड़ा। अहमदाबाद के सीरियल ब्लास्ट की घटनाओं ने देश के सामाजिक सद्भाव के ताने-बाने के कमजोर तारों की कलई खोल दी। लगा कि देश आग के मुहाने पर बैठा है। फिर भी इन घटनाओं के स्याह अँधेरे के पार भी कुछ ऐसे विचार घुमड़ रहे थे, जिनमें अँधेरे से लड़ने की ऊर्जा नजर आती है।

विश्वास मत के दौरान राहुल गाँधी के भाषण और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की भूमिका जरूर जहाँ लोगों के मानस को कुरेदती है, वहीं अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट के बाद निजी रेडियो चैनलों की पेशकश यह विश्वास जगाती है कि नकारात्मक प्रवृत्तियों के मुकाबले सकारात्मक गतिविधियाँ हमेशा कारगर और प्रभावी तरीके से लोगों के मन में जगह बनाएँगी।

विश्वास मत के दौरान अपने भाषण में राहुल गाँधी की सोच ने लोगों को विचार करने के लिए बाध्य किया है कि राष्ट्रहित के मामलों पर लोगों को पार्टी पोलिटिक्स से ऊपर उठकर देश के नागरिक की हैसियत से काम करना होगा, निर्णय लेना होगा। उनके इस कथन का सम्मान करना होगा कि एक भारतीय की हैसियत से भी तो हम देश की समस्याओं पर विचार करें, उसके गुण-दोषों को परखें और फैसला करें।

राष्ट्रहित के मामले में सभी राजनीतिक दलों को लक्ष्मण रेखाएँ खींचना होंगी, अन्यथा देश को कमजोर होने से कोई भी नहीं रोक सकेगा। कमोबेश देशहित के सवाल लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की भूमिका से भी जुड़े हैं। चटर्जी का कहना है कि उन्होंने संवैधानिक पद की गरिमा और मर्यादा को पार्टी और राजनीति से ऊपर माना है। उनके लिए संभव नहीं था कि ऐसे नाजुक मौके पर वे राजनीति का हिस्सा बनकर स्पीकर जैसे पद को विवादास्पद बनाते।

सोमनाथ चटर्जी और राहुल गाँधी से जुड़े इन दो उल्लेखों के अतिरिक्त अहमदाबाद में बम धमाकों के बाद रेडियो चैनलों की भूमिका भी जहन में विश्वास पैदा करती है कि राष्ट्रीयता अभी भी कायम है। जज्बात सूखे नहीं हैं और सब मिलकर किसी भी परिस्थिति का मुकाबला कर सकते हैं।

अहमदाबाद में बम धमाकों के बाद लोगों के घावों पर मरहम लगाने और विश्वास पैदा करने के लिए निजी रेडियो चैनलों ने अभिनव पहल की। यहाँ के सभी एफएम चैनलों ने ऐसे गीत बजाने का निर्णय लिया, जो देशभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत थे। उनका कहना था कि दंगों के घावों पर मरहम लगाने के लिए वे इस प्रयास को जारी रखेंगे, क्योंकि देशभक्ति की भावनाओं से भरे इन गीतों को लेकर लोगों का 'फीडबैक' काफी अच्छा रहा है।

लोकतंत्र और समाज में जब अनैतिक कारनामों का कोलाहल बढ़ता जा रहा है, सोमनाथ चटर्जी, राहुल गाँधी या एफएम रेडियो के नैतिक सवाल और प्रयास भले ही एकाकी या अल्पमत में महसूस हों, फलक पर बड़ा असर पैदा कर सकते हैं, बशर्ते जनमानस के सोच की दिशा भी बदले। दिक्कत यह है कि ऐसे प्रयासों पर जनता को जिस कदर रिएक्ट करना चाहिए या जितना सक्रिय होना चाहिए, वह नहीं होती।

लोकतांत्रिक संस्थाएँ या मीडिया एक सीमा तक जनता की लड़ाई को आगे बढ़ा सकते हैं, उसके सहभागी हो सकते हैं, लेकिन निर्णायक लड़ाई तो जनता को खुद ही लड़ना होगी। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि आज लोगों की लापरवाही, उदासीनता और स्वार्थपरता ने लोकतंत्र की बुनियाद कही जाने वाली कार्यपालिका और विधायिका को निरंकुश और निहित स्वाथों का माध्यम बना दिया है। इन संस्थाओं में देशहित और जनहित के कार्यों के अलावा हर प्रकार की राजनीति और राजनीतिक व्यभिचार होता है।

इसे जनमत की कमजोरी या लापरवाही ही कहा जाएगा कि इतने सालों में लोकतांत्रिक संस्थाएँ मजबूत और परिपक्व होने के बजाय कमजोर और कमतर होती जा रही हैं, क्योंकि जब जनता ही अच्छे विचारों और कार्यों के प्रति सजग, सतर्क और संवेदनशील नहीं है तो संस्थाएँ कैसे होंगी, जो उसके जनमत के आधार पर आकार लेती हैं।
(लेखक नईदुनिया के समूह संपादक हैं।)