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Last Modified: सोमवार, 8 फ़रवरी 2016 (16:07 IST)

इंसानियत और धर्मनिरपेक्षता के सजग सिपाही का न रहना

इंसानियत और धर्मनिरपेक्षता के सजग सिपाही का न रहना - Urdu poet Nida Fazli
-दीपक असीम
निदा फ़ाज़ली के निधन से सबसे बड़ा नुकसान हुआ है धर्मनिरपेक्षता को। वे उर्दू के आम शायरों से इस माने में अलग थे कि न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष थे, बल्कि एक हद तक नास्तिक भी थे। उनकी जीवनशैली में कहीं भी पाखंड नहीं था। मंचों से उन्होंने कभी नफरत फैलाने वाली बातें नहीं कहीं, कभी कूपमंडूकता की तरफ उनका रुझान नहीं रहा। वे ऐसे शायरों का विरोध करते और मजाक उड़ाते थे, जो उर्दू मंचों का इस्लामीकरण और मुस्लिमकरण करते हैं। मज़हब के सांस्कृतिक हिस्से से उनका लगाव था। त्योहार, खाना-पीना, रस्में...। मगर इससे आगे कभी नहीं...। हाथ में गिलास लेकर वे हमेशा इन चीजों के आगे की हर चीज के खिलाफ खड़े नजर आते थे।
 
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को इतना बड़ा मकान? 
 
उर्दू शायरी दुनिया में बिरली है। कठमुल्लाओं का मज़ाक किसी और भाषा की कविता ने इतना नहीं उड़ाया जितना उर्दू शायरी ने। इस शायरी का मिज़ाज हमेशा से विद्रोही-सा रहा है। निदा फ़ाज़ली तो मानो विद्रोह की प्रतिमूर्ति थे। पाकिस्तान में उनसे पूछा गया था कि रोते बच्चे को हंसाना नमाज़ पढ़ने से बेहतर कैसे हो सकता है? पाकिस्तान में यही पूछा जा सकता था। वो शे'र था- 

 
घर से मस्जिद है बहुत दूर
चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को
हंसाया जाए
 
इन पंक्तियों के लेखक ने इंदौर के एक बड़े शायर को निदा फ़ाज़ली से उलझते देखा है। वे मंच के बड़े जादूगर हैं। निदा फ़ाज़ली की हंसी वे इस बात पर उड़ा रहे थे कि निदाजी हर मुशायरे में लगभग वही नज़्मे, वही लतीफे, वही वाकये सुनाते हैं। उन बड़े शायर की बात तो ठीक थी, मगर उसके पीछे जो चिढ़ थी, वो यह थी कि वे निदा साहब की मौजूदगी में खुद को बौना महसूस कर रहे थे। उन्हें पता था कि मैं मंच का महान जादूगर सही, मगर अदब में तो ऊंचा कद निदा फ़ाज़ली का ही है। अपने जिन प्रगतिशील मूल्यों पर उन शायर हज़रत को नाज़ था, वो निदा फ़ाज़ली जैसे कलंदरों से ही उधार लिए हुए थे।
 
बहरहाल, निदा फ़ाज़ली ग़ज़ल के नहीं, नज़्मों के शायर थे। अपने पिता पर कही गई उनकी नज़्म उर्दू में तो बेमिसाल है। हालांकि हिन्दी में भवानीप्रसाद मिश्र की जो लंबी कविता अपने पिता पर है, वो भी बेहतरीन है। ग़ज़ल भी उन्होंने अपने समकालीन शायरों से बहुत अच्छी कही है। मगर जो खुलापन और प्रयासरहितता उन्हें नज़्म कहते हुए महसूस होता था, वो ग़ज़ल कहते हुए कभी नहीं हुआ। उनके दोहे दिव्य हैं। ग़ज़लों में भी वे गहरी बातें कहा करते थे।
 
हर इक सूरत भली लगती है कुछ दिन
लहू की शोबदाकारी से बचिए
 
यानी किसी पर दिल आना हारमोन का खेल है। इसे समझिए। मां पर लिखे गए हजारों शे'र इस दोहे पर निसार- 
मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी-तार...
 
शायर बहुत से होंगे, जैसे आसमान में अरबों सितारे हैं। मगर निदा फ़ाज़ली किसी मामूली तारे का नाम नहीं था। निदा के जाने से ऐसा जगमगाने वाला तारा टूटा है कि आसमान पर अंधियारा-सा छा गया है। निदा का बदल कोई नहीं हो सकता।