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Written By शरद सिंगी
Last Modified: शनिवार, 4 अक्टूबर 2014 (18:44 IST)

विश्व मंच की कहानी उसी की जुबानी

विश्व मंच की कहानी उसी की जुबानी -
सुनिए, इस कथन को आरंभ करने के पूर्व मैं अपना स्व-परिचय दे दूं। मैं, संयुक्त राष्ट्र संघ का ऐतिहासिक पोडियम (मंच) हूं जहां से खड़े होकर संसारभर के कई छोटे बड़े राजनेताओं ने विश्व के प्रतिष्ठित  समुदाय को संबोधित किया है। आज मैं अपनी कहानी स्वयं कहूंगा। मैं उन चिंतनशील राजनेताओं का आभारी हूं जिन्होंने विगत 69 वर्षों में अपने भाषणों से इस मंच को गरिमा दी, निडर होकर सच्चाई को सामने रखा, विश्व को सही दिशा देने का प्रयास किया, साथ ही मैं उन भाषणों का भी साक्षी हूं जो झूठ के पुलिंदे थे, क्षुद्र कूटनीति से प्रेरित थे, अनर्गल प्रलाप थे, समय का अपव्यय और अपशिष्ट थे। मेरे इस अल्पकाल में कई रोचक, दिलचस्प और तन्मयकारी क्षण आए तो कई पल ह्रदय को क्षुब्ध और व्यथित करने वाले भी थे।    
विश्वमंच के रूप में मेरी स्थापना मानवता की अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात सन् 1945 में 51 राष्ट्रों ने मिलकर की थी। उद्देश्य थे अंतरराष्‍ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना, राष्ट्रों के बीच सद्भावना पैदा करना, मनुष्य के जीवन स्तर को बेहतर बनाना और मानव अधिकारों की रक्षा करना। जन्म के समय 51 सदस्यों वाली संस्था के पास अब सदस्य संख्या बढ़कर 193  हो चुकी है। पवित्र उद्देश्य और भावना से बनी इस अंतरराष्‍ट्रीय संस्था पर आज कई सवालिया निशान हैं।
 
मेरा ह्रदय वेदना से भर जाता है जब गरीबी से जूझते राष्ट्र विश्व के सम्मुख अपने देशों की गरीबी, भुखमरी और स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरतों का बयान करते हैं, किन्तु उनकी आवाज़ नक्कार खाने में तूती की आवाज़ के सामान है। समर्थ राष्ट्रों ने तो मुझे कूटनीति का अखाड़ा बना रखा है। मैंने अपने इस लघु जीवन में अनेक जोशीले, लचीले, ओजस्वी, तीखे, नीरस और उबाऊ भाषण सुने हैं। अटल का ओज देखा। बुश का जोश देखा। वीके कृष्णमेनन का धाराप्रवाह आठ घंटे का मैराथन भाषण सुना। पाकिस्तान का निरंतर आर्तनाद देखा। मनमोहन का मुलायम रुख देखा। लीबिया के कर्नल गद्दाफी के मूर्खतापूर्ण भाषण सुने। यूगांडा के ईदी अमीन की गीदड़ भभकियां सुनीं। वेनेज़ुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ के बेतुके और विवेकहीन भाषण सुने जिन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति को दुरात्मा और बदबूदार तक करार दिया था। कभी किसी ने ताल ठोकी, किसी ने जूते तो किसी ने स्वयं का गुणगान करने में शालीनता की सारी सीमाएं लांघ दीं।
 
जी हां, मैं अपने स्मृति पटल पर अनेक सतरंगी भाषणों की लड़ियां समेटे हूं। तो सुनिए।  कई नेताओं ने मुझे रंगमंच समझा और नटों की तरह प्रहसन किए। किसी ने मुझे मात्र एक वार्षिक औपचारिकता का मंच माना और गंभीरता से नहीं लिया। कभी राष्ट्रीय राजनीतिक मजबूरियां और महत्वाकांक्षाएं मेरे मंच से दिए भाषणों की रूपरेखा बन गए तो कभी द्विपक्षीय मतभेदों को अंतरराष्ट्रीय जामा पहनाने की कोशिश इस मंच से की गई। कभी किसी ने स्वयं अपने ऊपर गोल दाग लिए और अपने ही राष्ट्र को शर्मिंदा किया।  याद होगा आपको जब सन् 2011 के अधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी उपस्थिति टाल गए थे और तब भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण पढ़ना शुरू कर दिया था। आश्चर्य तो यह है कि उन्हें मालूम भी नहीं पड़ा कि वे क्या पढ़ रहे हैं, तब भारतीय अधिकारी ने उन्हें कागज़ बदलकर पढ़ने को कहा। इस तरह वे पूरे विश्व में हंसी का पात्र बने। 
 
इस वर्ष भारत के प्रधानमंत्री मोदी के भाषण से राष्ट्रसंघ गुंजित हुआ। बहुत दुर्लभ अवसर होते हैं जब मुझे ऐसे ईमानदार भाषण सुनने का मौका मिलता है। जहां तथ्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं, किसी पर कटाक्ष नहीं। सीधा, सरल, स्पष्ट, नेकनीयत और निष्कपट।  प्रधानमंत्री ने उद्देश्य से भटके सदस्यों को वापस उद्देश्य पर आने की बात छेड़ी। संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक महत्वपूर्ण प्लेटफॉर्म होने के बावजूद अलग-अलग समूहों में बंटे राष्ट्रों के औचित्य पर सवाल उठाए तथा इन समूहों को भंग कर राष्ट्रसंघ के मंच को सुधार एवं सामर्थ्य देने की बात कही। जहां निर्बलता है वहां प्रतिबद्धता चाहिए। मुझे प्रसन्नता हुई कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के उकसावे के बावजूद उन्होंने मुझे कूटनीतिक मंच नहीं बनाया। नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान जैसे देशों में प्रजातंत्र के बढ़ते क़दमों को प्रशस्ति दी। उसी तरह पश्चिमी एशिया खासकर मध्य-पूर्व में लोकतंत्र की स्थापना के लिए चल रहे आंदोलनों का स्वागत किया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार लाने और उसे अधिक जनतांत्रिक बनाने की बात जैसे तो उन्होंने मेरे मुख से छीन ली हो। आतंकवाद को खरे और खोटे में विभाजित करने की कुछ राष्ट्रों की मनोवृत्ति को आड़े हाथों लिया। इस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने एक राष्ट्रीय या क्षेत्रीय नेता की संकुचित विचारधारा से ऊपर उठकर, भारत की वैश्विक सोच को विश्व समुदाय तक प्रभावी ढंग से पहुंचाया। 
 
क्षितिज पर लालिमा है। एक नए भास्कर के उदय संकेत हैं। क्या इस दिनकर का तेज मेरी निस्तेज होती कीर्ति को दैदीप्यमान करेगा? क्या यह शख्स इस धरा पर एक सर्वमान्य वैश्विक नेता की कमी को भर पाने में समर्थ होगा? क्या मेरे मंच के माध्यम से वह विकासशील देशों की आवाज़ को सशक्त कर सकेगा? अपेक्षाएं अनंत हैं किन्तु  विश्वास भी अपने चरम पर। मुझे इंतज़ार रहेगा अगले वर्ष का जब यह शख्स और भी अधिक आत्मविश्वास से इस सदन को अपनी वाणी से स्पंदित करेगा। अपने क्रांतिकारी विचारों से विश्व के श्रोताओं को उद्वेलित करेगा। आमीन।