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आईएस और शरणार्थी समस्या

आईएस और शरणार्थी समस्या - Syria
- राजकुमार कुम्भज


 
 
इस बरस सीरिया और लीबिया में गृहयुद्ध की स्‍थिति के चलते लाखों शरणार्थी यूरोप पहुंचे हैं। कनाडा और ब्रिटेन ही नहीं, अकेले जर्मनी ने ही 10 लाख शरणार्थियों या उससे भी कहीं ज्यादा लोगों को पनाह दी है। 10 लाख लोग यानी कि एक महानगर, 10 लाख लोग यानी कि जिनके लिए मकान, भोजन और रोजगार की जरूरत होगी। किंतु पेरिस हमले के बाद अमेरिका व यूरोप में शरणार्थियों को शरण देने के फैसले पर सवाल उठने लगे हैं।
 
वर्ष 2016 में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए हो रही बहस में शरणार्थी समस्या एक बड़ा मुद्दा बनकर उभर रही है। रिपब्लिकन पार्टी से राष्ट्रपति पद के नामांकन की दौड़ में शामिल उद्योगपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो अमेरिका में मुस्लिमों का प्रवेश प्रतिबंधित करने तक की बात कहकर एक सनसनी-सी ही फैला दी है। यहां तक कि कई योरपीय देशों ने शरणार्थियों की बाढ़ को रोकने के लिए अपनी सीमाएं तक सील कर दी हैं, फिर भी शरणार्थी-समस्या एक चुनौती बनी हुई है।
 
अधिकांश शरणार्थी सीरिया, इराक, अफगानिस्तान और एरिट्रिया से ही यूरोप पहुंच रहे है। ये शरणार्थी ऐसे देशों और समाजों से यूरोप पहुंच रहे हैं, जहां किसी भी तरह की स्वतंत्रता से पर्याप्त परहेज किया जाता है। सख्त धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक बंधनों सहित राजनीतिक-स्वतंत्रता का तो वहां कोई मतलब ही नहीं रह गया है। परतंत्रता ही जीवन की मुख्य धारा है जिसमें परिवार या कबीला ही व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण होता है। वहां व्यक्ति अथवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसा कोई विचार होता ही नहीं है, जबकि जर्मनी में व्यक्ति का महत्व, समूह से कहीं ज्यादा है। यदि परिवार नहीं रह गया है, तो जिंदगी की जोखिमों के लिए राज्य सहारा बन जाता है। 
 
जर्मनी में पुरुषों और महिलाओं के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है, जबकि आईएसआईएस की ओर से जारी किए गए वीडियो में उसकी क्रूरता, बर्बरता और जुल्मो-सितम की इंतेहा ही देखने को मिली है। ईएसआईएस के वीडियो में बंधकों का सिर कलम करने, गर्दन रेतने, जिंदा जलाने, छत से फेंकने, बच्चों से गोली चलवाने, सूली पर लटकाने, गाड़ियों से घसीटने और डुबोकर मार देने के दृश्य दिखाकर खौफ फैलाने की वीभत्स कोशिशें की गई हैं।
 
हजारों यजीदी महिलाएं आतंकियों की यौन-हिंसा का शिकार हुई हैं। इन मह‍िलाओं को यौन गुलाम बनाकर सीरिया के बाजारों में खुलेआम नीलाम किया गया है। उत्तरी इराक का एक जिला है सिंजार। सिंजार जिले में भारी संख्या में यजीदी समुदाय के लोग रहते हैं। सिंजार जिले का एक छोटा-सा गांव है कोचो। कोचो में सिर्फ एक ही स्कूल था, उसी एक स्कूल में गांव के तमाम बच्चे पढ़ते थे। इतिहास उनका पसंदीदा विषय था। एक दिन गांव में ईएसआईएस का फरमान आया कि सभी यजीदी लोग इस्लाम कबूल करें या फिर खतरनाक अंजाम भुगतने को तैयार रहें।
 
यजीदी समुदाय के लोगों में खौफ भी था और गुस्सा भी। उन्हें अपना धर्म छोड़कर इस्लाम कबूल करना पसंद नहीं था। फिर वही हुआ जिसका अंदेशा और डर था। गांव वालों को स्कूल परिसर में पहुंचने को कहा गया। वहां पहुंचने पर महिलाओं और पुरुषों को अलग कर दिया गया। गांव के 300 से ज्यादा पुरुषों को लाइन में खड़ा करके मार दिया गया, जबकि लड़कियों और महिलाओं को बस में बैठाकर इराक के मौसुल शहर ले जाया गया। 
 
आतंकियों ने गांव की उम्रदराज महिलाओं को भी मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि वे उनके किसी काम की नहीं थी, किंतु युवा लड़कियां आतंकियों के लिए युद्ध में जीती गई दौलत के समान थीं। उन्हें हर दिन बारी-बारी से शरिया कोर्ट में पेश किया जाता था और उनकी फोटो खींचकर दीवारों पर चिपका दी जाती थी ताकि आतंकी उन्हें पहचानकर उनकी अदला-बदली कर सकें। भागने की कोशिश करने वालों की बड़ी बेरहमी से पिटाई की गई। यहां तक कि 10-10, 12-12 आतंकियों ने उनके साथ दरिंदगी की।
 
नादिया मुराद बसीताहा एक ऐसी ही आईएसआईएस पीड़ित यजीदी लड़की है, जो आ‍तंकियों के कैदखाने से भागकर छुपते-छुपाते मोसुल स्‍थित शरणार्थी कैम्प पहुंचने में सफल हो गई। एक गैरसरकारी संगठन की मदद से उसे पहले जर्मनी और फिर अमेरिका भेज दिया गया। नादिया मुराद बसीताहा ने संयुक्त राष्ट्र के अपने संबोधन में कहा कि आईएसआईएस द्वारा महिलाओं पर बर्बरता के मामले अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में पेश किए जाएं ताकि आतंकियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जा सके। 
 
आईएस पीड़ित यजीदी और शरणार्थी लड़की नादिया का अब एक ही मकसद है कि आईएस के खिलाफ दुनिया को कैसे एकजुट किया जाए? हालांकि एक-दूसरे के विरोधी रहे फ्रांस, रूस, ब्रिटेन, अमेर‍िका और तुर्की ने सीरिया में आतंकी ठिकानों पर हजारों बम बरसाए हैं, वहीं सऊदी अरब की अगुवाई में दुनिया के 34 इस्लामिक देशों ने भी आईएस आतंकियों से लड़ने के लिए आपसी गठबंधन कर लिया है।
 
उधर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों ने सीरिया में शांति-प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करने वाले उस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है जिसमें दमिश्क सरकार और विपक्ष के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत शामिल है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का यह प्रस्ताव सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद की भूमिका पर कुछ नहीं कहता है। यह प्रस्ताव इस बात को तो स्वीकारता है कि शांति-प्रक्रिया से संघर्ष समाप्त नहीं होगा, क्योंकि यह देश के भीतर सक्रिय इस्लामिक स्टेट और अल-नुसरा फ्रंट जैसे आंतकी संगठनों को संघर्षविराम में शामिल होने से रोकता है। इस प्रस्ताव को मंजूरी देने से पहले 17 देशों के विदेश मंत्रियों ने मतभेदों से मुक्ति के लिए लगभग 5 घंटे से अधिक वक्त तक महत्वपूर्ण चर्चा की। 
 
उक्त महत्वपूर्ण और लंबी चर्चा के बाद ही यह मंजूर हुआ है कि सीरिया के लोग ही अपने देश के भविष्य का फैसला करेंगे और अगले 18 माह के भीतर संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में चुनाव करवाए जाएंगे। सुरक्षा परिषद की‍ बैठक की अध्यक्षता करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने कहा है कि यह प्रस्ताव सभी संबंधित पक्षों को स्पष्ट संदेश है कि सीरिया में अब खून-खराबा रोकना ही होगा, किंतु अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कहते हैं कि सीरिया में स्थिरता कायम करने और देश में नृशंस गृहयुद्ध की समाप्ति के लिए सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असद को सत्ता त्याग देनी चाहिए, जबकि रूसी राष्ट्रपति वलादिमीर पुतिन की मंशा अब भी यही है कि सीरिया के तानाशाह राष्ट्रपति बशर-अल-असद को सत्ता में बने रहना चाहिए। यही नहीं, रूस तो असद विरोधियों को आतंकी बताकर प्रस्तावित शांतिवार्ता से बाहर रखने की भी कोशिश कर रहा है। अमेरिका कह चुका है कि सीरिया में वह अपनी जमीनी सेना नहीं भेजेगा। ऐसे में आईएस के खिलाफ सिर्फ ईरान समर्थक शिया मिलिशिया के लड़ाके मैदान-ए-जंग में बाकी बचते हैं। 
 
इसमें शक नहीं कि राजनीतिक सहमति के बिना भी अगर युद्ध-विराम पर कोई बात बनती है तो इससे रूस द्वारा किए जा रहे हमले भी बंद होंगे, जो कि एक उल्लेखनीय उपलब्धि हो सकती है। इसका एक अन्य निष्कर्ष यह भी हो सकता है कि सीर‍िया में सरकार और विद्रोही-‍नियंत्रित क्षेत्र, दोनों साथ-साथ रहेंगे और तब स्थानीय तथा अंतरराष्ट्रीय गोला-बारूद एकसाथ आईएस द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों की ओर चल पड़ेगा। किंतु फिलहाल यह उम्मीद पालना क्या जरा जल्दबाजी ही नहीं कही जाएगी?
 
संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अनुसार सीरिया में संघर्ष-विराम से आईएस के खिलाफ जारी कार्रवाई जरा भी प्रभावित नहीं होगी। इसका एक अर्थ तो यही निकलता है कि आईएस के ठिकानों पर अमेरिका, रूस और फ्रांस के हमले होते रहेंगे और यूरोपीय देशों में शरणार्थियों की संख्या-समस्या जारी रहेगी। आईएस विरोधी संगठन अहरार-एश-शाम ने आईएस ‍को खदेड़ते हुए रक्का स्थित ट्रेनिंग कैम्पों तथा इराकी फौज ने रमादी शहर पर वापस कब्जा कर लिया है। शरणार्थियों के लिए यह राहत की बात है। 
 
स्मरण रखा जा सकता है कि शरणार्थियों के लिए शुरू में यूरोप के दरवाजे जरूर बंद रहे, मगर जर्मनी ने अपनी सीमा खोलकर जिस सकारात्मक बदलाव का प्रारंभ किया, वह एक अनुकरणीय कदम रहा। शरणार्थी-संकट से निपटने के लिए यूरोपीय आयोग की पहलें भी स्वागतयोग्य रहीं, किंतु ज्यों-ज्यों यूरोप में शरणार्थियों की संख्‍या बढ़ रही है, त्यों-त्यों यूरोप को अब ज्यादा बड़ी चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। तिस पर तुर्रा यह भी है कि समूचे यूरोप में आईएस एकसाथ एक जैसे हमले एक ही दिन और एक ही समय में करने की योजना बना रहा है। आज यूरोप के समक्ष आईएस और शरणार्थी-समस्या दोनों की बड़ी चुनौतियां खड़ी हैं।