गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By अनिल जैन

यह तो मर्ज का इलाज नहीं हुआ

यह तो मर्ज का इलाज नहीं हुआ - suicide
हमारे समाज में बहुत सारे कारणों से आत्महत्या पहले भी होती रही हैं। अकाल मौत के कारणों में आत्महत्या ही ऐसा कारण है जिसे राज्य और समाज चाहे तो आसानी से नियंत्रित कर सकता है। परंतु नव उदारीकृत अर्थव्यवस्था उपभोक्तावाद ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को जिस तरह चोट पहुंचाई है उससे देश में आत्महत्या की बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया है। शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो जब देश के किसी न किसी इलाके से गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, कर्ज, दहेज उत्पीड़न जैसी तमाम आर्थिक तथा अन्यान्य सामाजिक दुश्वारियों से परेशान लोगों के आत्महत्या करने की खबरें न आती हों।
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कुछ ही दिनों पहले एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया के तमाम देशों में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें से लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती है। यानी दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा। इस कड़वी हकीकत के बावजूद गांवों में 26 रुपए और शहरों 33 रुपए रोज में जीवन-यापन करने वालों को गरीब न मानने वाली निष्ठुर भारतीय राज्य व्यवस्था अब अपने लोगों के लिए आत्महत्या की राह और भी आसान करने जा रही है। इस सिलसिले में केंद्र सरकार ने कानून की किताबों में संशोधन कर आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का फैसला किया है। 
 
मौजूदा सरकार की पूर्ववर्ती यूपीए सरकार भी इस दिशा में काम कर रही थी और उसने इस आशय का संकेत कोई तीन वर्ष पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के सिलसिले में अपना पक्ष पेश करते हुए दिया था। याचिका में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 को खत्म करने की मांग की गई थी। इस धारा के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को एक साल की कैद या जुर्माना या दोनों सजा एक साथ हो सकती है। 
 
दरअसल इस तरह का व्यक्ति अपनी परेशानियों से छुटकारे के लिए जो उपाय चुनता है, उसमें सफल न होने पर मानसिक अशांति और सामाजिक शर्मिंदगी का सामना करता है। इस पर राज्य व्यवस्था अगर उसके साथ अपराधी की तरह बर्ताव करना शुरू कर दे, उसे जुर्माना अदा करने के साथ ही जेल में रहना पड़े, तो यह सचमुच बेहद अमानवीय है। विधि आयोग ने अपनी 210वीं रिपोर्ट में इसी अमानवीयता को खत्म करने की सिफारिश सरकार से की है। आयोग इस तरह की सिफारिश लंबे समय से करता आ रहा है। 44 साल पहले 1971 में भी उसने इस तरह की सिफारिश की थी। राज्यसभा ने इसे पारित भी कर दिया था लेकिन इससे पहले कि वह लोकसभा में पारित हो पाती, लोकसभा ही भंग हो गई।
 
बहरहाल विधि अयोग की ताजा सिफारिश पर 18 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों की सहमति के बाद केंद्र सरकार ने मुहर लगाने का फैसला किया है। यानी लोगों के आत्महत्या की राह आसान बनाने के सवाल पर देश में राजनीतिक स्तर पर आम सहमति है। सिर्फ बिहार, मध्य प्रदेश, सिक्किम आदि कुछ राज्यों ने ही असहमति जताई है। 
 
फौरी तौर पर तो इस प्रसंग में विधि आयोग और केंद्र सरकार की पहल का आधार निश्चित रूप से मानवीय नजर आता है, लेकिन हमारे यहां कानून की किताबों में आत्महत्या को अपराध मानने वाली धारा का प्रावधान भी विशुद्ध रूप से मानवीय आधार पर यह सोचकर ही रखा गया था कि मनुष्य जीवन अनमोल है और उसे यों ही खत्म करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती है। अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या करने का प्रयास करता है तो उसके लिए राज्य की ओर से कोई दंडात्मक व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि उससे सबक लेकर कोई अन्य व्यक्ति इस तरह की आत्महंता कोशिश न कर सके। अब अगर सरकार इस प्रावधान को कानून की किताबों से हटाने जा रही है तो इसके दूसरे खतरे भी कम नहीं हैं। आत्महत्या की कोशिश को अपराध की श्रेणी से हटाने जाने से इसके पीछे के कारणों की तलाश मुश्किल हो सकती है। इसका असर खासकर कर्ज की वजह से खुदकुशी करने वाले किसानों और दहेज हत्याओं पर पड़ सकता है।
 
आत्मघाती हमलावरों की विश्वव्यापी पैठ के इस दौर में भी आत्महत्या की कोशिश को अपराध न मानना भी कम खतरनाक नहीं होगा। देश के खिलाफ एक तरह से युद्ध छेड़ने वाले ये लोग अक्सर सबूत मिटाने की कोशिश में भी आत्महत्या का प्रयास करते हैं। यहां यह हकीकत भी नहीं भूलनी चाहिए कि हमारे समाज में ऐसे शातिर अपराधियों की कमी नहीं है जो यह जानते हैं कि किसी सुनियोजित हत्या को कैसे आत्महत्या का रूप दिया जाए। अगर इन सारे खतरों से बेपरवाह होकर सरकार आत्महत्या की कोशिश को अपराध नहीं मानती है तो समझा जा सकता है कि हमारी समूची राजनीति किस कदर निर्मम और जनद्रोही हो चुकी है।
 
डब्ल्यूएचओ के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2012 में भारत में 258075 लोगों ने आत्महत्या की थी। इनमें 1.58 लाख से अधिक पुरुष और एक लाख के करीब महिलाएं थीं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉड्‌र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के तुलनात्मक आंकड़े भी बताते हैं कि भारत में आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ी है। ऐसा नहीं है कि लोग आत्महत्या सिर्फ आर्थिक परेशानियों के चलते ही करते हों, अन्य सामाजिक कारणों से भी लोग अपनी जान दे देते हैं।
 
भारतीयों के बारे में कहा जाता है कि हर मुश्किल से मुश्किल हालात में जीने का हुनर इनके स्वभाव और संस्कार में है और इसी वजह से सदियों से तमाम आघातों को सहते हुए भी हमारी सभ्यता और संस्कृति कायम है। स्वाधीनता संग्राम के दौर में डॉ अल्लामा इकबाल ने तो लिखा भी है- 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी।' सवाल है कि फिर ऐसा क्‍यों हो रहा है कि दुनिया में अपनी हस्ती मिटाने पर आमादा लोगों में भारतीयों की तादाद सबसे ज्यादा है।
 
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक यह भी एक चौंकाने वाला तथ्य है कि भारत मे आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की है, यानी जो उम्र उत्साह से भरपूर होने और सपने देखने की होती है उसी उम्र में लोग जीवन से पलायन कर जाते हैं। इस भयानक वास्तविकता की एक बड़ी वजह यह है कि पिछले कुछ दशकों में लोगों की उम्मीदें और अपेक्षाएं तेजी से बढ़ी हैं लेकिन उसके बरक्स अवसर उतने नहीं बढ़े।
 
भारत में आजादी के बाद, खासकर नब्बे के दशक में आर्थिक उदारवाद की बयार शुरू होने के बाद भौतिक तरक्की तो बहुत हुई है, उपभोक्ता संस्कृति भी तेजी से बढ़ी है जिसके चलते विलासिता के साधन भी इफरात में हर तरफ मौजूद हैं, लेकिन समाज का एक बड़ा तबका इन सबसे वंचित है। देश में पिछले दो दशकों की आत्महत्या दर में एक लाख लोगों पर 2.5 फीसदी की वृद्धि हुई है। यही वह दौर रहा है जब हमारे देश ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अलविदा कहते हुए पूरी तरह बाजारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया। इसी दौर में हमारी सरकारों ने शाइनिंग इंडिया और भारत निर्माण जैसे कार्यक्रमों के जरिए देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करते हुए दावे किए कि भारत जल्द ही आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है। और इसी दौर में देश के मुख्तलिफ हिस्सों में सूखे की मार तथा कर्ज के बोझ से दबे लाखों किसानों के आत्महत्या करने का सिलसिला भी शुरू हुआ।
 
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि देश के आईआईटी व आईआईएम जैसे तकनीकी व प्रबंधन के उच्च शिक्षण संस्थानों तक में छात्रों के बीच आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह स्थिति हमारी शासन व्यवस्था के साथ-साथ हमारी समाज व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है और हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर परस्पर प्रेम, स्नेह, संवाद पर आधारित हमारे पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों, आदर्शों और नैतिकता का हमारे जीवन से क्रमशः लोप क्यों होता जा रहा है? 
 
दरअसल, आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति विशुद्ध रूप से एक समाजशास्त्रीय परिघटना है। आज व्यक्ति अपने जीवन की तल्ख सच्चाइयों से मुंह चुरा रहा है और अपने को हताशा और असंतोष से भर रहा है। आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि व्यक्ति में हताशा की शुरुआत तनाव से होती है जो उसे खुदकुशी तक ले जाती है।
 
हैरानी की बात है कि भारत जैसे धार्मिक और आध्यात्मिक रुझान वाले देश में कुल आबादी के लगभग एक तिहाई लोग गंभीर रूप से हताशा की स्थिति में जी रहे हैं, लेकिन डब्ल्यूएचओ का अध्ययन यही हकीकत बयान करता है। बहरहाल, बेहतर तो यह होगा कि सरकार लोगों को आत्महत्या करने के लिए आजाद करने के बजाय आदमी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले आर्थिक-सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की गहराई से पड़ताल करे। साथ ही अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी के तौर पर ऐसे उपाय करे कि लोग अपनी जीवनलीला समाप्त करने का विचार ही दिमाग में न लाएं।