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Written By Author शरद सिंगी

कहानी तुर्की में तानाशाही पर प्रजातंत्र के विजय की

कहानी तुर्की में तानाशाही पर प्रजातंत्र के विजय की - Story of Democracy wins on Dictatorship in  Turkey
इस सप्ताह एक प्रजातांत्रिक नेता के तानाशाह बनने की यात्रा को बीच में विराम लग गया। बात कर रहे हैं हम यहाँ तुर्की के लोकप्रिय और करिश्माई नेता एरडोगन की। एरडोगन सन 2003 से सन 2014 तक तुर्की के प्रधानमंत्री रहे और सन 2014 में राष्ट्रपति के दायित्व को संभाल लिया। प्रधानमंत्री बनने से पहले वे इस्तांबुल शहर के मेयर थे।

उन्होंने इस शहर की ट्रैफिक, पानी, प्रदूषण जैसी अनेक समस्याओं का हल निकालकर इस्तांबुल को एक आधुनिक शहर बनाया। यहीं से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ना शुरू हुआ। इसके बाद तो वे हर चुनाव जीतते चले गए। इनके नेतृत्व में तुर्की ने विकास किया। बिगड़ी अर्थव्यवस्था पटरी पर आई। मुद्रास्फीति पर नियंत्रण हुआ। तुर्की की मुद्रा लीरा का इतना बुरा हाल था कि जब उसे नई मुद्रा में परिवर्तित किया गया तो पुराने दस लाख के नोट को एक लीरा के नोट से बदलना पड़ा था।

एरडोगन के नेतृत्व में तुर्की ने अरब देशों सहित विश्व में अपना एक सम्मानजनक स्थान बनाया। प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक संस्थाओं को शक्तिशाली बनाया। स्थिति यहाँ तक पहुंच गई थी कि तुर्की की यूरोपीय संघ में शामिल होने की दावेदारी मजबूत दिखाई देने लगी थी।

यहीं से आरम्भ हुआ एरडोगन का महत्वाकांक्षी खेल। सत्ता और सफलता के मद में मदहोश इस महारथी ने स्वयं को मसीहा मान लिया और सारे अधिकारों को अपने हाथ में केंद्रित करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका और कार्यपालिका में स्वयं के गुर्गे बैठा दिए। सत्ता की वासना बुद्धि को शापित करती है। एरडोगन ने सैंतीस हज़ार करोड़ का महल अपने लिए बनवाया जो व्हाइट हाउस से बड़ा है। कारण दिया गया कि पुराने ऑफिस में काकरोच बहुत हो चुकी थी।

आरोप यह भी है कि इस महल के शौचालय में स्वर्ण सीट लगाई गई है, यद्यपि एरडोगन इस आरोप को खारिज करते हैं। और तो और पिछले वर्ष एक सोची समझी चाल के तहत वह प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बन गए। राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होते हुए भी यह एक सजावटी और एक प्रतीकात्मक पद है किन्तु एरडोगन प्रधानमंत्री के अधिकारों को अपने हाथों में लेकर सत्ता का केंद्र बन गए।

एरडोगन की महत्वाकांक्षा यहीं समाप्त नहीं होती। संविधान संशोधित कर वे देश में एक पार्टी शासन, संसदीय प्रणाली को समाप्त कर राष्ट्रपति प्रणाली और अमेरिका के राष्ट्रपति की तरह सारे अधिकार अपने हाथों में केंद्रित करना चाहते थे। 1982 से लागू संविधान में इस संशोधन के लिए लिए सदन में दो तिहाई बहुमत की दरकार थी। इसी बहुमत को पाने के लिए एरडोगन ने राष्ट्रपति होते हुए भी पिछले सप्ताह हुए आम चुनावों में मोर्चा संभाल लिया।   

तुर्की दुनिया का अकेला ऐसा मुस्लिम बहुल राष्ट्र है, जिसका संविधान धर्मनिरपेक्ष है। किन्तु इन चुनावों में धर्मनिरपेक्षता की धज्जियाँ उड़ा दी गईं वह भी स्वयं राष्ट्रपति द्वारा। राष्ट्रपति को राजनीति से परे रहना चाहिए किन्तु अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते राष्ट्रपति ने सारे कायदे कानून ताक पर रख दिए। सत्ता पक्ष जो उनका दल है उसके समर्थन में वे खुलकर सामने आ गए और उन्होंने स्वयं चुनावी रैलियां संबोधित कीं। धर्म और धर्मग्रंथ का उपयोग कुर्द अल्पसंख्यकों को डराने के लिए खुले आम राजनीतिक मंच से किया गया।

इस तरह इन चुनावों में एरडोगन से यूरोप सहित सारी दुनिया का भ्रम टूटा। एरडोगन का असली चेहरा दुनिया ने देखा। चुनावों के नतीजे आते ही एरडोगन की महत्वाकांक्षाओं को एक बहुत बड़ा झटका लगा जब एरडोगन समर्थित पार्टी दो तिहाई तो छोड़िए सदन में अपना सामान्य बहुमत भी नहीं पा सकी। एरडोगन के सपने चूर हुए। तुर्की की जनता ने किसी दल को बहुमत नहीं दिया है अतः अब गठबंधन की सरकार बनेगी।

देखना यह है कि एरडोगन की पार्टी जो सबसे बड़ा दल है, किसी विरोधी दल को मनाने में कामयाब होता है और सरकार बना पाता है? सरकार जो भी बने एरडोगन के पर तो कट चुके हैं। विरोधी दल निश्चित रूप से चाहेंगे कि उनके अधिकारों में और कटौती हो जो चुनावों में भी विपक्ष का प्रमुख मुद्दा था। यदि ऐसा होता है तो तुर्की के इतिहास में ये चुनाव एक क्रांतिकारी चुनाव साबित होंगे और तुर्की एक बार फिर प्रजातंत्र की राह पर निकल पड़ेगा।

सत्ता की लालसा में अंधे बने राजनीतिज्ञ जनता की शक्ति को न तो देख पाते हैं और न ही समझ पाते हैं और तब आरंभ होता है उनके पतन का दौर। संसार भर में यह कहानी कई मर्तबा दोहराई गई है और दोहराई जाती रहेगी क्योंकि राजनेता अपनी महत्वाकांक्षाओं और जनता के सपनों में भेद नहीं कर पाते।