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Written By Author शरद सिंगी

अध्यात्म को वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता

अध्यात्म को वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता - Spiritualism, Scientific, Research, Space
आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का यान 'जूनो' पिछले सप्ताह बृहस्पति ग्रह के निकट पहुंच गया। विज्ञान, तत्व ज्ञान की खोज में एक कदम और आगे बढ़ गया। अध्यात्म  का एक पहलू गूढ़ चिंतन है जिसमें तत्वमीमांसा कर तत्वज्ञान अर्जित किया जाता है। अध्यात्म का  दूसरा पहलू विज्ञान है जिसमें अनुसंधानों, तथ्यों एवं प्रयोगों के आधार पर सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है। इस विधा ने अनेक पुराणों में स्थान पाया जिनमें प्रमुख हैं औषधि विज्ञान, खगोल शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, सामुद्रिक, स्थापत्य इत्यादि।
 
आधुनिक युग में जिस तरह वैज्ञानिकों का काम  अनुसन्धान करना और अभियंताओं का काम उन अनुसंधानों का उपयोग कर सृजन करना है उसी प्रकार  प्राचीनकाल में  ऋषियों के भी दो वर्ग थे।  एक वर्ग में अगस्त्य, चरक, विश्वामित्र जैसे अनेक चिंतक एवं साधक ऋषि हुए जो निरन्तर तत्वमीमांसा या अनुसंधान में लगे रहते थे। महर्षि चरक ने औषधियों की खोज की तो महर्षि विश्वामित्र ने उस युग में ऐसे  हथियारों का आविष्कार किया जो आधुनिक हथियारों पर भी भारी हैं। दूसरा वर्ग राजर्षि वशिष्ठ, गुरु द्रोणाचार्य  जैसे ऋषियों का था जो उन अनुसंधानों, उपलब्धियों और चिंतन  को सम्राटों  की राजसभा तक लाते थे। उनकी अनुशंसा पर सम्राट नीतियां बनाते थे और प्रजा उनका  परिपालन करती थी। रणक्षेत्र में नवीन आविष्कृत आयुधों का प्रयोग  होता था।  अंतिम श्रेणी प्रवचनकारों और कथाकारों की होती थी जो कभी कथा  तो कभी प्रवचन के माध्यम से अद्यतन आचार संहिता एवं अर्जित ज्ञान  को जन सामान्य  तक पहुंचाते थे।
 
देवालय तो मात्र प्रवेश द्वार हैं जहां मानव अपनी भौतिक संसार की निजता को त्यागकर अनन्त  के साथ एकाकार होने के मार्ग पर आगे कदम बढ़ा सकता है।  मंदिर की साकार अप्रतिम प्रतिमा,  माध्यम बनती है दर्शनार्थी को विराट अनन्त के साथ जोड़ने की।  आराधक  की पहचान करवाती है उस निर्गुण सत्ता से जिसका वह हिस्सा है, उस अपरिमित  से  जो नक्षत्रों और निहारिकाओं से  परे  कोटि कोटि ब्रह्माण्डों का  विस्तार है। किन्तु यह बोध यात्रा आरम्भ होने से पूर्व ही उपासक  प्रवेश द्वार पर केवल शीश नवाकर लौट जाता  है। 
 
धार्मिक ग्रन्थ भी  उस विराट अलौकिक ब्रह्माण्ड की यात्रा आरम्भ करने की कुंजी मात्र हैं।  धार्मिक ग्रंथों को आपने समझ लिया, उनकी शिक्षाओं पर आचरण भी करने लगे किन्तु आध्यात्मिक यात्रा तो तभी आगे बढ़ेगी  जब उनमें नए अध्याय जोड़ने का काम होगा। विज्ञान के बढ़ते क़दमों का रहस्य यही है कि  हर नया  सोपान चढ़ने  के बाद वहां विश्राम नहीं किया जाता तो फिर आध्यात्मिक यात्रा में ठहराव क्यों? 
 
आधुनिक संसार में योगी कौन है? तप और साधना का अर्थ मात्र जप या ध्यान लगाकर बैठना नहीं है। विज्ञान के अनुसंधानों में लगे हमारे वैज्ञानिक किसी ऋषि से कम नहीं, सृजन में लगे हमारे अभियंता किसी योगी से कम नहीं और न ही अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र अदि विषयों में शोध करने वाले विद्वान किसी मुनि से कम। तप एवं साधना में तल्लीन इन वैज्ञानिकों, अभियंताओं और मनीषियों को नमन जिनका समाज में योगदान कथाकारों या प्रवचनकारों से कहीं अधिक है। 
 
गीता का बार-बार परायण आपके लौकिक एवं पारलौकिक ज्ञान की  नींव को मज़बूत तो करता है किन्तु भवन निर्माण  का कार्य तो स्वयं आरम्भ करना होगा। बिना नव चिंतन, बिना अनुसन्धान एवं  बगैर  शोध के समाज का उत्कर्ष  संभव नहीं। जैसे-जैसे ग्रन्थ पुराने होते जाएंगे उनकी प्रासंगिकता को बनाए रखना धर्मगुरुओं के लिए चुनौतीपूर्ण होता जाएगा। अतः बेहतर तो यही होगा कि धर्मगुरु फिर चाहे वे किसी भी धर्म के हों, चिन्तन की धारा को अवरुद्ध न करें। धार्मिक ग्रन्थ मनुष्य को आचार संहिता में तो बांधते  हैं किन्तु वे चिंतन के स्वातंत्र्य को नहीं बांधते क्योंकि यह मानव स्वभाव के विपरीत है।  
 
मूढ़मति हैं  वे लोग हैं जो धर्म के नाम पर समाज के चिंतन स्वातंत्र्य को अवरोधित करते  हैं क्योंकि समाज के आगे बढ़ने से इनके व्यक्तिगत हितों पर  चोट पहुंचती है। समाज इन लोगों से जितनी शीघ्रता से छुटकारा प्राप्त करेगा, उतनी ही तीव्रता  से नई उपलब्धियां प्राप्त करेगा। हमारे अध्ययन और चिंतन की यात्रा में व्यक्तिगत रूप से हमने  पाया है कि विज्ञान के क्षेत्र  में चिंतन, अनुसन्धान, आविष्कार, शोध और उपलब्धियां जितनी तेजी से आगे बढ़ी हैं, अध्यात्म का वैज्ञानिक पक्ष उसके हमकदम नहीं हो पाया है अथवा सामानांतर नहीं चल पाया है जिसकी  जीवन के उदात्त मूल्यों के लिए आवश्यकता है। इस दिशा में नव ऋषियों के रूप में गम्भीर चिंतन और चिंतकों की आवश्यकता है।
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