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मानवता की सेवा में समर्पित सिस्टर निर्मला

मानवता की सेवा में समर्पित सिस्टर निर्मला - Sister Nirmala
'मदर टेरेसा ने कहा था कि मैं भगवान के हाथ में एक छोटी-सी पैंसिल हूं। भगवान के पास  अनगिनत पैंसिलें हैं। वे एक पैंसिल को तब तक इस्तेमाल करते हैं जब तक वह चलती है। उसके  बाद वह दूसरी पैंसिल उठा लेते हैं, फिर उसके खत्म होने पर अगली। हम ऐसी पैंसिलें हैं जिनसे   भगवान मानव सेवा का इतिहास लिखते हैं।'
वेटिकन में एशिया से पहुंचे बिशप समूह के साथ एक खास धर्मसभा में सम्मिलित होने के लिए  भारत से पहुंचीं सिस्टर निर्मला ने मदर टेरेसा पर ये विचार व्यक्त किए थे।। यह धर्मसभा 1998 में  हुई थी और मदर टेरेसा की सितंबर 1997 में मौत के कुछ महीने पहले इसी साल मार्च में सिस्टर  निर्मला सुपिरियर जनरल ऑफ द मिशनरी ऑफ चैरिटी बन चुकी थीं।

वेटिकन में अपने भाषण के  दौरान मदर टेरेसा के विषय में उनके द्वारा खुद को पैंसिल की संज्ञा देने की बात कही। सारी दुनिया ने सिस्टर निर्मला को पहचानना तब शुरू किया जब सुपीरियर जनरल बनने के छ:  महीने बीतने के बाद वे मदर टेरेसा के अंतिम संस्कार के दौरान प्रार्थना करती नजर आईं और मदर  टेरेसा के शव से कुछ दूरी पर चलती रहीं।

सिस्टर निर्मला के सुपीरियर जनरल के चुनाव के दिन  मदर टेरेसा ने सिस्टर निर्मला के लिए कहा था "अगर भगवान कभी मेरे जैसा कोई छोटा इंसान  खोज सके तो इसका मतलब होगा कि वह मुझसे भी छोटा इंसान खोज सकते हैं।"
 
सिस्टर निर्मला खुद को कभी 'मदर' नहीं कहलवाना चाहती थीं। हमेशा कम और सरल शब्दों का  प्रयोग करने वाली सिस्टर निर्मला के साथ गहरे कारणों में घुसना नामुमकिन था। ऐसा लगता था कि  उन्हें शब्दों की जरूरत ही नहीं थी। अपने शब्दों और भाषा पर संयम से काम लेने वाली सिस्टर  निर्मला के बोलने पर ऐसा लगता था मानो वे इतना भी नहीं बोलना चाहती थीं और अगर चुप रहना  उनके हाथ में हो तो वे कुछ भी न कहें। इतना कम बोलने वाली सिस्टर निर्मला की आवाज में एक  युवा लड़की जैसी ताजगी थी। 
 
सिस्टर निर्मला अपने विषय में बातचीत करना पसंद नहीं करती थीं। अक्सर वे कहती  थीं "यह गैर जरूरी है।" वे याद करती थीं कि किस तरह मदर टेरेसा अपने पास आने वाले पत्रकारों  को कहती थीं "मेरे बारे में मत लिखो बल्कि भगवान के बारे में लिखो और जाकर किसी ऐसे इंसान  की सेवा करो जो दु:ख में है।" 
 
 उनके जन्म पर उन्हें 'कुसुम' नाम दिया गया था। वे एक बहुत अमीर  हिन्दू परिवार की दस संतानों में सबसे बड़ी थीं। उनके पिता सेना में अफसर थे और माता दस  बच्चों, जिनमें आठ लड़कियां और दो लड़के शामिल थे, की परवरिश में व्यस्त रहती थीं। 
 
इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा था - 'मेरे माता-पिता बहुत धार्मिक हिन्दू थे। उनके लिए शादी में  ईमानदारी, प्रार्थना, दया, जरूरतमंदों की मदद, दयालुता और स्वयं पर नियंत्रण बहुत खास थे। अन्य  हिन्दू परिवारों की तरह मेरे परिवार की भी महात्मा गांधी में असीम श्रद्धा थी। बचपन में मैं भगवान  राम, भगवान श्रीकृष्ण और भगवान शिव की प्रार्थना करती थी। बहुत कम उम्र से ही मुझमें गरीबों के  प्रति बहुत प्यार था। सारे हिन्दु भगवानों में मुझे भगवान शिव सबसे प्रिय थे।'
 
सात साल की उम्र में पहली बार उन्होंने ईसा मसीह का नाम सुना। उनके सात साल के होते-होते  उनके माता-पिता ने उन्हें क्रिश्चियन मिशनरी के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिला दिलाया। यहीं पर  उन्होंने पहली बार ईसा मसीह का नाम सुना था। "पहली बार ईसा मसीह की मूर्ति देखकर मैं डर  गईं, लेकिन बाद में स्कूल से लौटते हुए हर दिन उन्होंने उस मूर्ति के पास जाना शुरू कर दिया। इस  समय मैं नौ साल की हो चुकी थी।'  
 
"लॉ कॉलेज में होस्टेल में रहते हुए बेल की आवाज सुनने पर मेरी रूममेट ने घुटनों पर बैठकर  प्रार्थना शुरू की। इसी वक्त ईसा मसीह ने मेरे मन में दस्तक दी। मैं समझ चुकी थी कि वे मेरे लिए  थे। वे बहुत समय से मेरी खोज में थे और आखिरकार उन्होंने मुझे ढूंढ़ ही लिया। मैं सत्रह साल की  थी और ईसा मसीह मुझसे बात करने लगे थे। मैंने ईसा मसीह के विषय में पढ़ना शुरू कर दिया था।'
 
मदर टेरेसा सिस्टर निर्मला के लिए जो दो खास चीजें छोड़कर गईं थीं वे थीं क्रुसिफिक्स (क्रॉस )  और रोजरी (माला)। यही ऐसे दो साधन हैं जिनसे कहीं भी गरीबों की सेवा की जा सकती है। सिस्टर  निर्मला हमेशा अपने साथ कुसिफिक्स और रोजरी लेकर चलती थीं।