शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By Author शरद सिंगी

प्रधानमंत्री की वर्तमान त्रिदेशीय यात्रा के कूटनीतिक पहलू

प्रधानमंत्री की वर्तमान त्रिदेशीय यात्रा के कूटनीतिक पहलू - PM  Modi foreign tour
प्रधानमंत्री की त्रिदेशीय यात्रा प्रारंभ हो चुकी है। चीन और दक्षिण कोरिया की यात्रा तो समझ में आती है, किंतु मंगोलिया की यात्रा के क्या कारण हो सकते हैं? मंगोलिया ऐसा देश है, जहां आज तक भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने यात्रा नहीं की। मंगोलिया से भारत के कोई विशेष ऐतिहासिक संबंध भी नहीं रहे। 
 
मंगोलिया की चर्चा आते ही मंगोल योद्धा सम्राट चंगेज खान का स्मरण हो आता है जिसने अपने साम्राज्य का विस्तार चीन और रूस के कई प्रांतों से लेकर ईरान और इराक तक कर लिया था। भारत पर भी मंगोल सेना ने कई बार आक्रमण किए और लगभग हर बार सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी से हारकर लौटे।
 
यद्यपि मंगोलों ने कश्मीर और पंजाब पर कुछ वर्षों तक राज किया तथा एक समय दिल्ली भी फतह कर ली थी किंतु ज्यादा समय दिल्ली पर पकड़ न रख सके और अलाउद्दीन खिलजी से हारकर लौट गए। तब कुछ मंगोल दिल्ली में ही बस गए थे। कहते हैं कि एक ही दिन में 20 से 30 हजार मंगोलों को अलाउद्दीन खिलजी ने मौत के घाट उतरवा दिया था, क्योंकि उसको डर था कि ये लोग तख्ता पलटने की साजिश में साथ दे सकते हैं। 
 
इस प्रकार मंगोलिया के साथ भारत का इतिहास रक्तरंजित रहा है, दूसरी ओर यह देश न तो आर्थिक रूप से शक्तिशाली है और न ही तकनीकी तौर पर। हां, वहां यूरेनियम की खदानें जरूर हैं, किंतु यूरेनियम खरीदने तो प्रधानमंत्री जाने वाले नहीं, क्योंकि आने वाले वर्षों की खपत के लिए भारत ने पहले ही इंतजाम कर लिए हैं।
 
तो फिर इस यात्रा का क्या रहस्य है? इस पर दिमाग लगाने से पहले मंगोलिया की भौगोलिक स्थिति को समझते हैं। इस देश के उत्तर में रूस और दक्षिण में चीन है। पहले चंगेज खान के शासन में मंगोलों ने चीन के कई प्रांतों को जीता। मंगोलों के आक्रमण से बचने के लिए चीन की प्रसिद्ध दीवार का निर्माण हुआ।
 
चंगेज खान का साम्राज्य ध्वस्त होने के बाद में चीन ने भी कई वर्षों तक मंगोलिया पर शासन किया। अंत में रूसी सेना की मदद से मंगोलिया, चीनी सेना को खदेड़ने में सफल हुआ और आजाद हुआ। पिछली शताब्दी में धीरे-धीरे मंगोलिया के चीन से संबंध सामान्य हुए और आपसी व्यापार बढ़ा। 
 
आज मंगोलिया, चीन पर पूरी तरह निर्भर हो चुका है ठीक उसी तरह जिस तरह नेपाल, भारत पर निर्भर है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से कुछ प्रश्न उठते हैं। जैसे भारत पर आश्रित नेपाल में जिस तरह चीन ने सेंध लगाई उसी तरह क्या भारत भी चीन पर आश्रित मंगोलिया में सेंध लगाने की तैयारी कर रहा है? क्या भारत, चीन के दूसरी ओर यानी उत्तर में भी अपनी मौजूदगी चाहता है? क्या भारत कोई बड़ा कूटनीतिक खेल, खेल रहा है? बादशाह की चाल पर बेगम चलकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। बादशाह की चाल पर तो इक्का ही चलना होता है।
 
अभी तक जब-जब भी चीन के शीर्ष नेता भारत की यात्रा पर आए, तब-तब उन्होंने उस दौरे में पाकिस्तान को भी शामिल किया है। केवल पिछली यात्रा को छोड़ दें तो क्योंकि तब पाकिस्तान के नाजुक हालातों की वजह से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को पाकिस्तान का दौरा निरस्त करना पड़ा था। ऐसा भारत पर दबाव बढ़ाने के लिए किया जाता रहा है। 
 
अमेरिका भी 2 वर्षों के पूर्व तक यही करता रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति या विदेश सचिव अपने दौरों में भारत के साथ पाकिस्तान को भी शामिल करते रहे हैं ताकि दोनों से रिश्तों में संतुलन बनाए रखा जा सके। 
 
दूसरी ओर आजकल निवेश की कूटनीति का दौर चल रहा हैं। गरीब देशों में निवेश करने से अंतरराष्ट्रीय मंच पर आपका दबदबा बढ़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ में वोट बढ़ते हैं। वर्तमान में चीन के पास विदेशी मुद्रा के भंडार हैं और इस समय वह इस कूटनीतिक निवेश के लिए राष्ट्र ढूंढ रहा है।
 
देखना यह है कि क्या भारत भी मंगोलिया में कूटनीतिक निवेश करता है? क्या वह उसके रक्षा विभाग से कोई समझौता करता है? निवेश का दूसरा कारण अविश्वास है। यदि आक्रामक देश से बड़ी मात्रा में निवेश करवा लिया जाए तो फिर वह अपने हितों के विरुद्ध कोई गलत कदम नहीं उठाएगा। मोदीजी की कूटनीति संभवतः यही है कि चीन से भारत में अधिक अधिक निवेश करवाया जाए। 
 
प्रधानमंत्री मंगोलिया की यात्रा के साथ सैमसंग, एलजी, हुंडई, देवू के देश दक्षिण कोरिया भी जा रहे हैं। उत्तरी कोरिया, दक्षिण कोरिया का दुश्मन है और चीन, उत्तरी कोरिया का संरक्षक। जाहिर है दक्षिण कोरिया और चीन के संबंध अंदर से तनावभरे हैं, भले ही चीन दक्षिण कोरिया को फुसलाने की कोशिश में लगा है। 
 
ऐसे में प्रधानमंत्री का चीन की यात्रा के साथ दक्षिण कोरिया और मंगोलिया को जोड़ना क्या चीन पर दबाव बनाने की कूटनीति है? यही नहीं, भारत ने जिस तरह जापान, अमेरिका और चीन के पड़ोसी देशों के साथ मित्रता बढ़ाने का सिलसिला शुरू किया है उससे चीन निश्चित ही सावधान हुआ होगा। जो काम महाशक्तियां वर्षों से कर रही हैं अब उन महाशक्तियों को वही दवा पिलाने की क्या भारत की बारी है?