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Last Modified: गुरुवार, 11 सितम्बर 2014 (11:40 IST)

क्या योजना आयोग के बंद होने से खुलेंगे नए रास्ते?

क्या योजना आयोग के बंद होने से खुलेंगे नए रास्ते? - Planning Commission
-सचिन कुमार जैन
बहुत प्रचारित हुआ कि भारत सरकार योजना आयोग को बंद कर रही है। अब नया ढांचा बनाया जाएगा। इसमें यह भी प्रचारित किया गया कि आम लोगों से सुझाव और सलाह ली जाएगी। सुझाव देने के लिए प्रधानमंत्री की वेबसाइट का पता दे दिया गया। मैंने इसे गंभीरता से लिया और उस पते पर पहुंच गया। वहां जाकर धोखा हो गया। प्रधानमंत्रीजी पूछ रहे हैं कि नए ढांचे का नाम और उस संस्था की टैग लाइन क्या हो। उन्हें यह नहीं जानना है कि नई योजना संस्था का काम क्या हो, वह किसके प्रति जवाबदेह हो, उसका स्वरूप क्या हो, वह लोगों और स्थानीय निकायों के साथ कैसे जुड़े आदि। 
 
भारत में योजना आयोग की उम्र 64 साल हो गई है और अब उस ढांचे को सेवानिवृत्ति दी जाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। इस संस्था का गठन मार्च 1950 में यह मानते हुए किया गया था कि योजना आयोग देश में उपलब्ध संसाधनों के बेहतर नियोजन, समान आर्थिक और मानव विकास के साथ-साथ दीर्घकालीन प्रभाव रखने वाली नीतियों के निर्माण में दिशा-निर्देशक की भूमिका निभाएगा। भारत में नई केंद्र सरकार बनने के बाद से और खासकर स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए भाषण के बाद से यह चर्चा चल रही है कि क्या वास्तव में योजना आयोग अपना महत्व खो चुका है? क्या इसके वजूद को खत्म किया जाना ही एकमात्र विकल्प है? क्या इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है? यदि आयोग खत्म होता है तो पंचवर्षीय योजनाएं कौन बनाएगा? इन सवालों के बीच यह सवाल भी कहीं छिपा बैठा है कि क्या नई नीतियों-योजनाओं के निर्माण और आयोजना (प्लान) व्यय के लिए संसाधनों के आवंटन का काम प्रधानमंत्री और ज्यादा केंद्रीयकृत करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? 
 
वास्तव में वर्ष 1938 में, जब सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष थे, तब उन्होंने कहा था कि स्वतंत्रता हासिल होने पर देश के समग्र विकास के लिए राष्ट्रीय योजना आयोग बनाया जाएगा। इसके बाद नेहरूजी ने नियोजन की प्रक्रिया में समाजवादी विचारधारा के तत्व लाने के मकसद से इस आयोग का 1950 में गठन किया। निःसंदेह उस वक्त यह आयोग देश के विकास को एक रूप देने के लिए बहुत जरूरी संस्था थी। 1970 के आसपास तक योजना आयोग द्वारा बनाई गई योजनाओं पर अकादमिक और जनप्रतिनिधित्व वाली संस्थाओं में महत्वपूर्ण चर्चाएं होती रहीं, पर बाद में आयोग विद्वान तकनीकशाहों-नौकरशाहों-समाजशाहों का ऐसा अड्डा बनता गया, जो अपने ज्ञान और प्रभावशाली समूहों के हितों में योजनाएं बनाते नजर आए। वर्ष 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे 'मसखरों का समूह' की संज्ञा दी थी। हालांकि भारत के पहले वित्तमंत्री जान मथाई ने ही इसे 'सर्वोच्च कैबिनेट' की संज्ञा दे दी थी। कुछ कारण तो रहे हैं जिनसे यह बात स्थापित होती है कि देश के विकास के नाम पर योजनाएं बनाते हुए योजना आयोग ने भारत की संवैधानिक संस्थाओं और संघीय ढांचे को कमजोर किया।
 
पहला- संविधान की सातवीं अनुसूची में सामाजिक और आर्थिक विकास के जुड़े पहलुओं पर योजना बनाने और संसाधनों के उपयोग की रूपरेखा तय करने के अधिकार राज्य सरकारों के पास हैं, पर योजना आयोग के जरिए केंद्र सरकार ने उस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है। वास्तव में केंद्र सरकार से राज्यों को मिलने वाले संसाधन कोई दान-खाते से नहीं आते हैं, वे राज्य के ही संसाधन होते हैं; परंतु योजना आयोग केंद्रीय शर्तों और नियमों के साथ जोड़कर उनका आवंटन करने लगा। इससे राज्य सरकारें अपनी जरूरत के मुताबिक न तो योजनाएं बना पाईं, न संसाधनों का उपयोग।
 
दूसरा- भारत में पिछले 3 दशकों से विकेंद्रीकृत नियोजन के दावे किए जाते रहे, परंतु योजना आयोग ने कभी भी नगरीय और ग्रामीण निकायों को अपनी जरूरत और सपने के मुताबिक काम करने का मौका नहीं दिया। उसने ग्रामीण विकास मंत्रालय को निर्देशात्मक रूप से समझा दिया कि वह किस तरह मनरेगा या स्वच्छता की योजना बनाए और राज्यों को कहा कि वह केंद्र सरकार के दिशा- निर्देशों का पालन करे। परिणाम यह हुआ कि तेज आर्थिक विकास के बावजूद हम विकेंद्रीकृत नियोजन के मामले में बहुत बुनियादी क्षमताएं विकसित नहीं कर पाए, क्योंकि समुदाय और निकायों को गलती करने और सीखने के मौके ही नहीं दिए गए।
 
तीसरा- योजना आयोग ने आर्थिक विकास को ही मानव विकास की आत्मा मान लिया। पंचवर्षीय और वार्षिक योजनाओं में यह मंतव्य कभी दिखाई नहीं दिया कि यदि हम समाज में बदलाव लाएंगे तो आर्थिक विकास ज्यादा मजबूत और स्थायी होगा। इसके उलट योजना आयोग ने संसाधनों पर से सामुदायिक हकों को सीमित करने की नीति को रूप दिया। 1990 के दशक से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण, खुली अर्थव्यवस्था और निजीकरण के दौर को आगे ले जाने के मकसद से नीतियां बनाने का काम इसी संस्था से शुरू हुआ। योजना आयोग ने इस बात को हमेशा छिपाने की कोशिश की कि इस तरह का आर्थिक विकास देश में असमानता और गरीबी को बढ़ाएगा। 
 
चौथा- नियोजन में सहभागिता को सीमित करना। मूल व्यवस्था यह रही है कि राष्ट्रीय विकास परिषद, जिसमें सभी केंद्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल होते हैं, ही देश की पंचवर्षीय योजना पर चर्चा करेगी और उसे अंतिम सहमति देगी, परंतु पिछले एक दशक में योजना आयोग का रुतबा जितना बढ़ता गया, राष्ट्रीय विकास परिषद का महत्व उतना ही हम होता गया। 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए तो केवल औपचारिकतावश सहमति ली गई। 
 
पांचवां- इतनी विद्वान संस्था होने के बावजूद, योजना आयोग विभागों-मंत्रालयों के बीच समन्वय के तंत्र नहीं बनवा पाया। कृषि क्षेत्र को ही लीजिए; इसका जुड़ाव 8 मंत्रालयों- उर्वरक और रसायन मंत्रालय, जल संसाधन मंत्रालय, खाद्य और पीडीएस मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय, श्रम और रोजगार मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय और सांख्यिकीय एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के साथ है, पर कोई एकीकृत ढांचा नहीं बन पाया जिससे समन्वित कार्यक्रम बने और क्रियान्वयन हो। बच्चों में कुपोषण के सामने ऐसी बड़ी सामाजिक-आर्थिक चुनौती है जिससे महिला और बाल विकास मंत्रालय और लोक स्वास्थ्य मंत्रालय मिलकर ही निपट सकते हैं, पर योजना आयोग ने इन्हें एकजुट करने और जवाबदेह बनाने के बजाए खुद को एक मध्यस्थ के रूप में स्थापित करने का काम किया। 
 
छठवां- योजना आयोग ने ही अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को हमारे तंत्र में इतने भीतर तक प्रवेश करा दिया कि वे संस्थाएं देश में सार्थक और सामाजिक विकास के बनने वाली लगभग नीति और योजना में निर्णायक भूमिका निभाने लगी। इससे आयोग द्वारा बनाई जाने वाली योजनाएं संदर्भहीन नजर आने लगी, जैसे पानी की समस्या को नजरंदाज करते हुए शौचालय बनाने का कार्यक्रम। आयोग के ही पूर्व सदस्य अरुण मायरा कहते हैं कि जिस तरह से गरीबी की रेखा परिभाषित की गई, उसके मुताबिक आयोग का काम लोगों को यह झूठा अहसास कराते रहना हो गया था कि तुम बहुत बेहतर अवस्था में हो।
 
हम जानते हैं कि आर्थिक-सामाजिक बदलाव के लिए सोची-समझी नीतियों और नियोजन की जरूरत बहुत अहम है। अब जबकि नरेन्द्र मोदी यह तय कर चुके हैं कि योजना आयोग को खत्म करते हुए एक नई व्यवस्था या कोई नया ढांचा खड़ा किया जाएगा। कुछ और तो नहीं पता, पर यह तय है कि उस संस्था को आर्थिक संसाधनों के आवंटन के अधिकार नहीं होंगे और संघीय व्यवस्था के तहत राज्यों को स्वायत्तता होगी कि वे अपने विकास की रूपरेखा गढ़ सकें। माना जा रहा है कि अब प्रधानमंत्री का एक सलाहकार समूह होगा, जो सलाह देने का काम करेगा। मौजूदा योजना आयोग के स्थान पर प्रधानमंत्री के अधीन एक बंद समूह का गठन किया जाना एक घातक कदम होगा। जिस तरह से राजस्थान की मुख्यमंत्री ने राज्य योजना आयोग को खत्म करके अपने अधीन एक सलाहकार समूह बना लिया है, वह एक जवाबदेह व्यवस्था नहीं है। यह सही है कि आयोग के स्थान पर जो भी संस्था बने, वह अकादमिक-व्यावहारिक-प्रयोगशील परिपक्व विशेषज्ञों का एक समूह होगा, परंतु वह किसी एक धार्मिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विचारधारा के प्रतिनिधियों का समूह नहीं होना चाहिए।
 
इन संदर्भों में उन्हें (प्रधानमंत्री को) को कुछ बाते स्पष्ट करना होंगी-
 
एक- योजना आयोग ने देश में विकेंद्रीकृत नियोजन को सुनियोजित ढंग से चुनौती दी, कुछ भी हो, अब ध्यान विकेंद्रीकृत नियोजन पर होना चाहिए। संघीय ढांचे को केवल केंद्र-राज्य संबंध तक न मानें, इसका सही मतलब है केंद्र-राज्य-पंचायत-ग्रामसभा।
 
दो- नियोजन की प्रक्रिया समुदाय से शुरू हो और राज्य स्तर की नियोजन संस्था, उसके आधार पर विकास और बदलाव की योजना बनाए। राज्यों की योजना के आधार पर केंद्र की विकास योजना बने। 
 
तीन- राज्य के स्तर पर बनने वाली विकास योजना पर राज्य विकास परिषद में और फिर विधानसभा चर्चा हो। इसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय विकास परिषद में और फिर संसद में चर्चा हो। विधानसभाओं और संसद को अधिकतम निर्णायक भूमिका मिलना चाहिए।
 
चार- जिस तरह से पूंजी राज्य की नीतियों को प्रभावित कर रही है, उस संदर्भ में नई संस्था के गठन वक्तव्य में यह स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि उसके निर्णय और काम खुली अर्थव्यवस्था के तत्वों के अधीन न होकर भारत के लोगों और संसद के प्रभुत्व के अधीन होंगे।
 
पांच- देश और राज्य के मसलों पर जानकारियों-आंकड़ों को इकट्ठा करने, उन्हें लोगों के सामने लाने और सरकार के कामों का मूल्यांकन करने के लिए एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था का अलग से निर्माण होना चाहिए जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री भी न करें। यह संस्था नियंत्रक-महालेखा परीक्षक की तरह सीधे संसद और विधानसभा के प्रति उत्तरदायी हो। 
 
आखिर में मन में बस एक ही सवाल बचता है कि योजना आयोग को खत्म करने की पहल स्वतंत्र भारत के इतिहास पर नेहरू-समाजवादी असर को खत्म करने के मकसद से की जा रही है या अपनी कार्य शैली के मुताबिक प्रधानमंत्री व्यवस्था पर एक व्यक्ति नियंत्रण की दिशा में बढ़ रहे हैं या वास्तव में योजना आयोग के जरिए विकास की नीतियों के निर्माण की केंद्रीयकृत व्यवस्था को बदलने की पहल है ये!