शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By Author विभूति शर्मा

हंगामे की राजनीति से देश खफा...

हंगामे की राजनीति से देश खफा... - parliament of india
संसद का यह मानसून सत्र आखिर मच मच के साथ समाप्त हो गया। पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। अंतिम दिनों में जिस प्रकार कांग्रेस ने चर्चा की थोड़ी खिड़की खोली यदि वही सत्र के प्रारंभ में खोल दी होती तो शायद कोई रास्ता निकल आता और देश का इतना अमू्ल्य समय और पैसा बर्बाद नहीं होता। यहां शायद इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि अड़ियल रवैया अपनाए जाने पर कहीं कोई रास्ता नहीं रह जाता।
 
कांग्रेस ने आखिरी दिन तक यही अड़ियल रवैया अपनाए रखा। वह सुषमा स्वराज, शिवराजसिंह चौहान और वसुंधरा राजे के इस्तीफे की मांग पर अड़ी रही, जबकि सरकार और भाजपा इस मामले में किसी भी रूप में तैयार नहीं थी। पिछले कुछ दशकों की राजनीति में इस तरह की कोई नजीर किसी भी पार्टी की ओर से पेश नहीं की गई। न तो कांग्रेस, न ही भाजपा या किसी अन्य दल ने, विरोधी पार्टी की मांग पर कोई इस्तीफा नहीं दिया है। अदालत के आदेश पर इस्तीफे होना अलग बात है। इसलिए आज की राजनीति के दौर में इस्तीफा मांगना भी काम को नहीं होने देने का एक कारण माना जाना चाहिए। कांग्रेस ने यही किया है।
 
सत्र समाप्ति के एक दिन पहले जो तू-तू मैं-मैं संसद में हुई उसे पूरे देश ने देखा और एक बार फिर हमारे सांसदों के व्यवहार को लेकर अफसोस ही जाहिर किया। चाहे सोनिया या राहुल गांधी हों या फिर भाजपा की सुषमा स्वराज या अरुण जेटली, सभी ने राजनीतिक बहस को निचले स्तर तक ले जाने की पूरी कोशिश की। व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप हमारे नेताओं की पहचान बन गए हैं।
 
जब कांग्रेस और भाजपा के नेता संसद के अंदर के हंगामे के पतन को संसद के बाहर सड़कों या महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने आकर जनता के सामने सफाई देने की कोशिश करते हैं तो बड़ा ही हास्यास्पद सा लगता है। नैतिकता की राजनीति तो अब जैसे दूर की कौड़ी हो गई है। बेहतर होगा कि राजनेता इस सत्र से कोई सबक लें और आगे ऐसा न करने की शपथ लें। वे तभी बापू के सामने कोई मुंह दिखाने लायक होंगे। 
 
ऐसा नहीं है कि यही सत्र हंगामे की भेंट चढ़ा है, इसके पहले भी अनेक सत्र हंगामे के गवाह रहे हैं। लेकिन इस बार जब स्पीकर तक को यह कहना पड़ा कि इतने निम्न स्तर का हंगामा हो रहा है कि देश की जनता देखेगी तो क्या सोचेगी। और यह कहते हुए उन्होंने अगले दिन का हंगामा जनता को लाइव दिखाने तक की घोषणा कर दी। इसी को देखकर जनता अपने जनप्रतिनिधियों के नाम पर थू-थू करने को आतुर हुई।
   
देश में जबसे राजनीति भटककर मुद्दों के बजाय विरोध की राजनीति बनी है, तबसे संसद या विधानसभाओं में सुचारू काम का संचालन दिखना लगभग दूभर हो गया है। हमारी युवा पीढ़ी ने तो शायद ही कभी विधायिकाओं को सभ्य और सुसंस्कृत तरीके से चलते देखा हो! इसीलिए उसके दिल में हमारी इन संवैधानिक संस्थाओं और इनके सदस्यों के प्रति सम्मान नहीं है। वह अपनी दैनंदिन प्रक्रियाओं में व्यस्त है। युवा पीढ़ी की दिलचस्पी भी राजनीति में नहीं दिखाई देती। सम्मान खोने के लिए सिर्फ और सिर्फ हमारे आज के दौर के नेता हैं।  
 
नेतागण शायद हंगामे के लिए मुद्दे का इंतजार ही करते हैं। प्रत्येक सत्र के पहले उन्हें कोई न कोई मुद्दा मिल भी जाता है। इस बार का मुद्दा रहा ललित मोदी। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने आरोप लगाया कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने आईपीएल फिक्सिंग मामले में देश के भगोड़े घोषित ललित मोदी को ब्रिटेन में मदद का गुनाह किया है। 
 
इस मामले ने कितना तूल पकड़ा इसका अंदाज देश की शीर्षस्थ विपक्षी नेता सोनिया गांधी के उस बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने सुषमा स्वराज को नाटकबाज तक कह दिया। उनके पुत्र राहुल गांधी ने तो और भी गंभीर आरोप मढ़ा है। राहुल का कहना है कि सुषमा जी को बताना चाहिए कि ललित मोदी ने खुद को देश से निकलवाने के लिए उनके परिवार को कितना पैसा दिया। शीर्ष नेताओं की इस तरह की बयानबाजी को उचित नहीं माना जा सकता। राजनीति में सैद्धांतिक विरोध जायज है, लेकिन छीछालेदर की राजनीति को किसी भी रूप में जायज नहीं माना जा सकता और हमारे देश में आज का दौर छीछालेदर की राजनीति का ही हो गया है।
 
किसी भी मुद्दे पर तिल का ताड़ बनाना राजनीति में बहुत ही सामान्य खेल हो गया है। जब संप्रग की सरकार थी तो यही राजग (भाजपा) वाले हर छोटे से घटनाक्रम को मुद्दा बनाकर विरोध शुरू कर देते थे। आज वही काम विपक्ष में पहुंचने के बाद संप्रग (कांग्रेस) वाले कर रहे हैं। ताजा मामला है विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा ब्रिटेन में पड़ाव डाले ललित मोदी को वीजा दिलाने में मदद करने का। ये वही मोदी हैं, जिन्हें आईपीएल (20-20 क्रिकेट का टूर्नामेंट) को पैसा बरसाने वाला टूर्नामेंट बनाने का श्रेय दिया जाता है। इन्होंने पैसा बरसाया लेकिन येन केन प्रकारेण अपनी झोली भी खूब भरी।
 
मोदी आईपीएल सट्टेबाजी मामले में भारत में वांटेड हैं। झोली भरने के घोटाले के कारण ही वे देश से बाहर पड़ाव डाले हैं, क्योंकि देश में उनके खिलाफ अदालत में केस चल रहा है और उनका तर्क है कि देश में उन्हें विरोधियों से जान का खतरा है। ललित मोदी की पत्नी का कैंसर का इलाज पुर्तगाल में होना है और उन्हें   ब्रिटेन से वीजा की जरूरत है, लेकिन भारत की तत्कालीन संप्रग सरकार की मनाही के कारण यह प्रतिबंधित है।
 
संप्रग सरकार का कहना था कि ललित मोदी को दस्तावेज देने पर दोनों देशों के संबंध खराब हो सकते हैं। मोदी ने अब पत्नी के इलाज के नाम पर सुषमा स्वराज से मदद की गुहार लगाई। सुषमा ने मदद की और भारतवंशी सांसद कीथ वाज व ब्रिटिश उच्चायुक्त से बात की, जिसके आधार ललित मोदी को वांछित दस्तावेज मिल गए। सुषमा स्वराज यहीं उलझ गर्इं, क्योंकि ब्रिटेन की संसद इस मामले की जांच करा रही है कि कीथ वाज ने सांसदों की आचार संहिता का उल्लंघन तो नहीं किया।
 
सुषमा का तर्क है कि हाईकोर्ट ने ललित मोदी का पासपोर्ट अगस्त 2014 में बहाल कर दिया है, जिसे मार्च 2011 रद्द किया गया था। सुषमा के अनुसार उन्होंने तो मानवीय आधार पर मदद की है, लेकिन विपक्ष के हाथ तो नया मुद्दा आया है। उसका कहना है कि क्या मानवीय आधार पर वे दाऊद की मदद भी करेंगी। इस मुद्दे पर विपक्ष जोर शोर से सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग उठा रहा है, जबकि सरकार पूरी तरह से सुषमा के साथ है।
 
तर्क-वितर्क के बीच सवाल यह है कि सुषमा ने सही किया या गलत? क्या ललित मोदी के मामले की तुलना दाऊद के मामले से की जा सकती है, जैसा कि कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला कर रहे हैं? अब देखना यह है कि मुद्दा कितना आगे जाता है और नेता इसे किस हद तक भुनाते हैं! क्या संसद का आगामी मानसून सत्र इस मुद्दे की भेंट चढ़ेगा और सांसद विराध की राजनीति करते हुए जनता का पैसा बर्बाद करेंगे। काश ऐसा न हो।