मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
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Written By Author अनिल जैन

इस पाबंदी से क्या हासिल होगा?

इस पाबंदी से क्या हासिल होगा? - Nirbya documentary
पिछले दिनों संसद में पक्ष-विपक्ष के सदस्यों की आपत्तियों और हंगामे के बाद केन्द्र सरकार द्वारा ब्रिटिश फिल्म निर्मात्री लेस्ली उडविन द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री 'इंडियाज डॉटर' पर पाबंदी लगा दी गई। 
यह डॉक्यूमेंट्री 16 दिसम्बर 2012 की रात दक्षिण दिल्ली में 23 वर्षीया पैरा मेडिकल छात्रा, जिसे निर्भया नाम दिया गया, के साथ चलती बस में हुए वीभत्स और बर्बर सामूहिक बलात्कार के खिलाफ हुए व्यापक जनान्दोलन और घटना के बाद चली कानूनी प्रक्रिया आदि पर केंद्रित है। फिल्म में बलात्कार के आरोप में दोषी ठहराए गए मुजरिमों के अलावा अदालत में उनकी पैरवी करने वाले उनके वकीलों से भी साक्षात्कार लिया गया है। फिल्म पर विभिन्न दलों के नेताओं की आपत्तियां तो हास्यास्पद रही ही, सरकार ने भी आनन-फानन में उस पर पाबंदी लगाकर जिस तरह की प्रतिक्रिया जताई, वह बेहद निराश करने वाली रही।
 
गृहमंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने फिल्म को भारत को बदनाम करने और देश की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाला बताया। करीब-करीब यही स्वर अन्य दलों के नेताओं का भी रहा। महिलाओं के खिलाफ तमाम आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी पर हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधि शायद ही कभी इतने विचलित होते हों, लेकिन एक त्रासद घटना पर बनी फिल्म को देश और समाज के लिए नुकसानदेह करार देने के लिए उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया। 
 
सांसदों को इस बात पर अधिक आपत्ति थी कि फिल्म में मुजरिमों ने तथा उनके वकीलों ने नारी विरोधी वक्तव्य दिए हैं। कई लोगों ने मुजरिम के साक्षात्कार के लिए दी गई इजाजत की प्रक्रिया पर सवाल उठाए। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि हमारे यहां महिलाएं देवी स्वरूप होकर कभी देश की प्रतिष्ठा होती है और कभी परिवार की नाक जिनका ख्‍याल इसलिए करना पड़ता है कि देश की इज्जत बनी रहे और परिवार की नाक ऊंची रहे। उनकी व्यक्तिगत आजादी तथा संवैधानिक अधिकारों पर कभी बात नहीं होती।
 
केंद्र सरकार ने भी फिल्म पर पर पाबंदी लगाकर शायद यही बताना चाहा कि महिलाओं को लेकर वह कितनी गंभीर और संवेदनशील है। संसद तथा मीडिया में उसकी तरफ से यही बताया गया कि वह महिलाओं की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ नहीं होने देगी तथा सजायाफ्ता आरोपी के विचारों को लोगों के सामने आने नहीं दिया जाएगा। संसद के दोनों सदनों में विभिन्न दलों की महिला सांसदों की प्रतिक्रिया भी दूसरे सांसदों और केंद्र सरकार के मंत्रियों से अलग नहीं रही। उन्होंने भी इसे देश की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ बताया। 
 
अलबत्ता इस सबके बरक्स राज्यसभा में जावेद अख्तर ने जरूर सटीक सवाल खड़ा किया। उन्होंने पूछा कि क्या यह सच नहीं है कि निर्भया मामले में एक सजायाफ्ता की जिस बात पर आपत्ति जाहिर करते हुए इस फिल्म पर पाबंदी की मांग की जा रही है, उस तरह की बातें हम और कई लोगों के मुंह से सुनते रहते हैं और संसद तक में सुन चुके हैं। उन्होंने सवाल किया कि स्त्रियों के प्रति मानसिकता के सवाल को उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में क्यों नहीं देखा जाता? दरअसल, इस फिल्म में एक अपराधी के बयान से उसकी आपराधिक मानसिक बनावट को सामने लाने की कोशिश की गई है, लिहाजा इसे संबंधित अपराध को महिमामंडित करने वाला कैसे कहा जा सकता है? 
  
फिल्म के प्रसारण को लेकर कुछ तकनीकी तथा प्रक्रियागत खानापूर्ति के सवाल उठाए गए। मसलन कि जेल प्रशासन ने फिल्ममेकर को अन्दर जाने की अनुमति कैसे दी, पीड़िता के परिजनों का क्या कहना है, पुलिस को क्या करना चाहिए था आदि-आदि। यह भी कहा गया है कि देश को बदनाम करने के लिए फिल्म निर्मात्री लेस्ली उडविन के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी किया जाना चाहिए था जिससे वे भारत से वापस नहीं जा पातीं। जबकि लेस्ली उडविन का कहना है कि उन्होंने सभी इंटरव्यू कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए लिए हैं। 
 
उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने बीबीसी को डॉक्यूमेंट्री जारी करने के खिलाफ नोटिस भेजा है जबकि बीबीसी ने कहा है कि वह एक स्वायत्त संस्था है तथा फिल्म जारी करना उसके अधिकार क्षेत्र में आता है। हालांकि यू ट्‌यूब तथा कुछ अन्य सोशल साइटस से उपरोक्त डॉक्यूमेंट्री को हटवाने या ब्लॉक करने में भारत सरकार सफल रही है, लेकिन इंटरनेट के जमाने में आज की तारीख में किसी के लिए भी उस फिल्म को हासिल करना मुश्किल नहीं होगा। इसमें मुख्य तौर पर वंचित वही लोग होंगे जिनके पास इंटरनेट की सुविधा नहीं होगी।
 
कहने का आशय यह है कि इस फिल्म के जरिए स्त्री के प्रति पुरुष की आपराधिक मानसिकता को लेकर समाज में व्यापक पैमाने पर बहस खड़ी होने की जो संभावना थी, फिल्म पर पांबदी लगाकर उस संभावना को खत्म कर दिया गया। मुख्य विवाद इस बात को लेकर है कि उसमें बलात्कारी मुकेश सिंह का इंटरव्यू शामिल है, जिसमें उसने महिलाओं के खिलाफ आपत्तिजनक बातें कही हैं। सवाल है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपने द्वारा अंजाम दिए गए अपराध पर कोई ग्लानि नहीं है, उससे हम किसी अन्य बात की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। 
 
अगर हम तिहाड़ जेल में बंद बलात्कार के लगभग 14000 आरोपियों या विचाराधीन कैदियों को देखें तो अधिकतर को अपने किए पर कोई पछतावा होता नहीं दिखता। बताया जाता है कि उनमें से अधिकांश तो सीना तानकर जेल में रहते हैं तथा दूसरे कैदियों पर रौब भी जमाते हैं। बेशक कुछ को जरूर अफसोस है तथा कुछ का यह भी कहना है कि उन्हें गलत फंसाया गया है, लेकिन अधिकतर यही कहते हैं कि लड़की ही ऐसी थी। यही नहीं, आरोपी पक्ष के वकीलों के मुंह से भी स्त्रीद्रोही बातें सुनाई देती हैं। लेस्ली उडविन की बनाई डॉक्यूमेंट्री में निर्भया कांड के आरोपियों के वकील एपी सिंह तो यह भी कहते दिखे कि अगर उनकी लड़की इस तरह रात के वक्त टहलने निकलती तो वह उसे जिंदा जला देते।
  
दरअसल, अपराध को अंजाम देने वालों की मानसिकता पर खुलकर बात करने के साथ ही यह स्वीकार करना जरूरी है कि ऐसी मानसिकता वाले सिर्फ वे ही नहीं हैं, जो अपराध को अंजाम देने में सफल रहे तथा पकड़े गए। जो बाते मुकेश सिंह ने अपने इंटरव्‍यू के माध्यम से कही है, वह तो हमारे समाज में अक्सर ही सुनाई देती हैं और महिलाएं उससे कई गुना अधिक अपमानित करने वाली बातें रोज झेलती हैं, जो कहीं मुद्दा नहीं बन पातीं। 
 
आम आदमी ही नहीं, कभी-कभी तो कथित रूप से सम्मानित-प्रतिष्ठित कोई बाबा और संत भी यही कहते मिल जाता है। आसाराम बापू जो खुद इन दिनों यौन अत्याचार के आरोप में सलाखों के पीछे हैं, ने निर्भया कांड के बाद यही कहा था कि अगर पीड़िता बलात्कारियों के सामने हाथ जोड़कर मिन्नत करती और उन्हें अपना भाई कह देती तो उसके साथ जो हुआ, वह शायद नहीं होता। स्त्रियों के परिधान तथा रात में बाहर निकलने को यौन हिंसा का बड़ा कारण मानने वाले और उन्हें कथित मर्यादा की लक्ष्मण रेखा न लांघने की नसीहत देने वाले लोग भी समाज में बड़ी संख्या में हैं, जिनमें कई तो सत्ता के उच्च पदों पर भी बैठे हैं।
 
विचित्र है कि एक तरफ हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हैं, वहीं ऐसे दस्तावेज को रोकने की मांग करते हैं, जो सच्चाई पर आधारित हो। सवाल है कि लोगों की समझ को हम इतना कम करके क्यों आंकते हैं कि वे किसी रचना के संदेश को समझ नहीं पाएंगे। लेस्ली उडविन की बनाई डॉक्यूमेंट्री में अपराधी ने जो कहा, लोग उसे किस रूप में देखेंगे, वह 16 दिसंबर, 2012 की घटना के बाद देशभर में पैदा हुए आक्रोश और आंदोलन से सामने आ चुका है। इससे मिलते-जुलते बयान देने वाले राजनेताओं या कुछ बाबाओं के खिलाफ जनसामान्य के बीच जैसी प्रतिक्रियाएं देखने में आईं, वह भी जगजाहिर है। फिर क्या वजह है कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नजरअंदाज कर खुद इस वृत्तचित्र पर रोक लगाने को बावली-उतावली हो गई? 
 
इस फिल्म पर लगाई गई पाबंदी सऊदी अरब के इतिहास में लगाई गई ऐसी ही एक पाबंदी की याद दिलाती है। अस्सी के दशक में वहां की शहजादी और उसके प्रेमी को उसके दादा के फरमान पर फांसी दे दी गई थी। शहजादी का अपराध यह माना गया था कि शाही खानदान की होने के बावजूद उसने एक साधारण युवक से शादी की थी। इस घटना को लेकर 'डेथ ऑफ ए प्रिंसेस' शीर्षक से बनी डॉक्यूमेंट्री पर पाबंदी लगा दी गई थी, जो बेकार साबित हुईं। वह आज भी एक नजीर बनी हुई है और सऊदी महिलाओं की मुक्ति के आंदोलन में मील का पत्थर समझी जाती है।
 
निर्भया बलात्कार कांड पर बनी फिल्म के जरिए उठने वाले सवालों और बहस के बहाने समाज में मौजूद स्त्री-विरोधी मानसिकता को समझने की कोशिश की जा सकती थी और उससे निपटने के ठोस सामाजिक कार्यक्रम बनाए जा सकते थे, लेकिन ऐसा करने के बजाय सरकार और हमारे कुछ राजनीतिकों ने इन सवालों से जूझने वाली एक फिल्म के खिलाफ जिस तरह मोर्चा खोल दिया, वह न सिर्फ उनकी अगंभीरता को दर्शाता है, बल्कि इससे दुनियाभर में देश की लोकतांत्रिक छवि को भी नुकसान पहुंचा है। संचार तकनीक के अति उन्नत आज के युग में चीजों को शेयर करना बहुत आसान हो चला है। ऐसे में सरकार ने इस फिल्म पर पाबंदी लगाकर एक तरह से नासमझी का और फिल्म के बहाने उठ रहे सवालों से कन्नी काटकर अपने शुतुरमुर्गी रवैये का ही परिचय दिया है। ऐसी पाबंदी इस फिल्म की अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में शोहरत की ही गारंटी देती है।