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Last Modified: सोमवार, 5 अक्टूबर 2015 (13:53 IST)

नेपाल में भारत विरोध की असली वजह

नेपाल में भारत विरोध की असली वजह - Nepal violance
पिछले एक सप्ताह के दौरान नेपाल में जरूरी भारतीय वस्तुओं की नाकेबंदी कर सामान  आपूर्ति को बाधित की गई थी। रविवार को भारतीय सामानों से लदे ट्रक नेपाल में प्रवेश कर सके। इसके बाद वहां लोगों ने राहत की सांस ली है, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि नेपाल के नेताओं ने इसके लिए भी भारत को ही जिम्मेदार ठहराया है।
 
नेपाल के राजनीतिक दलों का आरोप है कि भारत इस प्रकार से दबाव डालकर नेपाल को चीन की ओर धकेलने का काम कर रहा है। नेपाल के विभिन्न राजनीतिक दल और विशेष रूप से चीन समर्थक वामपंथी दलों के नेता इस तरह का प्रचार कर रहे हैं कि भारत, नेपाल को गुलाम बनाना चाहता है। 
नेपाल में भारत विरोध की इस राजनीति का नेतृत्व वामपंथी नेता पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड कर रहे हैं। उन्होंने इस आशय के बयान दिए हैं कि भारत ने नेपाल की रसद, तेल, गैस आदि पर रोक लगाकर नेपालियों को भारत के तलवे चाटने के लिए मजबूर करने का काम किया है लेकिन हम नेपालियों का स्वाभिमान ऐसा करने की इजाजत नहीं देता। कई नेपाली नेताओं ने तो इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने की धमकी दी।    
 
नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) के नेता माधव कुमार नेपाल ने कहा कि हम पड़ोसी से अच्छे संबंध चाहते हैं, पर यदि कोई हमसे जी-हुजूरी चाहता है तो नेपाल यह करने वाला नहीं है। वास्तव में काठमांडू से लेकर पूरे पहाड़ के इलाकों में भारत-विरोधी भावनाएं भड़का दी गई हैं। भारत-विरोधी माहौल इतना उग्र कर दिया गया है कि जो नेता कल तक भारत के समर्थक माने जाते थे वे भी विरोध में हैं। 
नेपाल में हो रहे आंदोलन का दोष न केवल भारत के सिर पर मढ़ा गया वरन भारत विरोधी प्रचंड जैसे नेताओं ने यह कहा कि यह सब भारत ने जानबूझकर किया है। भारत की ओर से होने वाली आपूर्ति बंद किए जाने की कोई बात नहीं की गई लेकिन वामपंथी नेताओं ने राजनीतिक लाभ उठाने के लिए नेपालियों के बीच भारत को बदनाम करने के लिए ऐसा प्रचार कर रहे हैं।  
 
नेपाल में जो अशांति पैदा हुई उसका कारण वहां की अंदरूनी समस्याएं हैं, लेकिन इसका दोष भी भारत के सिर पर डाला गया। नेपाल में जो नया संविधान बनाया गया है वह भारतीय मूल के नेपाली ना‍गरिकों, मधेसियों, के साथ अन्याय करता है। इस कारण से वे हिंसक आंदोलन कर रहे हैं और भारतीय सीमा पर समस्याएं पैदा हो रही हैं। मधे‍सियों का भारत से आग्रह है कि उनके साथ हो रहे भेदभाव को रोका जाए और उस पर विरोध दर्ज किया जाए तो इसमें गलत क्या है?        
 
भारत का विरोध करने वाले नेपाली नेता और राजनीतिक दल भूल रहे हैं कि भारत मधेसियों की भावनाओं को नकार नहीं सकता, खासकर तब जब उनकी मांगें वाजिब हों। श्रीलंका के तमिलों की समस्या जिस तरह भारत की समस्या हो जाती है उससे भी कहीं ज्यादा परिमाण में मधेसियों की समस्या भारत की समस्या हो जाती है। हमारी लाखों बेटियों की ससुराल (सीमावर्ती नेपाल) मधेस में है। वहां की लाखों बेटियां हमारे यहां शादी करके आई हैं। भारत और नेपाल के सीमावर्ती इलाकों में कई पुश्तों से रोटी-बेटी का रिश्ता है, तब भारत कैसे चुप रह सकता है? वर्तमान स्वीकृत संविधान में मधेशियों के साथ ही नहीं वरन भारत के हितों पर भी वामपंथी दबाव के कारण कुठाराघात किया गया है। 
 
वास्तव में भारत के सामने मधेसियों की मांगों के साथ आवाज लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसलिए भारत ने कहा है कि नया संविधान न समावेशी है और न ही उस पर सहमति है। विदेश मंत्रालय की खबरों पर विश्वास करें तो नेपाल सरकार को भारत ने बता दिया है कि गैर-बराबरी और अस्थिरता पैदा करने वाला नया नेपाली संविधान मंजूर नहीं किया जा सकता। भारत ने नेपाली नेताओं से नए संविधान की खामियां दूर करने को कहा है। लेकिन नेपाल के चीन-परस्त वामपंथी नेता इसे नेपाल के स्वाभिमान पर हमला बता रहे हैं। 
 
अपने नए संविधान से नेपाल ने अपने देश में अस्थिरता का बीज बोया है। अगर वह इसे ठीक नहीं करता तो फिर वहां भी श्रीलंका की पुनरावृत्ति हो सकती है। यह नेपाल के हित में है कि जो भी गलतियां हो गई हैं उन्हें वह दूर करे। तीन दिन में बिना बहस के संविधान के मसौदे को मंजूरी दिलाना वहां की बहुमत आबादी की आवाज को दबाने वाला कदम है। मनमाना संविधान स्वीकृत करने के लिए कई संसदीय प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया। अगर संविधान को सरसरी तौर पर भी देख लें तो साफ दिखाई देगा कि आम सहमति से तैयार उस अंतरिम संविधान को लगभग उलट दिया गया है जिसमें तराई के लोगों और मधेसियों को बराबरी का हक दिया गया था। यह संविधान न्याय करने वाला नहीं है। भारत नेपाल के नेताओं की इच्छा के अनुरूप ही संविधान निर्माण के पीछे सक्रिय रहा है।
 
नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री सुशील कोइराला, स्वयं चलकर संयुक्त लोकतांत्रिक मधेस मोर्चा के कार्यालय आए थे। वहां उपस्थित लोगों ने उनसे कहा कि आप लोगों ने लंबे समय से हमें गुलाम बना कर रखा है और आपने संविधान में फिर हमारी वही स्थिति बना दी है जिसे हम स्वीकार नहीं कर सकते। कोइराला को उलटे पांव वापस जाना पड़ा। उन्होंने पहले बातचीत की भी अपील की थी, पर बातचीत तो संविधान स्वीकृति के पहले होनी चाहिए थी। जब उस पर राष्ट्रपति रामबरन यादव ने हस्ताक्षर कर दिया, उसे लागू करने की घोषणा कर दी गई तो फिर उसमें बातचीत का आधार क्या होगा? बातचीत तो तभी होगी जब नेपाल के वर्तमान नेतागण स्वीकार करें कि वे इसमें उस तरह से परिवर्तन को तैयार हैं जैसी पहले सहमति बनी थी। आखिर सहमति क्या थी?
 
संविधान ऐसा बने कि मधेस लोगों की आबादी के अनुरूप संसद और प्रांत की विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व मिले। उन्हें प्रमुख नौकरियों, प्रशासन, पुलिस, सेना में उचित प्रतिनिधित्व मिले। एक मधेस, एक प्रदेश की बात मधेस नेता कर रहे थे। लेकिन जो संविधान बना वह हर दृष्टि से क्षेत्रीय सहमति और जातीय असंतुलन का दस्तावेज है। नेपाल की एक सौ पैंसठ सदस्यीय संसद में इक्यावन प्रतिशत जनता का नेतृत्व केवल साठ से पैंसठ प्रतिनिधि करेंगे। इससे तराई और मधेसियों को न्याय कहां मिला? सरकार आबादी में उनके उनचास प्रतिशत होने की बात कहती है, जबकि मधेसी स्वयं को आबादी में इक्यावन प्रतिशत से ज्यादा मानते हैं।
 
नेपाल के नए संविधान ने ज्यादा प्रतिनिधि पहाड़ी इलाकों से आने के प्रावधान बना दिए। अंदर के राजनीतिक-भौगोलिक विभाजन में आठ राज्य बनाने की जगह सात राज्य बना दिए। उनकी भौगोलिक परिमिति इस तरह बनी है कि हर प्रदेश में मधेसी अल्पसंख्यक हो जाएं और पहाड़ी बहुसंख्यक। इससे राजनीतिक सत्ता में मधेसियों का प्रतिनिधित्व अपने आप कम हो जाएगा। सात प्रदेशों के सीमांकन में भी खामियां हैं। दो मधेस प्रदेशों के सीमांकन में एक में जहां पहाड़ के चार जिलों को शामिल कर विवाद खड़ा किया गया है वहीं दूसरे मधेस प्रदेश में औद्योगिक विकास का एक भी कॉरिडोर नहीं है।
 
अगर पहले से मधेसियों के साथ समानता का व्यवहार किया गया होता, उन्हें हर क्षेत्र में समुचित प्रतिनिधित्व मिला होता और आज शायद आवाज नहीं उठती। नेपाल का नेतृत्व करने वाले नेताओं ने आरंभ से ही मधेसियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया। लाखों की संख्या में मधेसियों को नागरिकता के अधिकार से भी वंचित रखा गया। लंबा आंदोलन चला, तब जाकर नागरिकता देने की स्वीकृति दी गई। लंबे समय तक मधेसियों को काठमांडो जाने के लिए परमिट की आवश्यकता होती थी। प्रशासन से लेकर संसद में उनका प्रतिनिधित्व 2 से 7 प्रतिशत तक सीमित रहा। नेपाली रेडियो से हिंदी का प्रसारण तक बंद कर दिया गया। इनकी भाषाओं भोजपुरी, मैथिली, वज्जिका को मान्यता नहीं दी गई। विद्यालयों तक में हिंदी की पढ़ाई बंद हो गई। लेकिन अगर वे अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं, तो इन चीन परस्त वामपंथी नेताओं को तकलीफ हो रही है!
 
नेपाल के नए संविधान के तहत ऐसे राज्य बना दिए गए हैं जिनमें पहाड़ी ही बहुमत में रहें। आरक्षण, कोटा प्रणाली लगा दी, लेकिन तराई के आदिवासियों थारुओं, लिम्बुआन आदि को दोयम दर्जे का बना दिया। इसलिए जिन आदिवासियों को पहले इन नेताओं ने मधेसी मोर्चों से अलग करा दिया था, वे भी साथ मिलकर आवाज उठा रहे हैं।
 
यह संविधान कितना भेदभावपूर्ण है इसकी बानगी देखिए। इसमें लिखा है कि विदेशी लड़की अगर शादी करके नेपाल आती है तो उसे पंद्रह वर्षों बाद अंगीकृत नागरिकता मिलेगी और उसका बच्चा भी अंगीकृत नागरिक होगा। यानी उसे वहां की राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं होगा, न वह शासन के शीर्ष पद की ही अर्हता रखेगा। जरा सोचिए, ऐसी स्थिति में कोई भारतीय क्यों वहां अपनी लड़की ब्याहेगा?
 
क्या नेपाली नेताओं को पता नही है कि विदेश में सबसे ज्यादा तो भारत में ही उनकी शादियां होती हैं। जाहिर है, हम नेपाल के साथ बेटी और रोटी का जो संबंध कहते हैं उसका भी स्थायी तौर पर खात्मा करने की कोशिश है। कुल मिलाकर यह संविधान नेपाल को विरोध, विद्रोह और अलगाववादी सोच की ओर धकेलने का साधन बन रहा है। भारत के खिलाफ आग उगल कर, अपनी पक्षपाती नीतियों के लिए भारत को दोषी ठहरा कर नेपाली राजनीतिक दल और उनका नेतृत्व इसका समाधान नहीं कर सकता। भारत अगर कहता है कि नेपाल की बेहतरी इसी में है कि पहाड़ी और तराई दोनों क्षेत्रों के लोगों के बीच समानता हो तो इसमें बुराई क्या है? अगर संविधान में तुरंत इसके अनुरूप संशोधन करने पड़ें तो किए जाएं क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो नेपाल भी दूसरा श्रीलंका बन सकता है।