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नेपाल में मधेशियों का मसला

नेपाल में मधेशियों का मसला - Nepal
- राजकुमार कुम्भज

नेपाल में 4 माह से जारी मधेशियों का आंदोलन खत्म होने के फिलहाल तो कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। नेपाल की केपी शर्मा ओली की सरकार ने मधेशियों की मांगों पर उदारता दिखाते हुए संविधान में संशोधन करने का महत्वपूर्ण फैसला किया और मधेशियों की दो प्रमुख मांगें मान भी ली थीं। इसके मुताबिक आबादी के अनुसार आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया जाना और निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाना था। इसके लिए काठमांडू सरकार ने नेपाल के संविधान में संशोधन करते हुए इन मांगों के क्रियान्वयन के लिए 3 माह में एक राजनीतिक ढांचा बनाने की बात कही गई थी। भारत ने नेपाल सरकार के इस प्रस्ताव का स्वागत किया था। 
 
भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी इस फैसले को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा था कि नेपाल सरकार के इस कदम से नेपाल और मधेशियों के बीच जारी गतिरोध को समाप्त करने और समस्या का समाधान ढूंढने में मदद मिलेगी। वस्तुत: नई दिल्ली का जोर इसी बात पर अधिकतम था क‍ि नेपाल का संविधान कुछ इस तरह समावेशी होना चाहिए कि उसका बहुलतावाद वास्तविकता में परिलक्षित हो। 
 
काठमांडू सरकार के इस कदम से एकबारगी तो यही लगा कि मधेशियों की एक बड़ी मांग मान ली गई है। नेपाल की इस उदारता से मधेशियों के हालात बदलने की उम्मीद भी जागी थी। उम्मीद यही कि मधेशी और नेपाल के आदिवासी समुदाय नेपाल सरकार के इस फैसले के साथ खड़े नजर आएंगे। अशांति का दौर खत्म होगा और संशोधन के जरिए नेपाल के सभी समुदायों तथा मूल-आदिवासी लोगों का एक प्रतिनिधि संविधान देश के सामने आएगा। किंतु ऐसा नहीं हो सका तो इसकी कुछ ठोस वजहें और कुछ ठोस आशंकाएं भी हैं। जाहिर है कि नेपाल सरकार की इस उदारता में भी कहीं न कहीं कोई राजनीतिक पेंच है। 
 
संयुक्त लोकतांत्रिक मधेशी मोर्चा के नेताओं का कहना है कि नेपाल सरकार के इस फैसले से समस्या के समाधान की कोई उम्मीद नहीं है। मधेशी-मोर्चा की लड़ाई मुख्यत: राज्य के पुनर्गठन सहित लोकसभा व राज्यसभा क्षेत्रों के निर्धारण, संवैधानिक संस्‍थाओं में समानुपातिक व्यवस्था और नागरिकता के मुद्दे की है। 
 
मधेशियों को लगता है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बदलाव इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि तराई में देश के आधे निर्वाचन क्षेत्रों का गठन किया जा सकेगा। मधेशियों को यह भी लगता है कि देश की संसद के ऊपरी सदन में भी कम प्रतिनिधित्व के हालात बदल दिए जाएंगे, क्योंकि यहां तो प्रत्येक राज्य को एक समान प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस प्रावधान के जारी रहते कुछेक राज्यों में मैदानी-सघन आबादी के बरअक्स गिने-चुने प्रतिनिधि ही स्थान पा सकेंगे और इतना सब कर गुजरने के बावजूद मधेशियों को अपना जायज हक नहीं मिल पाएगा।
 
मधेशी मोर्चा की मांग है कि भारत की मध्यस्थता से वर्ष 2008 में मधेशी पार्टियों और नेपाल सरकार के बीच जो समझौता हुआ था, उस पर अमल किया जाना चाहिए। भारत की मध्यस्थता से हुए समझौते के साथ ही इस आंदोलन का अंत हुआ था और तभी वर्ष 2008 में पहली संविधान सभा अस्तित्व में आई थी जिसका कार्यकाल वर्ष 2012 में खत्म भी हो गया, लेकिन संविधान का मसौदा पूरी तरह तैयार नहीं हो सका। तब वर्ष 2013 में दूसरी संविधान सभा का गठन हुआ जिसने अपने कार्यकाल के 2 वर्ष में संविधान का मसौदा तैयार कर लिया और कि जिसे पारित भी कर दिया गया।

ऐसा इसलिए संभव हो सका, क्योंकि नेपाल की 4 बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने आपस में समझौता करके संख्याबल के आधार पर ही इसे पारित करवा दिया। मधेशी और मूल आदिवासी समुदाय ने संविधान के इस मसौदे का पुरजोर विरोध किया, किंतु संविधान-सभा में उपस्थित संख्या-बल के आगे उनकी एक न चली। नतीजा यही निकला कि नेपाल एक बार फिर उग्र-संघर्ष की राह पर निकल पड़ा। बीते 4 माह के मधेशी आंदोलन में तकरीबन 60 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, लेकिन फिलहाल समस्या का कोई भी समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है। 
 
 

नेपाल की संघर्षरत मधेशी पार्टियां प्रारंभ में एक पृथक तराई प्रदेश की अपनी मांग पर अड़ी थी, लेकिन बाद में वे पूर्वी और पश्चिमी मधेश राज्य पर सहमत भी हो गईं। किंतु नेपाल सरकार ने संविधान का हवाला देते हुए 7 जिलों का सिर्फ एक मधेश राज्य बनाने का प्रावधान किया। इधर संविधान की ताजा घोषणा में नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार ने कहा है कि राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक राजनीतिक समिति बनाई जाएगी। 
 
दिलचस्प बात यही है कि आंदोलनकारी मधेशी दलों का ऐतराज इसी समिति को लेकर है। उनकी आपत्ति गलत भी नहीं है कि जब पूर्व में राज्य पुनर्गठन आयोग और संविधान सभा एक समिति इस मुद्दे पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट दे ही चुकी है, तो फिर एक और नई राजनीतिक समिति बनाने का औचित्य क्या रह जाता है? मधेशियों की यह आपत्ति भी गलत नहीं है कि पूर्व में प्रस्तुत कर दी गई रिपोर्ट के आधार पर संशोधन की बात क्यों नहीं कही गई? 
 
संयुक्त लोकतांत्रिक मधेशी मोर्चा की यह एक ताजा आपत्ति अन्यथा नहीं है कि अगर नई राजनीतिक समिति जरूरी नहीं समझेगी, तो बहुत संभव है कि राज्य पुनर्गठन की मांग को एक लंबे समय के लिए लटकाया भी जा सकता है। क्या इससे समस्या के समाधान का कोई संकेत मिलता है? इसी तरह मधेशी मोर्चा को यह आपत्ति भी है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व का संशोधन करने के बाद भी नेपाल का संविधान असल अर्थों में समावेशी नहीं हो सकेगा। इस कारण से कि नेपाल में सभी वर्गों के लिए किसी न किसी आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
 
प्रत्येक जिले में लोकसभा की 1 सीट आरक्षित करते हुए बाकी क्षे‍त्रों को आबादी के आधार पर सृजित करने का फैसला भी गूढ़ राजनीतिक चतुराईपूर्ण है। इस व्यवस्था के अनुसार देखा जाए तो कुल जमा 75 सीटें तो पहले से ही आरक्षित हो जाएंगी और आबादी में अधिसंख्य होने के बावजूद नेपाल की राजनीति में मधेशियों की भूमिका हाशिए की ही रह जाएगी। राज्यसभा में भी सीटें आरक्षित करने के मुद्दे पर मधेशियों ने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई है। 
 
मधेशी आंदोलन से लड़खड़ाई राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को संभालने की मंशा से नेपाल के प्रधानमंत्री खड़कप्रसाद शर्मा ओली ने कुछेक राजनीतिक चालें चलनी शुरू कर दी हैं। सरकार के वर‍िष्ठ रणनीतिकार मधेशी सांसदों को मंत्रिमंडल में शामिल करके समूचे मधेशी आंदोलन को कमजोर करने की रणनीति अपनाने में सक्रिय हो गए हैं। 
 
प्रधानमंत्री ने तो देश के मौजूदा हालात के लिए भारत को दोषी ठहराते हुए यहां तक कह दिया है कि नेपाल के साथ भारत सरकार शत्रुओं जैसा व्यवहार कर रही है जिसका कि भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सहित मधेशी नेताओं तक ने खंडन किया है। उधर लाठीचार्ज में घायल मधेशी नेता राजेन्द्र महतो की हालत चिंताजनक बनी हुई है और वे हाल-फिलहाल आईसीयू में हैं। राजेन्द्र महतो सद्भावना पार्टी के अध्यक्ष हैं और सद्भावना पार्टी नेपाल ही उन 4 मधेशी पार्टियों में से एक है, जो पिछले 4 माह से संयुक्त लोकतांत्रिक मधेशी मोर्चा के नेतृत्व में दक्षिणी नेपाल के जिलों में आंदोलनरन हैं।
 
7 प्रांतों वाली संरचना के तहत अपने मूल प्रांत के बंटवारे का विरोध करने वाले मधेशी नेता किसी भी कीमत पर कुल 11 बिंदुओं से कम पर सहमत होने के लिए तैयार ही नहीं हैं। आंदोलनकारी नेताओं का संकल्प या जिद यही है कि वे संविधान में समानुपातिक समावेशी सहभागिता जनसंख्‍या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र, नागरिकता, संवैधानिक अधिकारों के साथ ही तराई, मधेशी, शारू, दलित, मुस्लिम समुदाय के समानुपातिक और समावेशी अधिकारों से कम पर कभी भी समझौता नहीं करेंगे। इस सबके लिए पर्याप्त संविधान संशोधन करवाया जाएगा। 
 
नेपाल सरकार ने मंत्रिमंडल की एक आपात बैठक के बाद मधेशियों को इस बाबद आश्वासन भी दे दिया था और उम्मीद की जा रही थी कि 4 माह से जारी यह आंदोलन अब समाप्त हो जाएगा। किंतु आंदोलनकारी नेताओं ने सरकार के प्रस्ताव को सिरे से खारिज करते अपना आंदोलन जारी रखने का ऐलान कर दिया। आंदोलनकारी मधेशी नेता और नेपाल सरकार अगर सद्इच्‍छा से काम लें तो समस्या का समाधान आपसी सहमति से निकाला जा सकता है।
 
नेपाल सरकार का कहना है कि संविधान संशोधन के साथ ही एक ऐसा राजनीतिक तंत्र बना दिया जाएगा, जो 3 माह में प्रांतीय सीमा समस्या के निदान का खाका तैयार करेगा, जबकि आंदोलनरत संघीय समाजवादी कोरम के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र यादव ने सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया प्रस्ताव यह कहते हुए अमान्य कर दिया कि उक्त प्रस्ताव न सिर्फ अस्पष्ट और दिशाहीन है, बल्कि मूल मुद्दे से हटकर भी‍ है। 
 
मधेशियों का यह आरोप भी है कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और माओवादी पार्टी की अध्यक्ष पुष्प कमल दहल प्रचंड जैसे दिग्गज नेपाली नेताओं ने अपनी मनमर्जी के हिसाब से ही संविधान का निर्माण किया है। इसमें मधेशियों और नेपाल की अन्य मूल जनजातियों की जान-बूझकर उपेक्षा की गई है। इस सबके विरुद्ध नेपाल के 18 मधेशी दलों ने मोर्चा खोल रखा है। 
 
इस सबसे तो यही प्रतीत होता है कि नेपाल में मधेशियों का मसला एक टेढ़ी खीर बनता जा रहा है और मधेशी अपने अधिकारों की अंतिम लड़ाई लड़ने के मूड में हैं, जबकि नेपाल की सरकार मधेशी आंदोलनकारियों के प्रति राजनीतिक चतुराई से ही काम ले रही है। संयुक्त लोकतांत्रिक मधेशी मोर्चा चाहता है कि नेपाल में मधेशियों के साथ और मधेशियों के खिलाफ जो कुछ भी हो रहा है, उसके समुचित समाधान के लिए, देश-दुनिया के नेताओं को जरूरी हस्तक्षेप करना चाहिए। 
 
अन्यथा नहीं है कि नेपाल के मधेशियों को भारत से कुछ ज्यादा ही उम्मीद है। चूंकि भारत-नेपाल के बीच रोटी-बेटी के भी तो संबंध हैं। किंतु यह मुद्दा की कम गैरजरूरी नहीं है कि नेपाल में मधेशियों का मसला सरकार और मधेशियों के बीच 'अहंकार' और 'अविश्वास' के संकट का मसला भी बनता जा रहा है। राजीव गांधी ने सिर्फ इसलिए नेपाल जाने वाले भारतीय द्वारों की नाकेबंदी करवा दी थी कि तब सोनिया गांधी को पशुपतिनाथ मंदिर में घुसने नहीं दिया गया जिसकी वजह से नेपाल में हाहाकार मच गया था। किंतु नेपाल को याद रखना चाहिए कि नरेन्द्र मोदी ने पर्याप्त राजनीतिक उदारता का परिचय दिया है।