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Written By अनिल जैन
Last Modified: बुधवार, 10 दिसंबर 2014 (19:08 IST)

क्या सरकारें सचमुच चाहती हैं नक्सलवाद का खात्मा?

क्या सरकारें सचमुच चाहती हैं नक्सलवाद का खात्मा? - Naxalites
देश के लगभग एक तिहाई भाग में अपनी जड़ें जमा चुके नक्सली जब भी कमजोर पड़ रहे होते हैं या उनके समूह अंदरुनी संकट से गुजर रहे होते हैं अथवा सरकारी स्तर पर लाल आतंक के खिलाफ जीत के दावे किए जाने लगते है, तो वे अपना और अपने कैडर का मनोबल बनाए रखने के लिए किसी बड़ी हिंसक वारदात को अंजाम देते हैं। 
 
अपनी इसी रणनीति के तहत नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में एक बार फिर कहर बरपाया। राज्य के सुकमा जिले के चिंतागुफा इलाके में पिछले दिनों केंद्रीय रिजर्व पुलिसबल (सीआरपीएफ) की टुकड़ी पर नक्सलियों ने इस वर्ष का सबसे घातक हमला कर यही संदेश दिया है कि राज्य व्यवस्था उनकी ताकत को कम आंकने की गफलत में न रहे। इस हमले में सीआरपीएफ के दो अफसरों समेत 14 जवानों की हत्या कर दी। दस दिनों के भीतर यह उनका दूसरा हमला था। इसी इलाके में 21 नवंबर को नक्सल विरोधी अभियान में लगे वायुसेना के हेलीकॉप्टर पर भी गोलियां दागी गईं थीं। 
 
दरअसल, नक्सली अपने साथियों के लगातार आत्मसमर्पण से दबाव में आ गए हैं। इस वर्ष उनके कई कमांडरों और छोटे लड़ाकों ने हथियार डाले हैं। इन्हीं सूचनाओं से उत्साहित होकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह नक्सलियों की ताकत चूक जाने के दावे कर रहे थे। सीआरपीएफ की टुकड़ी पर हमले की घटना से एक दिन पहले भी उन्होंने कहा था कि वह दिन दूर नहीं, जब नक्सलियों से छत्तीसगढ़ को पूरी तरह निजात मिल जाएगी। इस तरह का दावा नया नहीं है। इसी साल मार्च में भी छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के ग्यारह और स्थानीय पुलिस के चार जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। उस घटना के पहले भी नक्सलियों के कमजोर पड़ जाने की बात कही जा रही थी। यह सच है कि पिछले कुछ महीनों में नक्सलियों की ताकत में कमी आई है। सीआरपीएफ की टुकड़ी पर हमले की घटना से कुछ ही दिनों पहले कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया माओवादी के दंडकारण्य जोन के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी ने माना था कि उनके कमजोर कार्यकर्ता सरकार की भ्रष्ट समर्पण नीति के जाल में फंस रहे हैं। 
 
एक हकीकत यह भी है कि बीते वर्षों के दौरान इस पार्टी के कई बड़े नेता या तो पकड़े गए या फिर सुरक्षाबलों की कार्रवाई की भेंट चढ़ गए हैं। इस सबके बावजूद वे इतने कमजोर नहीं हुए हैं कि उन्हें लेकर बेफिक्र हुआ जा सके। ताजा हमले से यह बात एक बार फिर पुष्ट हुई है कि उनकी सक्रियता बनी हुई है और वे अपने किसी भी मंसूबे को अंजाम दे सकते हैं। हैरत की बात है कि बहुत बार के इस अनुभव के बावजूद पर्याप्त सावधानी नहीं बरती गई। नक्सलियों ने सीआरपीएफ की टुकड़ी पर उस वक्त हमला किया जब वह उनके खिलाफ खोज-अभियान से लौट रही थी। हमलावरों ने घात लगाकर तो धावा बोला ही, स्थानीय ग्रामीणों को ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया। 
 
बहरहाल, इस घटना ने एक बार फिर न सिर्फ नक्सल विरोधी अभियान की कई खामियों को उजागर किया, बल्कि उस राजनीतिक और प्रशासनिक काहिली की ओर भी इशारा किया है जिसके चलते नक्सलियों के हौसले बुलंद होते हैं। यह हमला राज्य की उस सुकमा घाटी में हुआ, जो कि नक्सलियों का गढ़ रही है। इस इलाके में वे पहले भी कई बार सुरक्षाकर्मियों और दूसरे लोगों को निशाना बना चुके हैं। दो साल पहले कांग्रेस के दिग्गज नेता विद्याचरण शुक्ल और महेंद्र कर्मा समेत छत्तीसगढ़ के कई कांग्रेस नेताओं को भी नक्सलियों ने इसी इलाके में अपना शिकार बनाया था। लेकिन ऐसे क्षेत्र में भी उन्हें तलाशने गई सीआरपीएफ टीम के पास सूचनाओं की कमी थी, जो कि ऐसे किसी अभियान की सफलता के लिए एक बुनियादी शर्त है। 
 
दूसरी तरफ, ऐसा लगता है कि हमलावरों को सीआरपीएफ के उस दस्ते की गतिविधि की पल-पल की जानकारी थी। वैसे भी उन्हें अपनी सक्रियता वाले क्षेत्र के चप्पे-चप्पे की जानकारी होती है और स्थानीय लोगों से उनका संपर्क भी उनकी मंशा पूरी करने के काम आता है। जबकि सीआरपीएफ स्थानीय परिस्थितियों और भूगोल से इतना वाकिफ नहीं होती, न स्थानीय लोगों से उसका कोई संपर्क होता है। इसके लिए वह पुलिस पर निर्भर होती है। मगर पुलिस की छवि लोगों का भरोसा जीतने के बजाय उन्हें डराने वाली रही है, और इसका नुकसान नक्सल विरोधी अभियान में भी हुआ है। लेकिन शायद ही कभी केंद्र और राज्य की सरकारें और सुरक्षा तंत्र इस पहलू को लेकर चिंतित नजर आए हो। जब भी नक्सल विरोधी अभियान को तेज करना होता है तो अमूमन सीआरपीएफ की तैनाती बढ़ा दी जाती है, पर यह काफी नहीं है। 
 
पिछले ही महीने बस्तर में 63 नक्सलियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया था। मुमकिन है, इस दबाव से उबरने और अपने साथियों का मनोबल बनाए रखने के लिए सुकमा की ताजा वारदात को अंजाम दिया गया हो। हालांकि यह समझना मुश्किल है कि इतने बड़े हमले की तैयारी की भनक खुफिया तंत्र को कैसे नहीं लगी? या फिर सुरक्षाबलों और राज्य के सुरक्षा तंत्र में तालमेल की कमी थी? इस तरह के सवाल ऐसी हर घटना के बाद उठते रहे हैं पर इसका ठोस जवाब आज तक नहीं मिला है।
 
वैसे इस गुत्थी को समझने का एक सूत्र सीआरपीएफ के पूर्व महानिदेशक दिलीप त्रिवेदी की बातों से जरूर मिलता है, जो उन्होंने पिछले दिनों अपनी सेवानिवृत्ति से ठीक पहले कही। उनका कहना है कि ज्यादातर राज्य सरकारें नक्सलवाद रोकने को लेकर गंभीर नहीं हैं बल्कि वे तो चाहती हैं कि यह समस्या बनी रहे ताकि वे इसके नाम पर केंद्र सरकार से मोटी आर्थिक सहायता लेती रहें। 
 
त्रिवेदी ने इस बात पर भी चिंता जताई कि नक्सलियों को हथियारों की आपूर्ति रोकने को लेकर भी राज्य सरकारें जरा भी गंभीर नहीं हैं। जाहिर है कि इतने वरिष्ठ अधिकारी ने अपनी यह राय अपने अनुभव के आधार पर ही बनाई होगी। सच कहें तो नक्सल प्रभावित राज्यों में नेतृत्व के स्तर पर इसे लेकर कोई बेचैनी नहीं दिखाई देती। इसकी वजह शायद यह है कि इसमें उनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा है।
 
अव्वल तो नक्सलवाद मुख्यधारा से बहुत दूर के इलाकों तक सिमटा है। यह उस तबके पर असर नहीं डालता जिसके वोटों से राज्यों की सियासत चलती है, फिर नक्सलियों का निशाना अब राज्य पुलिस की बजाय केंद्रीय सुरक्षाबल बन रहे हैं, तो इस मोर्चे पर भी राज्य का कोई नुकसान नहीं हो रहा। पिछले कुछ वर्षों से माओवादियों और केंद्रीय सुरक्षाबलों के बीच एक जंग सी चल रही है, जबकि राज्य सरकारें सिर्फ बयानबाजी करती रही हैं। कमोबेश यही हाल केंद्र सरकार का भी है। वह इसे राज्यों का सिरदर्द मानकर चलती है और जब मुद्दा गरमाता है तो वह राज्यों से सहयोग न मिलने का रोना रोने लगती है। अगर वह इस मामले में गंभीर रहतीं तो सीआरपीएफ के डीजी पद को यूं ही खाली नहीं छोड़ती, बल्कि सेना की तरह उसके हटने से पहले ही उसके उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर देती। 
 
दरअसल, यह भारत जैसे देश में ही संभव है कि आतंकवाद या नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्या से निपटने के सवाल पर भी राजनीतिक पार्टियां और सरकारें अपने राजनीतिक दांवपेंच से बाज नहीं आतीं। यही वजह थी कि लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व यूपीए सरकार के समय देश की आंतरिक सुरक्षा पर विचार-विमर्श के लिए बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक राजनीतिक अखाड़े में बदल गई थी और एनसीटीसी यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के गठन पर एक दर्जन से भी ज्यादा मुख्यमंत्रियों के कड़े एतराज के चलते केंद्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। इन मुख्यमंत्रियों ने यह कहते हुए एनसीटीसी के गठन पर आपत्ति जताई थी कि यह देश के संघीय ढांचे के खिलाफ है और इससे राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण होता है। इन मुख्यमंत्रियों के ऐतराज की अगुआई गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी जो अब देश के प्रधानमंत्री हैं। 
 
कानून-व्यवस्था बेशक राज्यों का विषय है, लेकिन आतंकवाद या नक्सलवाद राज्य तो क्या, देश की सीमा भी नहीं मानता। आतंकवाद विरोधी जानकारी और सूचनाएं अनेक स्तरों से मिलती हैं, जिनमें राज्यों की गुप्तचर एजेंसियां, केंद्रीय एजेसियां, सेना का गुप्तचर तंत्र और विदेश विभाग शामिल है। मुंबई में 26/11 के आतंकवादी हमले के बाद महसूस किया गया था कि इन सूत्रों में तालमेल नहीं है, जिसकी वजह से जरूरी सूचनाएं सही जगह नहीं पहुंच पातीं। लिहाजा एक एक ऐसी केंद्रीय संस्था का होना जरूरी है, जो तमाम सूत्रों से आई जानकारी को इकट्‌ठा और विश्लेषित करे और साथ ही उसके पास कार्रवाई करने की क्षमता भी हो। 
 
इसी आवश्यकता के मद्देनजर एनसीटीसी का शुरुआती मसौदा फरवरी 2012 में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने पेश किया था, जिस पर ज्यादातर मुख्यमंत्रियों के विरोध को देखते हुए उसमें काफी तब्दीलियां भी की गईं लेकिन फिर भी मुख्यमंत्रियों के ऐतराज बरकरार रहे। वे आतंकवाद पर अंकुश लगाने वाली इस एजेंसी को राज्यों के अधिकारों  में दखलंदाजी और संविधान के संघीय ढांचे की मर्यादा का उल्लंघन बताते रहे। उनकी दलील थी कि इस प्रस्तावित एजेंसी को राज्यों में संदिग्ध आतंकवादियों की तलाश में छापा डालने, जांच करने और गिरफ्तार करने के जो अधिकार दिए गए हैं, वे राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले हैं।
 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारे संविधान के मुताबिक कानून-व्यवस्था मुख्य रूप से राज्यों का विषय है, लेकिन जिस समय हमारे संविधान की रचना की जा रही थी उस वक्त आज के आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी कोई चुनौती नहीं थी और न ही उस समय ऐसी कल्पना की जा सकती थी। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने उस वक्त कानून-व्यवस्था को राज्य का विषय मानते हुए संविधान में इसी अनुरूप व्यवस्था की थी। लेकिन आज आतंकवाद और नक्सलवाद किसी एक या दो राज्यों के लिए नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र-राज्य के लिए पिछले लगभग दो दशकों से एक गंभीर चुनौती बनकर हमारे सामने है। यह एक ऐसी संगठित आपराधिक परिघटनाएं हैं जिनके तार कई राज्यों में फैले हुए हैं और सरहदों के पार पड़ोसी मुल्कों में भी। इसलिए इनके मुकाबले के लिए केंद्र और राज्यों की एक समन्वित रणनीति की जरुरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि एक ओर तो केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार की इस बात के लिए आलोचना की जाती रही कि वह आतंकवाद और नक्सलवाद के खिलाफ सख्त कानूनी और सुरक्षात्मक कदम उठाने को लेकर गंभीर नहीं है। 
 
ऐसी आलोचना करने में भाजपा सबसे आगे रहती थी, लेकिन जब तत्कालीन केंद्र सरकार ने एक बहुप्रतीक्षित ठोस कदम उठाया तो उसका विरोध करने में भी भाजपा और उसके मुख्यमंत्री ही सबसे आगे रहे। विडंबना यह भी है कि जब जम्मू-कश्मीर या पूर्वोत्तर के किसी मुख्यमंत्री की ओर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को वापस लेने की मांग होती है तो भाजपा हो या कांग्रेस किसी को भी राज्यों के अधिकार या संघीय भावना की फिक्र नहीं सताती। मगर चाहे लोकायुक्तों की बाबत समान कानून बनाने का मसला हो या एनसीटीसी का, संघवाद की रक्षा करने की होड़ लग जाती है। तो क्या यह माना जाए कि संघवाद की परिभाषा राजनीतिक ताकत और दलीय हितों के आधार पर ही तय होगी? 
 
दरअसल, जिन राज्य सरकारों और राजनीतिक दलों ने एनसीटीसी को लेकर जो हायतौबा मचाई थी, उसमें राज्यों के अधिकारों की चिंता कम और भविष्य के राजनीतिक समीकरणों की झलक ज्यादा दिखाई दी थी। यही वजह रही कि आतंकवाद के खिलाफ हमेशा मुखर दिखने वाली भाजपा एनसीटीसी की मुखालफत करते वक्त यह तथ्य भूल गई कि इसके गठन का फैसला 2001 में राजग सरकार के समय भी हुआ था और फैसला लेने वाले थे, उस सरकार के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी। कहने की आवश्यकता नहीं कि अपने न्यस्त राजनीतिक मकसद साधने के जुनून में आतंकवाद और नक्सलवाद जैसे गंभीर मोर्चे पर सरकारों और राजनीतिक दलों की इस तरह की राजनीतिक कलाबाजी भी आतंकवादियों और नक्सलियों के हौसले बुलंद करती हैं।