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बच्चों के हक बाज़ार को सौंपने का मतलब

बच्चों के हक बाज़ार को सौंपने का मतलब - Mid-day meal
-सचिन कुमार जैन
भारत में वर्ष 2006 से लगातार यह प्रयास किए जा रहे हैं कि आंगनवाड़ी और मध्यान्ह भोजन योजना में भोजन की आपूर्ति का काम निजी कम्पनियों को दिया जा सके। सर्वोच्च न्यायलय वर्ष 2004 में यह निर्देश दे चुका है कि आंगनवाड़ी में पोषण आहार की आपूर्ति का काम ठेके पर नहीं दिया जाएगा और यह काम स्थानीय महिला समूह करेंगे। न्यायलय के इस आदेश को कमज़ोर करने और खारिज करवाने के लिए सुनियोजित कोशिशें हुईं। इस कम में गुजरात की राज्य सरकार और वहां के ठेकेदारों ने बहुत कोशिशें की। यह दुखद है कि उनकी कोशिशें अब सफल होती नज़र आ रही हैं।
 
वर्ष 2007 में केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी थीं, तब उन्होंने बिस्किट कम्पनियों को ठेके देने की कोशिश की। राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने भी इस सोच को समर्थन नहीं दिया और कहा की स्थानीय गरम पका हुआ भोजन सी श्रेष्ठ है। तब मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुनसिंह ने भी इस कदम का विरोध किया। खूब बहस हुई और सरकार योजनाओं का निजीकरण न कर सकी। अब मोदी सरकार की खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर कुछ यही कोशिश फिर से कर रही हैं। वे पेप्सी सरीखी कम्पनियों की भूमिका को बढ़ाना चाहती दिखती हैं। स्कूलों में पैकेट बंद भोजन की वकालत करने वाले जनप्रतिनिधियों को यह समझना चाहिए कि इस तरह के भोजन की आदत पड़ने के बाद बच्चे घर का भोजन पसंद नहीं करेंगे। ये भोजन बच्चों को लती, मोटा, बीमार और खोखला बनाता है।   
 
आर्थिक विकास की योजनाओं में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बहुत महत्त्व दिया जा रहा है। अभी भारत में डिब्बा/पैकेट बंद खाने के बाज़ार का आकार ढाई लाख करोड़ रुपए है। इस व्यापार में लगी कम्पनियों को कच्ची समग्री के आयात पर 100 फीसदी शुल्क छूट दी जाती है, परन्तु जो स्वयं सहायता समूह बहुत कम दर पर बच्चों के लिए खाना बनाते हैं, उन्हें जो गैस की टंकी दी जाती है, उसकी कीमत रियायती नहीं होती, बल्कि बाज़ार की कीमत पर दी जाती है। भोजन सामग्री की कीमत जब 200 प्रतिशत बढ़ गई तो, उस दौर में मध्यान्ह भोजन के लिए दी जाने वाली राशि में कोई बढ़ेतरी नहीं की गई। ऐसा लगता है हर कोई यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि समुदाय का कोई समूह बच्चों को स्वास्थ्यप्रद खाना नहीं खिला सकता है। इन्हें एक स्थाई बाज़ार पाने में मदद करने के नज़रिए से 20 करोड़ बच्चे सौंपे जाने की कोशिश की जा रही है।   
 
जब पोषण और भोजन उपलब्ध करवाने वाली सरकारी योजनाओं में निजी कम्पनियों के उत्पादों या उनकी तकनीक को प्रवेश देने का मतलब है देश की विविधतापूर्ण खाद्य संस्कृति को ख़त्म करना।  मध्यान्ह भोजन योजना का मकसद यह रहा है कि स्कूल जाने वाले बच्चों को पर्याप्त पोषण मिल सके ताकि वे स्वस्थ रहते हुए बेहतर शिक्षा हासिल कर सकें। अब इस मकसद को और स्पष्ट करने की जरूरत है। यह मानना जरूरी है कि हमारा समाज साफ़ सफाई से पोषण युक्त भोजन बना सकता है और बच्चों को खिला सकता है इसलिए मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम में स्थानीय रूप से उपलब्ध अनाजों, सब्जियों, दालों, फलों और मांसाहारी (जो इसका सेवन करते हैं) सामग्री का उपयोग करके स्थानीय समूहों द्वारा ही पोषण युक्त भोजन दिया जाएगा। यदि निजी कंपनियों को ठेके देकर इस योजना का क्रियान्वयन होगा तो इस योजना में समुदाय और स्थानीय निकायों की भूमिका पूर तरह से ख़त्म हो जाएगा। हमें यह समझना होगा कि निजी कम्पनियां राज्य की जनकल्याणकारी भूमिका को सीमित करते हुए अपने बाज़ार का विस्तार करने तो तत्पर हैं। दूसरी तरफ सरकारों को लगता है कि इस तरह से जनकल्याणकारी और हक़ आधारित कार्यक्रमों को ठेके पर दे देने से उनका क्रियान्वयन का सिरदर्द ख़त्म हो जाएगा और उनकी कोई जवाबदेयता नहीं रहेगी। 
 
भारत में यह एक अफसोसजनक तथ्य है कि जिन कंपनियों के बारे में यह बार बार साबित हुआ है कि उनके उत्पाद लत लगाने वाले और स्वास्थ्य के लिए हानि कारक होते हैं, भारत सरकार उन्हें मध्यान्ह भोजन योजना का काम सौंपना चाहती है। हो सकता है कि ये कंपनियां 3.5 और 5 रुपए में अच्छी पैकिंग वाला कुछ भोजन देन, परन्तु यह भोजन उनके लिए एक नया उपभोक्तावर्ग खड़ा करेगा। उन बच्चों को इस तरह के रसायन वाले खाने की लत लगेगी और वे अपने माता–पता से घर में भी उसी तरह के पैकेट बंद भोजन की मांग करेंगे। स्थानीय स्तर पर घरों में खाया जाने वाला खाना बच्चों द्वारा खारिज किया जाएगा। 
 
अब जरा पर्यवारण वाले पहलू पर गौर करते हैं। अमेरिका में घरों से 3 अरब किलो कचरा केवल खाने के डिब्बों, कागज़, प्लास्टिक, कांच और धातु के रूप में निकलता है। वे हर घंटे 25 लाख बोतलें फेंकते हैं, जिनमें से केवल 80 हज़ार का पुनः उपयोग होता है। अपने विषय से इसे थोड़ा और जोड़ते हैं। स्कूल में भोजन करने वाला एक अमेरिकी बच्चा साल भर में औसतन 31 किलो कचरा खाने की पैकिंग खोल कर पैदा करता है। वहाँ एक बुनियादी – पूर्व प्राथमिक स्कूल साल भर में इस तरह का 8200 किलो कचरा पैदा करता है। यह जान लीजिए कि जिस तरह के रसायनों (स्टीरोफोम) का उपयोग खाने की पैकिंग के लिए उपयोग में लाया जाता है, उसका जहर खाने में जाता ही है। 
 
यही कंपनियां व्यक्ति को तरोताजा बनाने वाले शीतल पेय भी बनाती और बेचती हैं। एक केन में 65 मिलीग्राम कैफीन पाया गया। एक कप काफी में 95 मिलीग्राम कैफीन होता है। यह मात्रा बच्चों में अनिद्रा और चिड़चिड़ाहट पैदा करती है। सोडियम सायक्लेमेट एक ऐसा रसायन है, जो ब्लेडर केंसर करता है। अमेरिका के कोक में यह तत्व नहीं मिलता पर जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल, वेनेजुएला और चिली सरीखे देशों में कोक में यह तत्व पाया गया। वे खाने के सामान में ब्रामिनेटेड वनस्पति तेल का उपयोग करते रहे हैं, जिसके बारे में पाया गया है कि वह तत्व अग्निरोधी के रूप में पेटेंट किया गया है और यूरोपीय संघ-जापान में प्रतिबंधित है। इसमें एक रसायन पाया गया, जिसका नाम है 4-मिथायलीमिडाज़ोल। यह कैंसर पैदा करने वाला तत्व है।  
 
ताज़ा घटनाओं को देखकर पता चलता है कि मध्यान्ह भोजन योजना और आंगनवाड़ी के पोषण आहार कार्यक्रम में निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश के लिए भारत सरकार लगभग तैयार हो रही है।  इस परिदृश्य में जरूरी है कि वह यह भी समझ ले कि यह कदम भारत के उन 20 करोड़ बच्चों के जीवन को कमज़ोर बना देगा, जो इन योजनाओं में हिस्सेदार हैं। बच्चों को कमज़ोर और बीमार बना कर कोई देश ताकतवर नहीं बनता, यह समझने के लिए किसी विशेष साधना की जरूरत नहीं है।