शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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क्यों मनमोहित नहीं करती संसद में मनमोहन की दलील

क्यों मनमोहित नहीं करती संसद में मनमोहन की दलील - Manmohan Singh, Indian Parliament, Notbandi
सरकार के नोटबंदी के निर्णय को भारत की जनता से ख़ासा समर्थन मिला। तकलीफों के बावजूद भी यह समर्थन जारी रहा। किन्तु संसद में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भाषण नोटबंदी के विरोध में रहा। यद्यपि विरोध राजनीतिक था किन्तु भारत का जब एक इतना विशिष्ट और सम्मानित अर्थशास्त्री बोल रहा है तो उनकी बातों पर गौर करना जरूरी भी है। उन्हें हलके तौर पर नहीं लिया जा सकता। उनके द्वारा उठाए गए मुख्य बिंदुओं पर चर्चा करते हैं। 
मनमोहन ने अपने भाषण के प्रारम्भ में कहा कि वे उन लक्ष्यों पर तो सहमत हैं जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रधानमंत्री ने कदम उठाए हैं किन्तु जो क़दम उठाए गए हैं उनसे वे सहमति नहीं रखते। उनके अनुसार इन क़दमों से भारत की जीडीपी में ह्रास होगा। नोटों को नया छापने और बदलने में करोड़ों का खर्चा होगा। इस नोटबंदी से आम लोगों को तकलीफ होगी। उनके अनुसार पचास दिन वैसे कोई लंबा समय नहीं होता है किन्तु गरीबों के लिए इतना समय भी बिताना विनाशकारी होगा। पूर्व प्रधानमंत्री का मत था कि कुल मिलाकर यह फैसला भारतीय अर्थव्यवस्था में हानि का सौदा साबित होगा। उनके सरकार द्वारा संगठित लूट के बयान को तो हम पूर्णतः राजनैतिक मानते हैं। 
 
इसमें किसी को संदेह नहीं कि भारत की आर्थिक प्रगति में यह फैसला रुकावट करेगा जिसे एक अर्थशास्त्र पर सामान्य जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी समझ सकता है। हां, किन्तु गिरावट कितनी होगी यह बहस का विषय हो सकता है। नए नोटों की छपाई और पुराने नोटों को नष्ट करने में जो खर्च होगा वह भी सही है। नोटबंदी से आम लोगों को तकलीफ भी है इसमें भी किसी को संदेह नहीं। तब फिर प्रश्न उठता है कि यह फैसला क्यों? 
 
किसी भी देश की प्रगति के लिए कालेधन का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे जीडीपी तो बढ़ती है किन्तु अमीर-गरीब की खाई भी बढ़ती है। कालेधन से और नया कालाधन ही पैदा होगा। जितने अधिक समय तक इस समस्या को टाला जाएगा, समस्या उतनी ही विकराल होती जाएगी। धन के आसमान एवं अनैतिक विभाजन से समाज में असंतोष फैलता ही जाएगा। निर्णय को जितना लंबित किया जाता उतनी ही परिस्थितियां जटिल होती जाती हैं। किसी कठोर निर्णय को आगे बढ़ाना या टालना समस्या का समाधान तो नहीं। यदि बहुमत की सरकार न हो तो राजनीतिक बाध्यताओं के चलते यह निर्णय नहीं लिया जा सकता। यह जोखिम केवल स्थिर और बहुमत वाली सरकार ही ले सकती है। इतिहास के किसी मोड़ पर यह फैसला तो लेना ही था, केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी। 
 
सबसे बड़ी बात है राष्ट्र के चरित्र की। हम अपने राष्ट्र के चरित्र का निर्माण कैसे करना चाहते हैं? क्या हम ऐसा राष्ट्र बनाना चाहते हैं जहां पद ही पैसे का स्रोत हो, कर्म नहीं? धन से धन बनता हो, श्रम से नहीं। राष्ट्र का उत्थान तभी संभव है जब राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक के पास सामान अधिकार एवं अवसर हों। टैक्स एवं न्याय की परिधि में सारे नागरिक सामान रूप से आते हों। यदि यह फैसला उन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लिया गया है तो राष्ट्र को होने वाली आर्थिक हानि की चिन्ता नहीं। प्रगति में रुकावट की परवाह नहीं क्योंकि आगे या पीछे राष्ट्र अपने आर्थिक लक्ष्यों को तो पा ही लेगा किन्तु अपने सामाजिक और चारित्रिक मूल्यों को पा लेना बिना वेदना के संभव नहीं है।
 
मार्टिन लूथर किंग के शब्दों में मानव प्रगति न तो अपरिहार्य है और और न ही स्वतः होती है। न्याय के लक्ष्य की ओर बढ़े हर कदम के लिए बलिदान, पीड़ा और संघर्ष की आवश्यकता है। इसके पीछे होता है समर्पित व्यक्तियों का अथक परिश्रम और उनकी भावपूर्ण सोच। कोई भी यज्ञ बिना आहुति के पूर्ण नहीं होता। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जनता का त्याग तभी संभव है जब जनता को विश्वास हो कि उसका यह त्याग बेकार नहीं जा रहा। डॉ. अब्दुल कलाम के शब्दों में, हमारे बच्चों को बेहतर कल देने के लिए आइए, हम अपना आज कुर्बान कर दें। यह कुर्बानी वर्तमान  प्रधानमंत्री के कार्यकाल में ही संभव थी। अगला जननेता राष्ट्र को कब मिलेगा बोलना संभव नहीं क्योंकि आज के  नेताओं की खेप में ऐसा कोई नहीं दिखाता जिसकी स्वीकार्यता जनसाधारण में सर्वाधिक हो। 
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