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महाराष्ट्र में गठजोड़ ही नहीं, जड़ता भी टूटी

महाराष्ट्र में गठजोड़ ही नहीं, जड़ता भी टूटी - Maharashtra Election
-अनिल जैन
किसे अंदाजा था कि गठबंधन की राजनीति के मौजूदा दौर में महाराष्ट्र की राजनीति गठबंधन-विहीन जोर आजमाइश का खुला मैदान बन जाएगी। महाराष्ट्र में हर राजनीतिक दल अकेले ही मैदान में उतर पड़ा है, यह देखने के लिए कि वह खुद और अब तक के उसके सहयोगी कितने पानी में हैं। इसे हम भारतीय राजनीति में नए मंथन की शुरुआत भी कह सकते हैं। किसी ने नहीं सोचा होगा कि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले घटनाचक्र इतनी तेजी से घूमेगा कि सूबे की राजनीति एक दम नई शक्ल अख्तियार कर लेगी और उसका भविष्य तो दूर, वर्तमान तक अस्थिर हो जाएगा।
कुछ दिन पहले जब राज्य विधानसभा चुनाव के कार्यक्रम का एलान हुआ तो अंदाजा यही था कि हमेशा की तरह एक बार फिर कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और भाजपा-शिवसेना गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर थोड़ी-बहुत रस्साकशी होगी और अंततः मुकाबला दोनों गठबंधनों के बीच ही होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सीटों के बंटवारे को लेकर कई दिनों तक चली खींचतान के बावजूद बात न बनने पर एक ओर जहां भाजपा ने शिवसेना से नाता तोड़ लिया तो दूसरी ओर एनसीपी ने भी चुनाव के लिए 'एकला चलो' की राह पकड़ ली। उसके सरकार से अलग होने तथा समर्थन वापस लेने से मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को भी इस्तीफा देना पड़ा। 
 
विडंबना देखिए कि शिवसेना से भाजपा का 25 साल पुराना गठबंधन इसलिए टूटा कि लोकसभा चुनाव के नतीजों ने सूबे में भाजपा की राजनीतिक हैसियत में अप्रत्याशित इजाफा कर दिया। वहीं कांग्रेस से एनसीपी का साथ इसलिए छूटा कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इतनी दारुण पराजय का सामना करना पड़ा कि उसकी सीटें (2) अपनी सहयोगी एनसीपी (4) के मुकाबले आधी रह गई। यानी भाजपा की ताकत बढ़ी तो उसने सहयोगी दलों से अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करने का प्रयास किया।
 
कांग्रेस अपने इतिहास की सबसे कमजोर स्थिति में पहुंची, तो उसके सहयोगी दल उससे अपने रिश्तों को फिर से तय कर रहे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति के लिए इस टूट-फूट का अपना महत्व है। दोनों गठबंधनों के टूटने के साथ ही राज्य की राजनीतिक जड़ता भी टूटी है। अब आगामी विधानसभा चुनाव न केवल चतुष्कोणीय होंगे, बल्कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) कहीं-कहीं मुकाबले को पंचकोणीय भी बनाएगी।
 
राज्य की राजनीति के लिहाज से भाजपा और शिवसेना का अलगाव, कांग्रेस-एनसीपी के अलगाव से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर माना जा रहा था और विभिन्न सर्वेक्षण भी भविष्यवाणी कर रहे थे कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन को भारी बहुमत (288 में से 200 सीटें तक) मिलेगा और 15 साल बाद यह गठबंधन एक बार फिर राज्य की सत्ता संभालेगा, लेकिन विजय की बेहतर प्रत्याशा ही भाजपा-शिवसेना की दोस्ती में दरार की वजह बन गई। पिछले कई दिनों से दोनों दलों की तकरार सीटों को लेकर होती दिख रही थी, लेकिन असल मुद्दा था कि मुख्यमंत्री किसका होगा। 
 
उद्धव ठाकरे की मुख्यमंत्री बनने की हसरत किसी से छिपी नहीं है। इसीलिए उन्होंने शर्त रख दी कि सूबे का अगला मुख्यमंत्री शिवसेना से ही होगा। उन्हें शायद यह भी लग रहा होगा कि अगर इस बार उन्होंने मुख्यमंत्री पद का दावा छोड़ दिया तो शिवसेना की हथेली में से भाजपा की गुलामी के सिवाय बाकी सारी रेखाएं मिट जाएंगी। दो दशक पहले 1995 में जब महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार बनी थी तब शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने थे। उस समय शिवसेना राज्य में हर तरह से भाजपा से बड़ी पार्टी थी, लेकिन आज हालात बिल्कुल बदले हुए हैं।
 
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 24 सीटें जीती थी जबकि शिवसेना को 18 पर ही जीत दर्ज कर पाई थी। इस लिहाज से आज भाजपा सूबे में शिवसेना से बड़ी पार्टी है, बावजूद इसके वह 288 में से शिवसेना के लिए 151 सीटें छोड़ने और खुद 124 पर लड़ने को राजी हो गई थी, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर शिवसेना का दावा उसे कुबूल नहीं था। राजनीतिक हलकों में खबर यह भी है कि महाराष्ट्र में रहकर कारोबार करने वाले गुजराती समुदाय ने मोदी तक यह संदेश भिजवाया था कि भाजपा को शिवसेना से मुख्यमंत्री पद को लेकर समझौता नही करना चाहिए, वरना मुंबई में शिवसेना के राज में उनके लिए कारोबार करना मुश्किल हो जाएगा। यही वजह रही कि भाजपा उद्‍धव की जिद के आगे नहीं झुकी और शिवसेना से उसकी 25 साल पुरानी यारी टूट गई। 
 
दरअसल, उद्धव ठाकरे का मकसद मुख्यमंत्री पद पर दांव लगाते हुए अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं को एकजुट रखना है। यह 'मराठी माणुस' के नाम पर सहानुभूति और समर्थन बटोरने का एक सोचा समझा कदम है। हालांकि पिछले दो-ढाई दशक में शिवसेना की राजनीति में हिंदुत्व का जोर बढ़ा है, जबकि 'मराठी माणुस' की प्रतिनिधि होने की उसकी मूल पहचान कमजोर पड़ी है। ऐसे में अब फिर से मराठी अस्मिता का उसका कार्ड कितना कामयाब होगा, कहा नहीं जा सकता। बहरहाल, फिर से मराठी अस्मिता का दांव खेलते हुए उसका संदेश साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, दोनों गुजराती हैं और उनके नेतृत्व में भाजपा मराठियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली शिवसेना को दबाने की कोशिश कर रही है। चुनाव में शिवसेना के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी मुंबई से रत्नागिरी (कोंकण) तक तथा मराठवाड़ा के कुछ इलाकों में फैले अपने परंपरागत पिछड़ा जनाधार को बचाए रखना तथा कांग्रेस और एनसीपी के जनाधार में सेंध लगाना। 
 
जहां तक भाजपा का सवाल है, पिछले चार महीनों के दौरान तीन दौर के उपचुनावों में मिले लगातार झटकों के बावजूद उस पर अभी मोदी-लहर का नशा छाया हुआ है। वह मोदी की छवि के सहारे हिंदुत्व की राजनीति में शिवसेना से बड़ी लकीर खींचना चाहती है। इसके अलावा विदर्भ सहित ग्रामीण इलाकों में उसकी पहले से पकड़ है और लोकसभा चुनाव में वह शहरी इलाकों में भी कांग्रेस का आधार हथिया चुकी है। पहले जो उत्तर भारतीय शिवसेना के कारण उससे छिटकते थे, वे भी अब उससे जुड़ सकते हैं। उसका अनुमान है कि खुद के बूते पूर्ण बहुमत न सही, 100-125 सीटें तो मिल ही जाएगी, बाकी के इंतजाम के लिए एनसीपी, मनसे आदि मौजूद रहेंगे ही। हालांकि पार्टी शिवसेना के प्रति भी रुख को नरम रखकर भावी संभावनाओं के दरवाजे खुले रखना चाहती है। भाजपा की पुरजोर कोशिश होगी कि उसके सर्वाधिक विधायक आएं और महाराष्ट्र में उसका मुख्यमंत्री बने। अगर ऐसा नहीं हुआ तो शिवसेना से नाता तोड़ने के नेतृत्व के निर्णय पर तो सवाल उठेंगे ही, साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर उसके पक्ष में बना माहौल भी कमजोर होने लगेगा। 
 
रही बात कांग्रेस और एनसीपी की तो जिस तरह की छवि राज्य में इनकी सरकार की बनी है, उसके चलते इनमें से किसी को भी सत्ता में अपनी वापसी की कोई उम्मीद नहीं है। इसी वजह से दोनों में से किसी ने भी गठबंधन बचाने में ज्यादा तो क्या, थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसने संभवतः यही सोचकर गठबंधन तोड़ा कि जब सत्ता आनी ही नहीं है तो एनसीपी जैसी सौदेबाज और मनमौजी सहयोगी के बोझ को क्यों ढोया जाए? अन्यथा पहले से चले आ रहे फार्मूले के हिसाब से एनसीपी की आधी सीटों पर लड़ने की मांग और कांग्रेस से ज्यादा सीटें जीतने की स्थिति में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कहीं से भी नाजायज नहीं थी। हो सकता था यदि शिवसेना-भाजपा साथ रहते, तो कांग्रेस-एनसीपी का गठजोड़ भी नहीं टूटता। बहरहाल, एनसीपी से अलग होने का फैसला दूरगामी लिहाज से कांग्रेस के लिए फायदेमंद भी हो सकता है। एनसीपी से अलग होने के बाद अब उसे महाराष्ट्र के हर कोने में फैले अपने समर्थकों और संगठन का लाभ मिलने तथा वर्षों से एनसीपी की जागीर बन चुके इलाकों में प्रवेश करने का मौका मिलेगा। 
 
जहां तक एनसीपी की बात है, वह भी यही सोचकर कांग्रेस से छिटक गई कि सत्ता में आना ही नहीं है तो कांग्रेस से क्यों चिपके रहा जाए और क्यों न उसे उसकी हद बताई जाए। अब उसका एक ही मकसद होगा कि वह कांग्रेस से अधिक सीटें जीतकर आए और महाराष्ट्र में कांग्रेस की जगह ले ले। शरद पवार यह हसरत तब से पाले हुए जब वे 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए कांग्रेस से अलग हुए थे। अगर एनसीपी चुनाव में कांग्रेस से बड़ी ताकत बनकर उभरी तो कांग्रेस के लिए न सिर्फ सहयोगी ढूंढना मुश्किल हो जाएगा, बल्कि राष्ट्रीय स्तर विकल्प के रूप में उसकी हैसियत भी और क्षीण हो जाएगी। लेकिन एनसीपी इस स्थिति में तभी आ सकती है, जब राज्य में कांग्रेस के पंपरागत समर्थक खुले दिल से उसे अपना ले।
 
दोनों गठबंधनों के टूटने से राज ठाकरे की मनसे में नई जान आ गई है, जिसके उम्मीदवारों को चार महीने पहले लोकसभा चुनाव में जमानत बचाने के लाले पड़ गए थे। बदली हुई परिस्थिति में अब वह भी मैदान में ताल ठोकेगी। मुंबई, पुणे, नासिक जैसे अपने पुराने प्रभाव क्षेत्रों में वह मुकाबले को पांचवा कोण दे सकती है। इन इलाकों में 2009 के विधानसभा चुनाव में उसने शिवसेना-भाजपा गठबंधन को तीन दर्जन से ज्यादा सीटों पर नुकसान पहुंचा कर उसे सत्ता में आने से रोकने में अहम भूमिका निभाई थी। 
 
फिलहाल चुनाव नतीजों के बारे में कोई भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अभी सिर्फ यह कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव के अनपेक्षित जनादेश में अंतर्निहित अर्थों का पहला बड़ा प्रभाव महाराष्ट्र में देखने को मिला है। विडंबना यह भी है कि उपरोक्त जनादेश से जहां देश में राजनीतिक स्थिरता आई और 25 वर्ष बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, वहीं उसके परिणामस्वरूप महाराष्ट्र में जमे-जमाए समीकरण छिन्न-भिन्न हो गए। एक फिल्मी गीत की तर्ज पर कहें तो- निकल पड़े हैं खुली सड़क पर अपना सीना ताने...! कुल मिलाकर महाराष्ट्र का मुकाबला बेहद दिलचस्प रूप ले चुका है। वहां चुनाव बाद सत्ता के लिए कोई नया गठजोड़ भी शक्ल ले सकता है। लेकिन वह महाराष्ट्र में राजनीतिक स्थिरता की गारंटी शायद ही हो।