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Written By शरद सिंगी
Last Modified: शनिवार, 18 अक्टूबर 2014 (17:44 IST)

युगांतरकारी एलईडी आविष्कारकों को नोबेल सम्मान

युगांतरकारी एलईडी आविष्कारकों को नोबेल सम्मान -
प्रतिष्ठित वार्षिक नोबल पुरस्कारों की श्रृंखला में भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार एक विशिष्टता रखते हैं। सामान्यतः बड़ी खोजों पर ध्यान रखने वाली नोबेल समिति ने इस वर्ष एक निहायत ही जीवनपयोगी आविष्कार को प्राथमिकता दी। यह पुरस्कार मिला नीले प्रकाश देने वाले एलईडी जिसका पूर्ण रूप है लाइट एमिटिंग डायोड  के अविष्कार के लिए।  विजेता रहे जापान के इसमु अकासकी , हिरोशी अमानो तथा जापानी मूल के अमेरिकी नागरिक शुजी नाकामुरा।  पिछले कुछ दशकों  से एलईडी या प्रकाश उत्सर्जक डायोड  हमारे रोज़मर्रा की जिंदगी में बड़ी तेजी से जगह बना  रहे हैं।  दिवाली की लड़ियां हों, टेबल लैंप हों या टॉर्च, हर जगह एलईडी, परम्परागत बल्ब की जगह लेते जा रहे हैं। नीले  एलईडी के अविष्कार को समझने से पहले एलईडी की कार्यप्रणाली पर एक नज़र डालते हैं। 
 
विज्ञान के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु अत्यधिक सूक्ष्म कणों से बनी हैं जिन्हें परमाणु कहते हैं। इस परमाणु में एक नाभि केंद्र होता है जिसमें प्रोटॉन नामक कण होते हैं तथा दूसरे कण इलेक्ट्रान इस केंद्र  के चारों ओर उसी तरह चक्कर लगाते हैं जिस तरह अपने सौरमंडल के सारे ग्रह, सूर्य के आसपास अपनी-अपनी कक्षा में परिक्रमा करते हैं। ये इलेक्ट्रान जब अंदरुनी कक्षा से बाहरी कक्षा में छलांग मारते  हैं तब उन्हें ऐसा करने के लिए ऊर्जा चाहिए तथा जब बाहरी कक्षा से भीतरी कक्षा  में कूदते हैं तो ऊर्जा  छोड़ते हैं।  
 
यह  ऊर्जा प्रकाश के रूप में होती है। यही सिद्धांत है एलईडी के काम करने का। जब एलईडी में से  बिजली प्रवाहित होती है तो उसके इलेक्ट्रॉन पहले तो आवेशित हो जाते हैं और उसके बाद  अपने आवेश वाली ऊर्जा को प्रकाश के रूप में उत्सर्जित कर देते हैं, इस तरह एलईडी विद्युत ऊर्जा को प्रकाश में बदलता है। एलईडी पारंपरिक प्रकाश स्रोतों की तुलना में बहुत उन्नत है क्योंकि इनमें ऊर्जा की खपत कम है। इनका जीवनकाल भी साधारण बल्ब से सौ गुना होता है। एक साधारण विद्युत बल्ब लगभग एक हज़ार घंटे ही प्रकाश दे पाता है, जबकि एलईडी बल्ब एक लाख घंटे तक प्रकाश दे सकता है। हालांकि यह अपेक्षाकृत महंगा होता है।
 
साधारण बल्ब में टंगस्टन का फिलामेंट याने तंतु होता है जिसे  बिजली के प्रवाह से 2500 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म किया जाता है और जिसके परिणामस्वरूप प्रकाश उत्सर्जित होता है तथा वातावरण में उष्मता फैलती है। घर में लगने वाले 60 वॉट के बल्ब का मतलब है हर सेकंड वह इतनी ऊर्जा व्यय करता है। इतनी  ऊर्जा के खर्च से धन तो खर्च होता ही है परन्तु इसके अलावा वातावरण को भी उतनी गर्मी सोखनी पड़ती है। बिजली  पैदा करने वाले कारखाने भी वातावरण को प्रदूषित करते हैं  अर्थात जितनी ज्यादा बिजली की खपत उतना ज्यादा प्रदूषण। साधारण बल्ब कम प्रकाश के लिए ज्यादा बिजली खाते हैं तथा अनचाहे ही उष्मीय विकिरण कर पृथ्वी के बढ़ते तापमान में अपना योगदान देते हैं।  
 
एलईडी का उपयोग 1970 के दशक से आरम्भ हो गया था किन्तु प्रारंभिक दौर में वे बहुत ही मद्धम रोशनी उत्सर्जित कर पाते थे। धीरे-धीरे वैज्ञानिक दो कक्षाओं के बीच में ऊर्जा का अंतर बढ़ाने में कामयाब हुए। इस कामयाबी से अधिक चमकीले तथा अधिक प्रकाश वाले एलईडी बनाने में सफलता मिली। प्रकाश  का रंग, छोड़ी गई ऊर्जा की मात्रा पर निर्भर करता है। आरम्भ में एलईडी में से लाल, पीला व  हरा रंग निकालने  में कामयाबी मिली। इस तरह रंग बिरंगे एलईडी बाजार में उपलब्ध हुए। कई उपकरणों जैसे कैलकुलेटर, इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों तथा संकेतों में हरे और लाल रंग के एलईडी का उपयोग शुरू हुआ। दरअसल लाल, पीले व  हरे रंग के  एलईडी तो सहजता से बना लिए गए थे क्योंकि इन रंगों को निकालने में ऊर्जा की ज्यादा आवश्यकता नहीं होती है। जो नहीं बना पा रहा थे वह था नीला रंग। 
 
जैसा हम जानते हैं कि सफ़ेद रंग को बनाने के लिए सात रंग चाहिए तथा उस सप्तरंगी  मिश्रण में नीला रंग अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अतः एलईडी से चलने वाले सफ़ेद बल्ब भी नहीं बन पा रहे थे।  नीले रंग के प्रकाश  को उत्सर्जित करने के लिए ऊर्जा का अंतर बहुत बड़ा चाहिए था। असंभव से दिखने वाले इस कार्य को पूर्ण किया  नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों ने। कई वर्षों के प्रयासों के बाद इन्होंने एलईडी से नीले प्रकाश को उत्सर्जित करने में सफलता पाई और यही वजह थी कि टेलीविज़न, मोबाइल, लेप टॉप कंप्यूटर के स्क्रीन में एलईडी का उपयोग शुरू हो पाया। सफ़ेद प्रकाश वाले बल्ब बाजार में उपलब्ध हुए। सुनने में  अत्यंत अविश्वसनीय  लग सकता है कि एक अनुमान के अनुसार यदि दुनिया के सारे बल्ब, एलईडी बल्ब से बदल दिए जाएं तो बिजली की खपत केवल पांच प्रतिशत रह जाएगी।  यही कमाल है इन वैज्ञानिकों का और इसलिए ये नोबेल पुरस्कार पाने के पात्र  हैं।  ब्लू -रे डीवीडी का उपयोग करने वाली हमारी युवा पीढ़ी जानती है कि यह आविष्कार कितना महत्वपूर्ण है। 
 
क्योंकि ये बिजली का उपभोग कम  करते हैं अतः इन्हें सौर ऊर्जा से भी  चलाना आसान होगा। एक बार ये सफलतापूर्वक बाजार में आ जाएं तो दुनिया के उन करोड़ों लोगों के लिए एक वरदान होगा जिनके घरों में अभी तक बिजली नहीं पहुंच पाई है। दीपावली की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ लेखक की यह विनम्र सलाह है कि क्यों न हम भी इस दिवाली से ही अपनी  सामर्थ्य के अनुसार जहां तक संभव हो इस क्रन्तिकारी एलईडी के प्रकाश का उपयोग करें ताकि हम अपने ग्रह और पर्यावरण को अनुचित ऊष्मा विकिरण से बचाकर रख सकें।