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Written By अनिल जैन
Last Updated : शनिवार, 4 अक्टूबर 2014 (19:27 IST)

कई मिसाल कायम कर सेवानिवृत्त हुए हैं न्यायमूर्ति लोढा

कई मिसाल कायम कर सेवानिवृत्त हुए हैं न्यायमूर्ति लोढा -
देश के प्रधान न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हुए न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढा ने महज पांच महीने के अपने छोटे से कार्यकाल में संविधान पीठ के समक्ष मौजूद 15 मामलों का निपटारा करके देश की न्यायपालिका के लिए एक मिसाल कायम की है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के सवाल पर कार्यपालिका के रवैये से नाराजगी हो या किसी किसी भी शख्स के साथ नाइंसाफी, न्यायमूर्ति लोढा अपनी बेबाक और सपाट बयानी के लिए लम्बे अरसे तक याद किए जाएंगे। न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के दो साल बाद तक कोई संवैधानिक पद ग्रहण न करने की नसीहत देकर और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए किसी भी तरह का समझौता न करने की वकालत करके न्यायमूर्ति लोढा न्यायपालिका के लिए लम्बी लकीर खींच गए हैं। 
इसी साल 27 अप्रैल को देश के 41वें प्रधान न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण करते ही न्यायमूर्ति लोढा ने अपनी प्राथमिकता दर्शा दी थी। उन्होंने संविधान पीठ का गठन संवैधानिक मामलों का निपटारा करने के लिए ही किया था। संविधान पीठ गठित करके एक के बाद एक 15 मामलों का निपटारा किया गया। हालांकि उनमें से कई मामले उस समय के थे जो उन्होंने प्रधान न्यायाधीश बनने से पहले वरिष्ठतम न्यायाधीश की हैसियत से सुने थे, लेकिन पांच माह के कार्यकाल में उन्होंने संवैधानिक मसलों की तेजी से सुनवाई करके फैसलों की झड़ी लगा दी। इन पेचीदा कानूनी मसलों का निपटारा हो जाने से देशभर की अदालतों को रास्ता मिल गया है, जिससे अब वे अदालतें लंबित मुकदमे जल्द निपटा सकेंगी। 
 
प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के कुछ फैसले देश की न्यायपालिका के लिए मील के पत्थर हैं। इनमें से कई तो चौंकाने वाले रहे। फांसी की सजा पाए शख्स की पुनर्विचार याचिका की खुली अदालत में तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष सुनने का निर्णय देकर उन्होंने अपनी न्यायिक दक्षता के साथ-साथ न्यायपालिका के मानवीय चेहरे को को भी उजागर किया। दागी सांसदों को मंत्रिपरिषद में न रखने की सलाह प्रधानमंत्री को देकर उन्होंने लोकतंत्र में शुचिता कायम करने की दिशा में भी कारगर पहल की। संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के सरकारी अफसरों के खिलाफ जांच से पहले सरकार की मंजूरी अनिवार्य करने के कानून को उन्होंने असंवैधानिक करार देकर स्पष्ट संदेश दिया कि संविधान की नजर में सभी बराबर है। 
 
अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा की आधी अवधि बतौर आरोपी जेल में बिता लेने वाले देश के तमाम विचाराधीन आरोपी कैदियों को निजी मुचलके पर तुरंत रिहा करने का न्यायमूर्ति लोढा का फैसला भी ऐतिहासिक रहा। इसके अलावा फर्जी पुलिस मुठभेड़ों पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने पुलिस के लिए जो दिशा-निर्देश जारी किए वे भी अपने आप में अभूतपूर्व हैं। मानवाधिकारों के पक्ष में आए इन दो अहम फैसलों से न्यायपालिका का मानवीय चेहरा सामने आया। कर्नाटक मे प्राथमिक स्कूलों की शिक्षा सिर्फ मातृभाषा में दिए जाने को भी उन्होंने गैरकानूनी करार दिया। 
 
राजस्थान के जोधपुर में जन्मे न्यायमूर्ति लोढा को न्यायिक संस्कार अपने पिता से विरासत में मिले। उनके पिता न्यायमूर्ति केएम लोढा भी राजस्थान हाई कोर्ट में न्यायाधीश रहे थे। लगभग 21 वर्षों तक राजस्थान, मुंबई और पटना हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश रहने के बाद सेवानिवृत्त हुए न्यायमूर्ति लोढा की अदालत हमेशा जीवंत रही। वे एक बेहद मुखर न्यायाधीश के तौर पर चर्चित रहे। वकील जब भी मामले को लम्बा खींचने की कोशिश करते तो शांत और शालीन न्यायमूर्ति लोढा उन्हें फौरन लॉ पाइंट पर बहस करने को कहते थे। इस तरह कम समय में वह मुकदमों का निपटारा करने मे कामयाब रहे। उनका मुस्कराता चेहरा अदालत की गरिमा को कायम रखने में मददगार रहता था।
 
सेवानिवृत्ति के दिन संवाददाताओं से बातचीत में जस्टिस लोढा ने दो साल तक कोई सरकारी पद स्वीकार नहीं करने का अपना इरादा जाहिर करते हुए इन अटकलों को भी खारिज किया कि वे लोकपाल बनने की रेस में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि उनका स्पष्ट मत है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों और चीफ जस्टिस को अपनी सेवानिवृत्ति के बाद दो साल का कूलिंग पीरियड बिताना चाहिए। वे खुद भी सेवानिवृत्त होने के बाद अब काम से मिली आजादी का लुत्फ उठाएंगे। न्यायमूर्ति लोढा का यह कदम निःसंदेह न्यायपालिका के ऊंचे मानदंड स्थापित करने वाला ऐसा साहसिक और अनुकरणीय कदम है जिसकी चर्चा और सराहना होना स्वाभाविक है। न्यायमूर्ति लोढा के पूर्ववर्ती प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम के केरल का राज्यपाल नियुक्त होने के बाद इस बात पर बहस शुरू हो गई थी कि न्यायाधीशों और वह भी देश के प्रधान न्यायाधीश रह चुके शख्स के राज्यपाल बनने से क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रह पाएगी।