मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
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Written By Author शरद सिंगी

अनेक प्रश्‍नचिन्‍ह लगे हैं ईरान-अमेरिकी परमाणु समझौते पर

अनेक प्रश्‍नचिन्‍ह लगे हैं ईरान-अमेरिकी परमाणु समझौते पर - Iran, America
संसार के इतिहास की शायद सबसे लम्बी अंतरराष्‍ट्रीय सौदेबाज़ी अब अपने अंतिम चरण में है। अठारह महीने से चल रही इस सौदेबाज़ी के एक ओर पक्षकार है ईरान तो दूसरी ओर अमेरिका, इंग्लैंड, चीन, फ़्रांस, रूस और जर्मनी। मुद्दा है ईरान का परमाणु कार्यक्रम। यदि यह सौदा अपनी अंतिम बाधा पार करके समझौते में बदल जाता है तो पश्चिमी देशों सहित समूची दुनिया राहत की सांस लेगी। समझौते के बुनियादी ढांचे पर तो सहमति हो चुकी है। जून अंत तक, अंतिम करार पर हस्ताक्षर करने की समय सीमा निर्धारित है। परमाणु बम बनाने की ईरान की बढ़ती महत्वाकांक्षा से चिंतित अमेरिका सहित पश्चिमी राष्ट्र चाहते हैं कि ईरान किसी भी कीमत पर परमाणु बम बनाने में सफल नहीं होना चाहिए। वहीं ईरान अपनी पूरी शक्ति से बम बनाने की तकनीक हासिल करना चाहता था। अनेक आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंधों के बावजूद ईरान अपने रुख पर अड़ा रहा। अंत में काम आई कूटनीति और पिछले दरवाज़े की राजनीति।  
इधर अमेरिका की संसद में ओबामा की डेमोक्रैट पार्टी संसद में अपना बहुमत खो चुकी है। किसी भी समझौते में अड़चन डालने का काम ये संसद कर सकती है। विपक्षी  रिपब्लिकन पार्टी इस समझौते के मसौदे के विरुद्ध है।  और तो और इस विकसित प्रजातंत्र के कुछ  विपक्षी सांसदों ने एक ऐसा अनोखा काम किया जिससे पूरे संसार में अमेरिकी सांसद  हंसी के पात्र बने। ओबामा प्रशासन जहां अपना पूरा प्रभाव और शक्ति लगाकर इस समझौते को अंजाम देने पर लगा है वहीं अमेरिकी संसद के 47 सांसदों ने ईरान के राष्ट्रपति के नाम एक खत लिखकर चेतवानी देते हुए कहा कि ओबामा प्रशासन से किए गए समझौते को अगले चुनावों के बाद आने वाला राष्ट्रपति निरस्त कर सकता है। विदेश नीति में ऐसा पहली बार सुना गया जब विपक्ष के सांसद अपने ही देश के राष्ट्रपति के विरुद्ध किसी शत्रु राष्ट्र के राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखें और समझौता करने के विरुद्ध चेतावनी दें। 
 
परमाणु ऊर्जा हो या परमाणु बम, दोनों के लिए यूरेनियम को संवर्धित(शुद्ध और समृद्ध) करना होता है। अंतर इतना है कि परमाणु बम के लिए 90 प्रतिशत तक यूरेनियम संवर्धित होना चाहिए जिसके लिए उच्च तकनीक चाहिए जबकि परमाणु ऊर्जा के लिए मात्र चार प्रतिशत से भी कम संवर्धित यूरेनियम से काम  हो जाता है। संकेतों से लगता है कि ईरान को चार प्रतिशत से ज्यादा संवर्धन न करने के लिए मना लिया गया है। ऐसा होने  पर ईरान के लिए बम बनाना अत्यधिक कठिन होगा क्योकि अंतरराष्‍ट्रीय एजेंसियों की निगरानी में संवर्धन का काम होगा। कुल मिलाकर ईरान अपने संयत्रों में यूरेनियम संवर्धन का काम तो जारी रखेगा किन्तु इस प्रकिया से प्राप्त संवर्धित यूरेनियम को केवल बिजली प्राप्त करने में ही उपयोग कर पाएगा। 
 
यदि यह समझौता हो जाता है तो अमेरिका के विदेश सचिव जॉन केरी नोबेल शांति पुरस्कार के मज़बूत दावेदार हो जाएंगे जिन्होंने आलोचनाओं की परवाह  किए बगैर इस सौदे को अंतिम  पड़ाव तक लाने में अपना अधिकांश समय खर्च किया। दूसरी ओर ईरान के राष्ट्रपति हसन रोहानी को भी प्रतिबंधों  के उठ जाने से राजनीतिक लाभ  होगा। ईरान अपनी खोई हुई क्षेत्रीय महाशक्ति की प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करेगा। ऐसे में आसपास के देशों खासकर सऊदी अरब और इसराइल का चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें डर है कि ईरान अपने वायदे पर नहीं टिकेगा और संयंत्र बंद नहीं होने से चोरी-छुपे अपना बम बनाने का कार्यक्रम जारी रखेगा। यद्यपि बुनियादी ढांचे पर सहमति होते ही राष्ट्रपति ओबामा ने खाड़ी के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को फ़ोन लगाकर उन्हें उनके हितों का ध्यान रखने का आश्वासन दिया।
 
ईरान और अमेरिका जो आज शत्रु राष्ट्र हैं किन्तु समझौता होते ही स्थितियां बदलने के अनुमान हैं।  ईरानी क्रांति से पहले शाह के समय ईरान और अमेरिका मित्र होते थे।  लगता है  कूटनीति,  एक लम्बा चक्र पूर्ण कर उसी स्थान पर पुनः पहुंच गई है। जाहिर है राष्ट्रों के आपसी सम्बन्ध स्थाई नहीं होते। शासन बदलने के साथ नीतियों में परिवर्तन होता है और राजनेता अपने राजनीतिक लाभों के लिए कूटनीतिक खेल रचते हैं जहां देशप्रेम की भावना को भड़काया जाता है। कभी भीतरी घात तो कभी बाहरी खतरों का डर दिखाकर दैनंदिन की समस्याओं से जनसाधारण का ध्यान हटा दिया जाता है। परमाणु बम को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर ईरान के नेताओं ने जनता को अंतरराष्‍ट्रीय प्रतिबंधों की वजह से रोज़मर्रा की अनेक जीवनपयोगी वस्तुओं एवं जीवनरक्षक दवाइयों से वंचित कर रखा है।
 
इस समझौते के साथ अनेक बड़े प्रश्न खड़े होंगे जिनके उत्तर आधुनिक संसार में विश्व शांति की रूपरेखा तय करेंगे। ईरान के अमेरिका के नज़दीक जाने से क्या दो जानी दुश्मन देश सऊदी अरब और इसराइल निकट आएंगे? क्या आने वाले वर्षों में ईरान के विरुद्ध पूरे खाड़ी के देश लाम बंद हो जाएंगे? क्या ईरान पड़ोसियों के विरुद्ध अपना आक्रामक रुख जारी रखेगा या एक जिम्मेदार महाशक्ति की तरह आचरण करेगा? 
 
क्या अमेरिका मध्यपूर्व में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अब ईरान का इस्तेमाल करेगा? क्या विडम्बना है। दुनिया वही समीकरण नए। नेता वही, आचरण विषम। भौगोलिक सीमाएं वहीं, दृष्टिकोण भिन्न। केवल जो बदली नहीं है, वह है जनता। उसे सुकूनभरी जिंदगी चाहिए। अफ़सोस यह कि राजनीतिक नेताओं  की प्राथमिकताओं की सूची में यह बात अंतिम पायदान पर रहती है।