गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. Indian politics
Written By अनिल जैन

नया दल बनेगा, पर कब तक टिकेगा?

नया दल बनेगा, पर कब तक टिकेगा? - Indian politics
भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसी दलों की एकता और बिखराव का सिलसिला पुराना है। 1977 में जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से चार प्रमुख गैर कांग्रेस दलों भारतीय जनसंघ, भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी और संगठन कांग्रेस के विलय से जनता पार्टी अस्तित्व में आई थी लेकिन यह प्रयोग मात्र ढाई वर्षों में ही अकाल मृत्य का शिकार हो गया।
जनता पार्टी से अलग होकर सभी घटकों ने अपने जो नए राजनीतिक आशियाने बनाए थे, उनमें भाजपा ही एकमात्र ऐसी पार्टी रही, जिसने न सिर्फ अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत बनाए रखा, बल्कि लगातार उसका विस्तार करते हुए वह अपने को देश की राजनीति के एक ध्रुव के रूप में स्थापित करने में भी कामयाब रही। उसके विपरीत बाकी जो दल जनता पार्टी से अलग हुए थे वे समय-समय पर अलग-अलग शक्ल में धूमकेतू की तरह चमके जरूर और अल्पकाल के लिए सत्ता में भी आए लेकिन लगातार टूट-फूट का शिकार होते हुए अपनी राजनीतिक जमीन खोते गए। बीते ढाई दशक के दौरान ये तमाम गैर कांग्रेस और गैर भाजपा दल इतनी बार एक हुए हैं और इतनी बार अलग हुए हैं कि अब इनकी एकता के किसी भी प्रयास की चर्चा को गंभीरता से न लेने की जनता को आदत हो गई है। 
 
अलबत्ता देश में दो दलीय या दो ध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था की पैरोकार भाजपा और कांग्रेस जरूर इन पार्टियों की ऐसी किसी भी पहलकदमी पर भड़क उठती है और ऐसी कोशिश करने वाले नेताओं और दलों को खरी-खोटी सुनाती हैं, जिससे ऐसा लगता है कि वे शायद इनको गंभीरता से लेती हैं। फिलहाल देश की राजनीति में बार-बार जुड़ने और टूटने को अभिशप्त समाजवादियों की कई टुकड़ों में बंटी जमात एक बार फिर एकजुट होने जा रही है। इस बार उसकी यह एकजुटता किसी मोर्चे की शक्ल में नहीं, बल्कि बाकायदा एक दल के रूप में होना प्रस्तावित है।
 
दरअसल, पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों से इन पार्टियों को अहसास हो गया है कि भाजपा को क्षेत्रीय स्तर की राजनीति करते हुए चुनौती देना अब मुश्किल है और उसके खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर ही लड़ाई लड़ी जा सकती है। चूंकि मोर्चा बनाने के तमाम प्रयोग नाकाम रहे हैं, जिसकी वजह से जनता में भी तीसरे मोर्चे की कोई साख नहीं बची है। इसीलिए इस बार नई पार्टी बनाने का फैसला किया गया है, ताकि भाजपा के पाले में जा चुके अपने परंपरागत पिछड़े जनाधार को फिर से हासिल किया जा सके और भाजपा विरोधी लेकिन कांग्रेस से भी नाराज सामाजिक तबकों, खासकर अल्पसंख्यकों में भरोसा पैदा किया जा सके।
 
पिछले महीने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की पहल पर समाजवादी विचारधारा वाले जनता परिवार के प्रमुख नेताओं की बैठक में भाजपा और कांग्रेस से इतर पार्टियों का एक महामोर्चा बनाने का फैसला हुआ था और हाल ही हुई बैठक में इन नेताओं ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए अपने-अपने दलों के विलय से एक नई पार्टी बनाने का फैसला किया है। उनकी यह पहल जहां मौजूदा राजनीतिक माहौल में थोड़ी उम्मीद जगाती है, तो बहुत ज्यादा निराश भी करती है। इस समय एक ओर केंद्र में सत्तारुढ़ होने के बाद भाजपा के हौसले आसमान छूने को बेताब हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस लगातार कुम्हला रही है। केंद्र के बाद राज्यों से भी उसकी बेदखली का सिलसिला शुरू हो गया है। लोकसभा चुनाव में उसकी ऐसी दारुण पराजय हुई है कि वह ठीक से विपक्ष की भूमिका निभाने लायक भी नहीं रही है। 
 
तृणमूल कांग्रेस और अन्नाद्रमुक को छोड़ दें तो बाकी तमाम दलों यहां तक कि वामपंथी दलों की भी लोकसभा चुनाव में जबरदस्त धुनाई हो चुकी है। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी की करिश्माई अगुआई में भाजपा के सामने आज कोई सशक्त चुनौती नहीं है। विकल्पहीनता और विपक्षहीनता की यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र के लिए किसी भी लिहाज से शुभ नहीं कही जा सकती। ऐसे में टुकड़ों में बंटे पुराने समाजवादियों यानी जनता परिवारियों की बेचैनी और एकजुट होने की यह पहल प्रासंगिक मानी जा सकती है, क्योंकि स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा है कि विपक्ष मजबूत हो। लेकिन पुराने अनुभवों के मद्देनजर अहम सवाल यही है कि इन झगड़ालू और अहंकारी नेताओं की यह पहल कितनी कारगर और टिकाऊ होगी?
 
उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी, बिहार का जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनता दल, कर्नाटक का जनता दल (सेक्युलर), हरियाणा का इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) और नाममात्र की समाजवादी जनता पार्टी-ये सभी पार्टियां जनता दल से ही निकली हैं। इसी महीने के पहले सप्ताह में इन पार्टियों के शीर्ष नेताओं मुलायम सिंह यादव, एचडी देवगौड़ा, शरद यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, दुष्यंत चौटाला, कमल मुरारका आदि ने एक बैठक में अपनी-अपनी पार्टी का विलय कर एक नई पार्टी बनाने का फैसला किया। जनता दल (यू) के महासचिव केसी त्यागी के मुताबिक नया दल नए वर्ष की शुरुआत में अस्तित्व में आ जाएगा। नए दल के नेतृत्व को लेकर हालांकि औपचारिक तौर पर कोई ऐलान नहीं किया गया है लेकिन संकेत यही हैं कि इस नए दल के मुखिया मुलायम सिंह होंगे। सभी छह दलों के विलय तथा नए दल के गठन की रूपरेखा तय करने का जिम्मा भी उन्हें ही सौंपा गया है।
 
गांधी, लोहिया, जयप्रकाश की वैचारिक विरासत और जनता दल के साझा इतिहास के अलावा इन नेताओं के लिए एक वर्तमान भी साझा है। इनके प्रभाव वाले राज्यों में भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव में बहुत जोरदार प्रदर्शन किया है। हालांकि समाजवादी पार्टी और जनता दल (यू) की अपने-अपने राज्य में सरकारें हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में इन्हें गिनती की सीटें मिली हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा कर्नाटक के बहुत अनुभवी जमीनी नेता होने के बावजूद अपने राज्य में लगभग अप्रासंगिक हो गए हैं। बिहार में इसी स्थिति ने नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे धुर विरोधी नेताओं को साथ आने को मजबूर कर दिया। दोनों का साथ आना इस मायने में सफल रहा कि जनता दल (यू) की सरकार भी राज्य में बनी रही और उपचुनावों में वे भाजपा को बढ़त लेने से रोकने में भी कामयाब रहे। 

चूंकि ये पार्टियां अपने-अपने राज्यों तक ही सिमटी हुई हैं और साथ ही कमोबेश एक नेता पर आधारित हैं, इसलिए एक-दूसरे के राज्य में इनका कोई स्वार्थ नहीं है। राष्ट्रीय राजनीति में इनके हित जरूर टकराते रहे हैं लेकिन फिलहाल राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा से ज्यादा इन्हें अपना वजूद और दबदबा बनाए रखने की फिक्र है। यही फिक्र इन्हें साथ आने को मजबूर कर रही है। हाल ही में महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत ने भी इन नेताओं को एक साथ बैठने के लिए मजबूर किया है। भारत की राजनीति पिछले करीब पंद्रह वर्षों से कांग्रेस और भाजपा के इर्दगिर्द बने गठबंधनों पर आधारित रही है। बाकी पार्टियां अपनी सुविधा के अनुसार इस या उस गठबंधन के साथ आती-जाती रही हैं। चुनावों के वक्त जरूर तीसरे मोर्चे को खड़ा किया जाता रहा, लेकिन पिछले तीन लोकसभा चुनाव में दोनों बड़ी पार्टियों को इतनी सीटें मिलती रहीं कि अन्य पार्टियों के पास किसी गठबंधन में शामिल होने का ही विकल्प बचता था। 
 
अब जो स्थिति है उसमें भाजपा को गठबंधन की जरूरत नहीं है, बल्कि उसकी महत्वाकांक्षा तो छोटी पार्टियों पर अपनी निर्भरता खत्म करने की है, जैसा कि हाल ही में उसने महाराष्ट्र और हरियाणा में किया भी है। दूसरी ओर गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन इतना दयनीय रहा है कि न तो वह भाजपा विरोधी किसी भी गठबंधन की धुरी बनने की हालत में है और न ही निकट भविष्य में उसके फिर से मजबूत होने के कोई आसार फिलहाल दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में भाजपा के खिलाफ विपक्ष की जगह खाली है। सवाल है कि क्या जनता परिवार के नेताओं में अपनी नई पार्टी को इस लायक बनाने की कूवत है कि वह इस खाली जगह को भर सके?
 
बेशक देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कई सवालों के बावजूद भाजपा और कांग्रेस से इतर एक मोर्चे या दल के रूप में तीसरी राजनीतिक ताकत की गुंजाइश और संभावनाएं बनी हुई हैं। मगर इसकी कुछ शर्तें और तकाजे भी हैं। सवाल है कि इन शर्तों या तकाजों को कौन पूरा कर सकता है? ऐसी कई वजहें मौजूद हैं जो कांग्रेस और भाजपा से अलग किसी तीसरे गठबंधन की संभावनाओं को बाधित करती हैं। पहली और सबसे अहम वजह तो यह है कि प्रस्तावित नए दल में विलीन होने वाले दलों में एक भी ऐसा नहीं है जिसका एक से अधिक राज्यों में जनाधार हो। यही समस्या इन दलों के तमाम शीर्ष नेताओं के साथ भी है। मुलायम, नीतीश, लालू, शरद, देवगौड़ा आदि नेता शायद ही कोई नया आकर्षण पैदा कर पाएं। फिर इन नेताओं में भी ऐसा कोई नहीं है, जिसका नेतृत्व सबको आसानी से स्वीकार्य हो और जो सबको एकजुट रख सके। 
 
हालांकि अभी सबने मुलायम सिंह की अगुआई में नए दल का गठन की बात कही है लेकिन ये लोग कितने वक्त तक और किस हद तक मुलायम सिंह के नेतृत्व में काम कर पाएंगे, यह अभी नहीं कहा जा सकता। नया दल बनाने को आतुर तमाम नेता कभी न कभी कांग्रेस या भाजपा के पाले में रह चुके हैं। इनमें से कोई भी किसी भी बात पर नाराजगी के चलते छिटककर अलग हो सकता है या फिर से कांग्रेस या भाजपा का दामन थाम सकता है। जनता परिवार को एकजुट करने की पहल के सूत्रधार खुद मुलायम सिंह इस मामले में बहुत संजीदा नहीं रहे हैं। बीते डेढ़ दशक के दौरान कई मौकों पर तीसरे मोर्चे के गठन की कोशिशों पर पानी फेर चुके मुलायम सिंह ने एक समय कुछ क्षेत्रीय दलों का गठजोड़ बनाया था लेकिन अमेरिका से परमाणु करार के मसले पर वामपंथी दलों के यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद वे यूपीए सरकार को बचाने चले गए और अपने बनाए गठजोड़ को खुद उन्होंने ही पलीता लगा दिया। इसके बाद राष्ट्रपति चुनाव और खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) जैसे कई और मसले गिनाए जा सकते हैं जब उन्होंने अचानक अपना रुख बदल लिया। ऐसी साख लेकर वे नए दल को विश्वसनीय नेतृत्व दे पाएंगे, इसमें संदेह की भरपूर गुंजाइश है। 
 
जनता परिवार के सभी नेता अतीत में भी भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति और कांग्रेस की बाजार आधारित आर्थिक नीतियों के विरोध के नाम पर एकजुट होते रहे हैं लेकिन हर बार इनकी एकजुटता महज एक रणनीतिक गठबंधन बनकर रह गई। इसके पिछले तमाम संस्करण विशुद्ध रूप से क्षत्रपों की निजी महत्वाकांक्षाओं के गठजोड़ की शक्ल में ही दिखाई देते रहे हैं। शायद इसीलिए ये कभी टिकाऊ और विश्वसनीय विकल्प नहीं दे सके और टूटकर अलग-अलग खेमों में बंटते रहे। अब तो नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर भी जनता परिवार के दलों में ऐसी कोई भिन्नता नहीं बची है जो उन्हें कांग्रेस या भाजपा से अलग दिखाती हो। ये तमाम दल एक तरफ घनघोर वंशवाद, व्यक्तिवाद और एकांगी धर्मनिरपेक्षता के शिकार रहे हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में लगे हैं जिनकी पैरोकारी करते कांग्रेस और भाजपा थकती नहीं हैं। इसके अलावा भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते भी इस कुनबे के कई नेताओं के इकबाल में काफी कमी आई है। 
 
लेकिन इस सबके बावजूद कुछ बातें हैं जो प्रस्तावित नए दल के महत्व को रेखांकित करती हैं। चूंकि लोकसभा में जनता परिवार के इन दलों की सदस्य संख्या महज 15 है, लिहाजा वहां उनकी एकता का कोई खास असर नहीं होगा, लेकिन राज्यसभा में इनके कुल मिलाकर 25 सदस्य हैं और वहां भाजपा को बहुमत हासिल नहीं है, लिहाजा ये 25 सांसद सदन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर प्रभावशाली भूमिका अदा कर सकते हैं। फिर यह एक ऐसी पार्टी होगी, जिसकी मौजूदगी देशभर में भले ही न हो, पर किसी एक प्रदेश तक सिमटी हुई भी नहीं होगी। उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और हरियाणा तो उसके प्रभाव क्षेत्र होंगे ही, कुछ अन्य राज्यों में भी वह थोड़े-बहुत पैर पसार सकती है। हो सकता है कि आने वाले समय में ओडिशा का बीजू जनता दल और चौधरी अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल भी इस नई पार्टी में शामिल हो जाएं, क्योंकि दोनों ही अतीत में जनता परिवार के हिस्से रहे हैं। विलय के लिए तैयार इन दलों ने महीनेभर पहले ही संसद में एकजुट होकर समान रुख अपनाने का फैसला कर लिया था। 
 
आर्थिक उदारीकरण यानी बाजार-केंद्रित कई मसलों पर कांग्रेस और भाजपा का रुख समान रहा है, इसलिए ऐसे मसले लेकर सरकार के किसी भी फैसले का विरोध करना कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा, क्योंकि आने वाले कई संभावित विधेयकों की इबारत तो यूपीए सरकार के समय ही लिखी जा चुकी है। फिर सरकार को लोकसभा में तो वैसे भी अपने आरामदायक बहुमत के चलते फैसले लेने में कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन राज्यसभा में ऐसा नहीं हो सकेगा। वहां सरकार के पास बहुमत नहीं है और ऐसे में प्रस्तावित नया दल अपने 25 सदस्यों के संख्या बल के दम पर विपक्ष के तौर पर कांग्रेस से ज्यादा असरदार भूमिका निभा सकता है। यही नहीं, सड़कों पर भी अपने आक्रामक तेवरों से यह नया दल भाजपा के लिए थोड़ी परेशानी पैदा कर सकता है, क्योंकि जनता से संवाद बनाने के मामले में इसके नेताओं का रिकॉर्ड कांग्रेस से कहीं ज्यादा बेहतर है। यही वह बात है जो भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए समान रूप से चिंता का कारण बन सकती है। 
 
यह सही है कि भाजपा या नरेंद्र मोदी की बढ़ी हुई ताकत के भय ने ही जनता परिवार की पार्टियों को एक होने के लिए प्रेरित किया है। लेकिन अगर भाजपा या मोदी की चुनौती का सामना करने के लिए नया दल बनता है तो इसमें क्या हर्ज है! मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश और नीतीश-लालू बिहार विधानसभा के अगले चुनाव को लेकर भी चिंतित होंगे। लेकिन महज चुनावी जीत-हार की चिंता को लेकर या एकपक्षीय सांप्रदायिकता-विरोध के सहारे बनाई जाने वाली रणनीति ज्यादा दूर तक नहीं जा सकती। विपक्ष की राजनीति में उभरे शून्य को भर कर ही भाजपा की चुनौती का मुकाबला और विकल्पहीनता की स्थिति को खत्म किया जा सकता है। सांप्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता के आग्रह का अपना महत्व है लेकिन इसी के साथ आर्थिक नीतियों को जनपक्षधर बनाने की लड़ाई लड़कर ही इस शून्य को भरा सकता है। सवाल यही है कि क्या जनता परिवार के नेताओं में ऐसा करने का माद्दा है?