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Last Updated : गुरुवार, 25 सितम्बर 2014 (20:35 IST)

पुलिस को हत्यारी बनने से रोकने की पहल

पुलिस को हत्यारी बनने से रोकने की पहल - Indian police
-अनिल जैन
 
लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव ही नहीं होता। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कसौटी यह है कि उसमें मानवाधिकारों की कितनी हिफाजत और इज्जत होती है। इस मामले में भारतीय लोकतंत्र का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। हमारे यहां पुलिस का रवैया लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के तकाजों से कतई मेल नहीं खाता है। आम आदमी पुलिस की मौजूदगी में अपने को सुरक्षित और निश्चिंत महसूस करने के बजाय उसे देखकर ही खौफ खाता है। फर्जी मामलों में किसी बेगुनाह को फंसाने और पूछताछ के नाम पर अमानवीय यातना देने की घटनाएं आमतौर पर पुलिस की कार्यप्रणाली का अहम हिस्सा बन गई हैं।
हिरासत में होने वाली मौतों के साथ ही फर्जी मुठभेड़ में होने वाली हत्याएं इस सिलसिले की सबसे क्रूर कड़ियां हैं। अफसोस की बात यह भी है कि हमारी सरकारें और ज्यादातर राजनीतिक जमातें इस पुलिसिया क्रूरता पर अमूमन चुप्पी साधे रहती हैं। अलबत्ता हमारी न्यायपालिका खासकर सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर फर्जी मुठभेड़ और हिरासत में मौत के मामलों को गंभीरता से लेते हुए सख्त रुख अपनाया है और केंद्र व राज्य सरकारों को कड़ी फटकार लगाई है।
 
कुछ समय पहले वह अपने एक फैसले में इस तरह की घटना को वर्दी में की गई हत्या करार देकर दोषी पुलिसकर्मियों को मौत की सजा देने तक की सिफारिश भी कर चुका है। पर यह पहला मौका है, जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मुठभेड़ की बाबत पुलिस के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं और उनका सख्ती से पालन करने को कहा है। नागरिक अधिकारों को हमारे संविधान की बुनियाद माना गया है और सुप्रीम कोर्ट को संविधान के संरक्षक की भूमिका हासिल है इसलिए सुप्रीम कोर्ट यह रुख उसकी भूमिका और उससे की जाने वाली अपेक्षा के अनुरूप ही है।
 
पुलिस के लिए दिशा-निर्देश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि इस हकीकत को स्वीकार किया है कि पुलिस को आतंकवादियों, संगठित अपराधिक गिरोहों और जघन्य अपराधियों से मुकाबला करना पड़ता है। इसमें पुलिस को अपने लिए खतरा उठाकर कार्रवाई करनी पड़ती है। बेशक, ऐसा करना पुलिस के कर्तव्य का हिस्सा है लेकिन इसके बरक्स फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं भी होती रहती हैं। इसके पीछे बड़ा कारण पुरस्कार या पदोन्नति का लोभ होता है इसलिए शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया है कि मुठभेड़ वास्तविक थी, यह साबित होने के बाद ही मुठभेड़ में शामिल पुलिसकर्मी को बिना बारी के पदोन्नति का लाभ दिया जाए।
 
अदालत का यह व्यवस्था देना भी महत्वपूर्ण है कि पुलिस मुठभेड़ में होने वाली हर मौत पर एफआईआर दर्ज की जाए और सीआरपीसी की धारा 176 के तहत उसकी जांच सीआईडी या किसी अन्य जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट से कराई जाए। जांच रिपोर्ट राज्य मानवाधिकार आयोग अथवा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजनी होगी। अगर कोई फर्जी मुठभेड़ का मामला हो, तो मारे गए व्यक्ति के परिजन मुकदमा दायर कर सकते हैं। 
 
प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढा की अध्यक्षता वाली पीठ के आदेश में यह भी कहा गया है कि पुलिस वालों को अपराधियों के बारे में मिली सूचना को रिकॉर्ड कराना होगा और हर मुठभेड़ के बाद अपने हथियार तथा कारतूस जमा कराने होंगे।
 
शीर्ष अदालत के इन निर्देशों का प्रभाव यह होगा कि पुलिस अपराधी को पकड़कर कानूनी प्रक्रिया के हवाले करने को पहले से कहीं अधिक प्राथमिकता देगी, वह गोली तभी चलाएगी जब अपने बचाव या विवशता में ऐसा करना जरूरी हो। अपने फैसले के जरिए सर्वोच्च अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 21 की याद भी दिलाई है जिसमें देश के हर नागरिक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार दिया गया है। पर इस अनुच्छेद के विरोधाभास भी हमारे कई कानूनों में मौजूद हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) है जिसके तहत सुरक्षा बलों को दंडमुक्ति के आश्वासन के साथ किसी भी हद तक जाने की छूट हासिल है; उनके खिलाफ केंद्र की इजाजत के बगैर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती।
 
विवादास्पद कानून से मिली यह निरंकुशता ही जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में फर्जी मुठभे़ड़ की घटनाओं की जड़ रही है। मणिपुर हो या जम्मू-कश्मीर, जब भी वहां तैनात सशस्त्र बलों पर फर्जी मुठभेड़ में किसी को मार दिए जाने, लूटपाट करने या महिलाओं से बलात्कार करने के आरोप लगते हैं और उनकी जांच कराने की मांग उठती हैं तो हमारी सरकार का एक ही घिसा-पिटा जवाब होता है कि ऐसा करने से सुरक्षा बलों का मनोबल गिरेगा। जनता के मनोबल का क्या होगा, इस बारे में सरकार कभी नहीं सोचती। यह भी कभी नहीं सोचा जाता कि कुछ सुरक्षाकर्मियों के दुष्कृत्य के चलते पूरी सेना की साख पर आंच क्यों आने दी जाए?
 
दरअसल, अस्सी के दशक में आतंकवाद से जूझते पंजाब और अंडरवर्ल्ड गतिविधियों से हलाकान मुंबई से शुरू हुई फर्जी मुठभेड़ों की बीमारी देखते-देखते पूरे देश में फैल गई। पुलिस और सुरक्षा बलों ने मुकदमेबाजी के चक्कर से बचने के लिए अपराधियों/आरोपियों को 'टपका देने' यानी मार गिराने की एक तरह से अघोषित नीति ही बना ली। इस पुलिसिया नीति को राजनीतिक नेतृत्व की भी परोक्ष शह हासिल रही है। इसीलिए एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहलाने वाले विवादित पुलिस अधिकारियों को प्रमोशन या वीरता पदक से नवाजने के भी उदाहरण मिलते रहते हैं।
 
पर्दे के पीछे से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की सरकारी नीति का ही नतीजा है कि ऐसी घटनाएं समय के साथ बढ़ती गईं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक 2002 से 2008 के बीच देशभर में कथित फर्जी मुठभेड़ों की 440 घटनाएं दर्ज की गई थीं, जबकि 2009-10 से फरवरी 2013 के बीच संदिग्ध फर्जी मुठभेड़ों के 555 मामले दर्ज किए गए।
 
यह समस्या कितनी गंभीर हो चली है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि तीन वर्ष पूर्व अगस्त 2011 में तो सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान पुलिस के हाथों फर्जी मुठभेड़ में हुई एक मौत के मामले की सुनवाई करते हुए ऐसे मामलों में दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी की सजा देने तक सुझाव दे दिया था। मामला यह था कि अक्टूबर, 2006 में राजस्थान पुलिस ने दारा सिंह नामक एक कथित अपराधी को मार डाला था और यह प्रचारित किया था कि वह मुठभेड़ में मारा गया है। इस मामले में पुलिस के कई बड़े अधिकारी भी शामिल थे। राज्य के एक पूर्व मंत्री और भाजपा नेता समेत कुल सोलह आरोपियों में से कई तो सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के वक्त तक फरार थे। 
 
मई 2011 में भी इसी तरह के एक मामले को दुर्लभ में भी दुर्लभतम किस्म का अपराध करार देते हुए तथा आरोपी पुलिसकर्मियों की जमानत याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यही सुझाव दिया था। यह सुझाव देते हुए न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति सीके प्रसाद ने सवाल किया था कि पुलिस को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह लोगों को अपराध और अपराधियों से बचाए लेकिन अगर पुलिस ही अपराध करने लगे या किसी की जान लेने लगे तो कानून के शासन का क्या होगा? जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया था, इत्तेफाक से उसी दिन जम्मू में मानसिक रूप से बीमार एक व्यक्ति को आतंकवादी बताकर मार दिए जाने की खबर आई थी। बाद में हुई जांच से पता चला था कि पुरस्कार और पदोन्नति पाने के चक्कर में एक 'आतंकवादी' को मुठभेड़ में मार गिराने का यह झूठा किस्सा गढ़ा गया था।
 
वैसे पुरस्कार और पदोन्नति के लालच के अलावा सबूत मिटाने के मकसद से भी कई बार फर्जी मुठभेड़ का नाटक रचा जाता है। कुछ वर्ष पहले सोहराबुद्दीन, उसकी बीवी कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की पुलिस द्वारा हत्याएं इसीलिए की गई थीं। इस मामले में अदालत के सख्त रुख के चलते गुजरात के कई आला पुलिस अधिकारियों को जेल जाना पड़ा। इसी तरह का मामला कुछ साल पहले माओवादी नेता चेरूकुरि राजकुमार उर्फ आजाद और पत्रकार हेमचंद्र पांडेय की आंध्रप्रदेश पुलिस के हाथों हुई मौत का भी है। इस मामले की जांच कराने में आंध्रप्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के बाद भी आनाकानी करती रही। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में इन दोनों के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की पुष्टि हुई थी। इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हमारा गणतंत्र इस तरह अपने बच्चों को नहीं मार सकता।
 
दरअसल, समाज में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिक जीवन में पुलिस की मौजूदगी तो एक अनिवार्य तथ्य के रूप में स्वीकृत है ही, साथ ही उसकी क्रूरता और भ्रष्टाचार भी। पुलिस की इस क्रूरता और भ्रष्टाचार के आगे आम आदमी असहाय है। औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक पुलिस की क्रूरता की हजारों कहानियां फैली हुई हैं। देश-विदेश के नागरिक और मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों तथा समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी पुलिस की क्रूरता के ब्योरे मिलते हैं। आजादी के बाद भारतीय गणतंत्र में पुलिस की बदली हुई भूमिका अपेक्षित थी लेकिन औपनिवेशिक भूत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा।
 
वर्षों पूर्व इलाहाबाद हाई कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला की पुलिस के बारे में की गई टिप्पणी आज भी मौजूं है। उन्होंने पुलिस हिरासत में हुई मौत के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था- 'भारतीय पुलिस अपराधियों का सर्वाधिक संगठित गिरोह है।' आज भी पुलिस की यही स्थिति बनी हुई है।
 
पुलिस मुठभेड़ के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा दिशा-निर्देश मणिपुर के गुमशुदा लोगों के परिजनों के संगठन की याचिका पर आए हैं। इस संगठन ने राज्य के करीब डेढ़ हजार लोगों के फर्जी मुठभेड़ में मारे की शिकायत के साथ सुप्रीम कोर्ट में जांच कराने की अपील की थी। हालांकि अदालत ने सिर्फ छह चुनिंदा मामलों की जांच के लिए न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, पर समिति ने जांच में सभी छह मुठभेड़ों को फर्जी पाया। इनमें मारे जाने वालों में एक बच्चा भी था। ऐसे मामलों में न्याय दिलाने में हमारी राज्य-व्यवस्था की कोई दिलचस्पी नहीं दिखती, बल्कि वह संवेदनहीन नजर आती है। सच्चाई पर परदा डालना भी उसकी आदत हो गई है, जिसका ताजा उदाहरण यह है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक पिछले साल फर्जी मुठभेड़ की सिर्फ दो घटनाएं हुईं, दोनों असम में। इस पर अदालत ने भी हैरत जताई है। बहरहाल, विचाराधीन कैदियों की रिहाई के आदेश के तत्काल बाद मानवाधिकारों के पक्ष में अदालत का यह दूसरा अहम फैसला है। देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के ये दिशा-निर्देश भारतीय पुलिस को किस हद तक पेशेवर, कार्यकुशल और साथ ही नागरिक अधिकारों के प्रति कितना संवेदनशील बनाते हैं।