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Last Modified: गुरुवार, 13 नवंबर 2014 (16:52 IST)

इतिहास व संस्कृ‍‍ति लेखन का शुद्धिकरण

इतिहास व संस्कृ‍‍ति लेखन का शुद्धिकरण - Indian History
-विष्णु गुप्त 
 
भेद भी देखिए- एकांकी सोच व आयातित संस्कृति के पक्ष में इनकी समर्पित निष्ठाएं भी देखिए। देश की मूल संस्कृति और देश के मूल इतिहास पुरुषों के संबंध में एनसीईआरटी व विश्वविद्यालयों में अतिरंजित व विछोहपूर्ण झूठी बातें जरूर परोसी गई हैं, पर अन्य समूहों व अन्य धार्मिक मान्यताओं व विश्वासों पर कोई अंगुली क्यों नहीं उठाई गई है...
 
इतिहास व संस्कृति की पुस्तकों व लेखन में भारतीय इतिहास व संस्कृति को लेकर अंतिरंजित, झूठे, मनगढ़ंत और लांछित-अपमानित करने वाले अध्यायों का शुद्धिकरण एक अहम प्रश्न है जिस पर निश्चित तौर पर विचार किया जाना चाहिए और यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी भी प्रत्यारोपित, धनविचार से ग्रसित, परदेश की संप्रभुता से प्रेरित और किसी वाद से विक्षिप्त व्यक्ति को भारतीय वीरगाथाओं व भारतीय संस्कृति के प्रेरक अनुभूतियों-भारतीय प्रेरक प्रतीकों के साथ वीभत्स व कलंकित व्यवहार करने व खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। देश के अंदर तटस्थ व देशप्रेमी ही नहीं, बल्कि दुनिया के बड़े व तटस्थ लेखक, इतिहासकार और संस्कृति सहचर हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भारत अपने इतिहास व संस्कृति पर गौरवभाव, आदरभाव, सम्मानभाव क्यों नहीं रखता है? भारतीय लेखक, भारतीय बुद्धिजीवी, भारतीय इतिहासकार, भारतीय समाजशास्त्री भारतीय इतिहास व संस्कृति पर गौरवभाव रखने की जगह भारतीय इतिहास व भारतीय संस्कृति की कब्र क्यों खोदते हैं, लांछित क्यों करते हैं, दुराग्रह क्यों रखते हैं? 
 
यह सही है कि दुनिया में सिर्फ भारत ही अकेला देश है जिसके उच्च कोटि के नागरिक जैसे लेखक, साहित्यकार, समाजशास्त्री व अन्य बुद्धिजीवी वर्ग भारत की गौरवगाथा, भारत की सांस्कृतिक समृद्धि व वीर कथाओं और प्रेरक महापुरुषों को मिथक, सामंती व शोषक तथा अत्याचारी बताते हैं। इस खेल में सत्ता भी शामिल होती है। 'मूल संस्कृति, मूल इतिहास की कब्र खोदो और आयातित संस्कृति, आयातित इतिहास को गले लगाओ' के सिद्धांत पर देश की सत्ता निर्धारित होती रही है। इसी राजनीतिक विसंगतियों व करतूतों की फांस पर देश के स्वाभिमान व गौरव के प्रतीकों को टांग दिया जाता है। इतिहास में यह दर्ज है कि जो देश, जो समुदाय, जो समूह, जो व्यवस्था अपने प्रेरक व अनुकरणीय प्रतीक चिह्नों, अनुकरणीय संस्कृति पर गौरव नहीं रखता उस देश, उस समुदाय, उस समूह, उस व्यवस्था का पतन होना निश्चित है।
 
तथाकथित इतिहासकारों व समाजशास्त्रियों ने कैसे-कैसे देश के गौरव, सम्मान व स्वाभिमान के प्रतीक चिह्नों और अनुकरणीय प्रतीक पुरुषों को लांछित, अपमानित करने, कलंकित करने के लिए प्रत्यारोपित कहानियां-तथ्य गढ़े हैं, प्रत्यारोपित तथ्य गढ़े हैं उसका लेखा-जोखा देख लेना चाहिए। अगर आप देशप्रेमी हैं, अपनी विरासत व गौरव के प्रतीकों पर आप श्रद्धा रखते हैं तो इस लेखा-जोखा को देखने के बाद आपको आक्रोश जरूर होगा और ऐसे इतिहासकारों व समाजशास्त्रियों से आपको घृणा जरूर होगी। एनसीईआरटी व विश्वविद्यालय की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है कि सरदार भगत सिंह आतंकवादी थे, महाराणा प्रताप हिन्दू जमींदार थे, शिवाजी लुटेरे व अत्याचारी थे, सिखों के महान गुरु गोविन्द सिंह मुगलों के दरबार में मुंसिफ थे, गुरु तेगबहादुर अपराधी व लुटेरे थे, गाय खाना हिन्दू धर्म में सम्मान की बात थी, आर्य गाय खाते थे, आर्य बाहरी थे, आर्य आक्रमणकारी थे, सिंधु व हड़प्पा संस्कृति सामान्य दर्जे की थी। वह मात्र 2 हजार साल पूर्व विकसित हुई थी। इसके अलावा भी अन्य चिंतनीय और शोचनीय अध्याय हैं।
 
विचारणीय बिंदु एक नहीं, अनेक हैं। सरदार भगत सिंह क्या सही में आतंकवादी थे, गुरु गोविन्द सिंह क्या सही में मुगलों के दरबार में मुंसिफ थे, क्या शिवाजी लुटेरे और अपराधी थे, क्या गुरु तेग बहादुर सही में अपराधी और लुटेरे थे, क्या सही में आर्य गाय खाते थे, क्या सही में हिन्दू गाय खाने को सम्मान की बात समझते थे? निश्चित तौर पर तथाकथित इतिहासकारों व समाजशास्त्रियों की ये सभी करतूतें झूठ और मनगढ़ंत हैं और सिर्फ देश के गौरव प्रतीकों को लांछित-अपमानित करने का खेल मात्र हैं। सरदार भगत सिंह आज भी युवाओं ही नहीं, बल्कि देश के सभी नागरिकों के प्रेरणा के स्रोत हैं। देश को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने में सरदार भगत सिंह के योगदान को कौन भूल सकता है? 
 
कम्युनिस्ट सरदार भगत सिंह को आईकॉन मानते हैं, पर इतिहास की पुस्तकों में कम्युनिस्ट इतिहासकार ही सरदार भगत सिंह को आतंकवादी बताने और घोषित कराने का खेल, खेले हैं। गुरु गोविन्द सिंह मुगलों के दरबार में कभी भी मुंसिफ नहीं थे। गुरु तेग बहादुर मुगलों के बर्बर, अन्यायी व जेहादी शासन के खिलाफ थे। मुगलों ने गुरु तेग बहादुर के दो बच्चों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया था इसलिए कि गुरु तेग बहादुर के दोनों बच्चों ने मुगलों की बर्बर, अन्यायी व जेहादी शासन की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। गुरु गोविन्द सिंह ने आयातित संस्कृति और मुगलों के बर्बर शासन के खिलाफ एक सशक्त आवाज दी थी। 
 
मुगलों की आयातित संस्कृति के खिलाफ लड़ने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने भक्ति जागरण किया था। गुरु तेग बहादुर और गुरु गोविन्द सिंह की प्रेरक अनुभूतियां और प्रेरक विरासत आज भी भारतीय लोगों के जीवन-व्यवहार को नियंत्रित व विकसित करने का काम करती हैं। दुनिया के एक नहीं, बल्कि अनेक इतिहासकार, समाजशास्त्री और लेखक शिवाजी को देशज विद्रोह और देशज संस्कृति के सेनानी मानते हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि देश के तथाकथित साहित्यकार, पत्रकार, समाजशास्त्री और कम्युनिस्ट तबके ने शिवाजी को हमेशा लुटेरे के रूप में ही प्रस्तुत करने का कार्य किया है। मराठा सरदार शिवाजी ने मुगलों के अन्यायी-जेहादी शासन को कभी चैन से सांस नहीं लेने दिया था। औरंगजेब के सभी हथकंडे नाकाम साबित हुए थे। इसी तरह हिन्दू धर्म से जुड़ी हुई कई अतिरंजित कहानियां गढ़ी हैं, जो झूठी हैं और हिन्दू धर्मावलंबियों को अपमानित करने वाली हैं।
 
भेद भी देखिए-एकांकी सोच व आयातित संस्कृति के पक्ष में इनकी समर्पित निष्ठाएं भी देखिए। देश की मूल संस्कृति और देश के मूल इतिहास पुरुषों के संबंध में एनसीईआरटी व विश्वविद्यालयों में अतरंजित व विछोहपूर्ण झूठी बातें जरूर परोसी गई हैं, पर अन्य समूहों व अन्य धार्मिक मान्यताओं व विश्वासों पर कोई उंगली क्यों नहीं उठाई गई है? अगर देश के विद्यार्थियों को पुरातन व मूल संस्कृति की विरासत और महापुरुषों के संबंध में मान्य-अमान्य तथ्य पढ़ाया जाना जरूरी है तो फिर आयातित संस्कृति की विसंगतियों व आयातित संस्कृति के महापुरुषों की मान्य-अमान्य करतूतों के संबंध में पढ़ाना कैसे व क्यों जरूरी नहीं है? खासकर जेहाद और मजहब के विस्तार में हुई मानवता के खून व हिंसा को पढ़ाया क्यों नहीं जाना चाहिए? अगर आर्य बाहरी थे, तो फिर मुगल कौन थे? नालंदा की विरासत को जलाने वाले कौन थे? 
 
देश की मूल संस्कृति को नष्ट करने वाले मुगल व अन्य मजहबी शासकों के लक्ष्य क्या थे? अल कायदा, तालिबान और आईएसआईएस की संस्कृति कैसे और क्यों मानवता के लिए घातक है? क्या आप सोच भी सकते हैं कि एनसीईआरटी व विश्वविद्यालयों की पुस्तकों में कभी भी अल कायदा, तालिबान, आईएसआईएस की संस्कृति के प्रेरणास्रोत के संबंध में अध्याय हो सकते हैं? अगर ऐसा हुआ तो उस इतिहासकार, उस समाजशास्त्री और उस सरकार के खिलाफ पूरी दुनिया में तेजाबी हमले शुरू हो जाएंगे, सलमान रुशदी की तरह फतवे पर फतवे जारी होने लगेंगे और इनकी कथित धर्मनिरपेक्षता का पतन हो जाएगा, पोल खुल जाएगी।
 
मूल प्रश्न को हम देखते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है। इसमें मुख्यत: दो बातें व दो धारणाएं काम करती हैं। एक यह धारणा व बात है कि मूल संस्कृति, मूल प्रतीक चिह्नों, मूल प्रेरक महापुरुषों को लांछित करो, अपमानित करो, कलंकित करो और धर्मनिरपेक्ष बनकर यश व मान-सम्मान कमाओ।  दूसरी धारणा और बात पैसे अर्जित करने, विलासितापूर्ण, अपसंस्कृतिपूर्ण जीवन के लिए संसाधन जुटाना है। ऐसे लेखकों, ऐसे साहित्यकारों, ऐसे इतिहासकारों, ऐसे समाजशास्त्रियों को पैसे व नौकरियों की कमी नहीं होती है, इन पर पैसे और नौकरियां बरसते हैं। विदेशों से भारत की विरासत और भारत के इतिहास को कलंकित करने के लिए अपार धन आता है, फैलोशिप मिलती है।
 
देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकारें भी ऐसे लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों, इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों पर जमकर कृपा बरसाती हैं। पिछले 10 साल के कांग्रेसी शासनकाल में भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति को लांछित-अपमानित करने का कार्य किस प्रकार से हुआ था, वह भी जगजाहिर है। कांग्रेसी शासन में एनसीईआरटी की पुस्तकों और विश्वविद्यालयों की पुस्तकों से भारतीय इतिहास व भारतीय संस्कृति से अतिरंजित, मिथक, अन्यायपूर्ण अध्यायों को हटाने की मांग उठी थी, पर कांग्रेसी शासन ने इस पर ध्यान देना भी उचित नहीं समझा था। अब राष्ट्रवादी सरकार से उम्मीद होनी चाहिए कि वह इतिहास व संस्कृति-लेखन का शुद्धिकरण करेगी?