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Written By Author ललि‍त गर्ग

कैसे लोकतंत्र दागी राजनीति से मुक्त होगा?

कैसे लोकतंत्र दागी राजनीति से मुक्त होगा? - Indian democracy, democracy, parliament, Indian politics, Indian politician
लोकतंत्र में शासनतंत्र की बागडोर जनता द्वारा चुने गए सांसदों एवं विधायकों के हाथों में होती है। भारतीय लोकतंत्र की यह दुर्बलता है कि यहां सांसदों-विधायकों का चुनाव अर्हता, योग्यता एवं गुणवत्ता के आधार पर न होकर, व्यक्ति, दल या पार्टी के धनबल, बाहुबल एवं जनबल के आधार पर होता है। यही कारण है कि राजनीति अपराधमुक्त नहीं बन पा रही है और इससे लोकतंत्र लगातार दूषित होता रहा है।

हाल ही में पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन दस वर्ष की जेल के बाद जब विशेष केंद्रीय कारागार से बाहर आए तो फूलों के गुलदस्ते लिए, झंडे फहराती, नारे लगाती एक विशाल भीड़ एवं कारों-गाड़ियों का काफिला उनका स्वागत कर रहा था। इस तरह शहाबुद्दीन के जमानत पर जेल से छूटने पर हजारों की भीड़ का स्वागत में जुटना देश के समूचे राजनीतिक चरित्र पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। क्योंकि यदि कोई शहाबुद्दीन निरपराध है तो दस साल तक जेल में क्यों रहा? और यदि अपराधी है तो उसे सजा मिलने में इतनी देर क्यों हो रही है? और भी गंभीर प्रश्न है कि आखिर एक जमानत पर रिहा व्यक्ति को इतना महिमामंडित किये जाने की क्या आवश्यकता थी?
 
बात केवल किसी शहाबुद्दीन की ही नहीं है बल्कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी की भी है जिसके ईमानदार विधायक और नेता कैसे चंद महीनों में ही दागी होते जा रहे हैं। जबकि पार्टी लगातार ये दावा करती रही है कि पार्टी में आने वाले हर नेता को गंभीर और गहन जांच के बाद ही टिकट दिया गया। लेकिन, अब अरविन्द केजरीवाल की इसी गंभीर और गहन जांच पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। केवल आम आदमी पार्टी ही नहीं, लगभग हर पार्टी से जुड़े आपराधिक नेताओं पर भी ऐसे ही सवाल समय-समय पर खड़े होते रहे हैं। कब हम राजनीति को भ्रष्टाचार एवं अपराध की लम्बी काली रात से बाहर निकालने में सफल होंगे। कब लोकतंत्र को शुद्ध सांसें दे पाएंगे? कब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र स्वस्थ बनकर उभरेगा?
 
लोकतंत्र की बुनियाद है राजनीति जिसकी जनता की आंखों में पारदर्शिता होनी चाहिए मगर आज राजनीति ने इतने मुखौटे पहन लिए हैं, छलनाओं के मकड़ी जाल इतने बुन लिए हैं कि उसका सही चेहरा पहचानना आम आदमी के लिए बहुत कठिन हो गया है। पिछले सात दशकों में जिस तरह हमारी राजनीति का अपराधीकरण हुआ है और जिस तरह देश में आपराधिक तत्वों की ताकत बढ़ी है, वह लोकतंत्र में हमारी आस्था को कमजोर बनाने वाली बात है।
 
राजनीतिक दलों द्वारा अपराधियों को शह देना, जनता द्वारा वोट देकर उन्हें स्वीकृति और सम्मान देना और फिर उनके अपराधों से पर्दा उठना, उन पर कानूनी कार्यवाही होना-ऐसी विसंगतिपूर्ण प्रक्रियाएं हैं जो न केवल राजनीतिक दलों को बल्कि समूची लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को शर्मसार करती हैं। आज कर्तव्य से ऊंचा कद कुर्सी का हो गया। जनता के हितों से ज्यादा वजनी निजी स्वार्थ बन गया। राजनीतिक-मूल्य ऐसे नाजुक मोड़ पर आकर खड़े हो गए कि सभी का पैर फिसल सकता है और कभी लोकतंत्र अपाहिज हो सकता है।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक शुद्धीकरण का नारा लगाया था और केजरीवाल को तो इसी के बल पर ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है। फिर आप के नेताओं पर अपराध के आरोप क्यों लग रहे हैं? भाजपा के इतने मंत्री आरोपी क्यों है? राजनीति का शुद्धीकरण होता क्यों नहीं दिखाई दे रहा? चुनाव-प्रचार के दौरान लम्बे-लम्बे अपराधमुक्त राजनीति के नारे क्या मात्र दिखावा थे? क्या उस समय कही गयी बातें केवल चुनाव जीतने का हथियार मात्र थी? 
 
सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में इस बार अपराधमुक्त राजनीति का नारा सर्वाधिक उछला, सभी दलों एवं राजनेताओं ने इस बात पर विशेष बल दिया कि राजनीति अपराध मुक्त हो। लेकिन हुआ इसका उलट। नई बनी लोकसभा में पन्द्रहवीं लोकसभा की तुलना में आपराधिक सांसदों की संख्या बढ़ी ही है। आखिर क्यों सरकार इस दिशा में कुछ कर नहीं रही? और विपक्ष भी क्यों चुप है इस मामले में? क्या इसलिए कि सबके दामन पर दाग है? कब तक बाहुबल, धनबल की राजनीति लोकतंत्र को कमजोर करती रहेगी? 
 
बात सिर्फ किसी एक शहाबुद्दीन के जमानत पर छूटने की या आम आदमी पार्टी के नेताओं पर लग रहे दागों की नहीं है, बात उन ढेर सारे राजनेताओं की भी है जो गंभीर आरोपों के बावजूद हमारी विधानसभाओं में, हमारी संसद में, यहां तक कि मंत्रिमंडलों में भी कब्जे जमाये बैठे हैं। कब तक दागी नेता महिमामंडित होते रहेंगे?
  
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 29 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों के कुल 609 मंत्रियों में से 210 पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें हमारे केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भी शामिल हैं। विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के सदस्य एवं वहां के मंत्रियों पर भी गंभीर आपराधिक मामले हैं, फिर भी वे सत्ता सुख भोग रहे हैं। इस तरह का चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। हमारी बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे राजनीतिक तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारे समाज में घर कर चुकी है। यह रोग मानव की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर व्यक्ति लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है।
 
देश के धन को जितना अधिक अपने लिए निचोड़ा जा सके, निचोड़ लो। देश के सौ रुपए का नुकसान हो रहा है और हमें एक रुपया प्राप्त हो रहा है तो बिना एक पल रुके ऐसा हम कर रहे हैं। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है। राजनीति करने वाले सामाजिक उत्थान के लिए काम नहीं करते बल्कि उनके सामने बहुत संकीर्ण मंजिल है, 'वोटों की'। ऐसी रणनीति अपनानी, जो उन्हें बार-बार सत्ता दिलवा सके, ही सर्वोपरि है। वोट की राजनीति और सही रूप में सामाजिक उत्थान की नीति, दोनों विपरीत ध्रुव हैं। एक राष्ट्र को संगठित करती है, दूसरी विघटित।
 
अपनी सब बुराइयों, कमियों को व्यवस्था प्रणाली की बुराइयां, कमजोरियां बताकर पल्ला झाड़ लो और साफ बच निकलो। कुछ मानवीय संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं कि प्रणाली शुद्ध हो, पर इनके प्रति लोग शब्दों की हमदर्दी बताते हैं, योगदान का फर्ज कोई नहीं निभाना चाहता। सच तो यह है कि बुराई लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं, बुरे तो हम हैं। जो इन बुराइयों को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई हमारे चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। हमारा रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा। राष्ट्रद्रोही स्वभाव हमारे लहू में रच चुका है। यही कारण है कि हमें कोई भी कार्य राष्ट्र के विरुद्ध नहीं लगता और न ही ऐसा कोई कार्य हमें विचलित करता है। सत्य और न्याय तो अति सरल होता है। तर्क और कारणों की आवश्यकता तो हमेशा स्वार्थी झूठ को ही पड़ती है। जहां नैतिकता और निष्पक्षता नहीं, वहां फिर भरोसा नहीं, विश्वास नहीं, न्याय नहीं।
 
कोई सत्ता में बना रहना चाहता है इसलिए समस्या को जीवित रखना चाहता है, कोई सत्ता में आना चाहता है इसलिए समस्या बनाता है। धनबल, बाहुबल, जाति, धर्म हमारी राजनीति की झुठलाई गई सच्चाइयां हैं जो अब नए सिरे से मान्यता मांग रही हैं। यह रोग भी पुनः राजरोग बन रहा है। कुल मिलाकर जो उभर कर आया है, उसमें आत्मा, नैतिकता व न्याय समाप्त हो गये हैं। नैतिकता की मांग है कि अपने राजनीतिक वर्चस्व-ताकत-स्वार्थ अथवा धन के लालच के लिए हकदार का, गुणवंत का, श्रेष्ठता का हक नहीं छीना जाए, अपराधों को जायज नहीं ठहराया जाए। 
 
सत्ता के नाम पर सौदा नहीं, परस्पर समझौता करना सीखें। मोहरे फेंकना ही नहीं, खेलना भी सीखें। चुनाव की स्वस्थ परंपरा में जनता द्वारा चरित्र चयन की परख भी पैनी हो। क्योंकि मतदाता और उम्मीदवार की अर्हताएं ही राष्ट्रीयता का सुरक्षा कवच बनती हैं। इस संदर्भ में हमारे कदम गलत उठते हैं। भय, प्रलोभन या झूठे आश्वासनों से मतों की खरीदफरोख्त होती है तो अच्छे आदमी नेतृत्व से जुड़ नहीं पाते और अयोग्य व्यक्तित्वों के हाथ में देश का भाग्य सौंप दिया जाता है जिसका परिणाम देश की जनता ज्यादा भुगतती है। वे नेता क्या जनता को सही न्याय और अधिकार दिलाएंगे जो खुद अपराधों के नए मुखौटे पहने अदालतों के कटघरों में खड़े हैं। वे क्या देश में गरीब जनता की चिंता मिटाएंगे जिन्हें अपनी सत्ता बनाए रखने की चिंताओं से उबरने की भी फुरसत नहीं है।
 
हमें इस बात पर गंभीरता से चिन्तन करना चाहिए कि हमारे जन-प्रतिनिधि किस तरह से लोकतंत्र को मजबूती दें, राजनीति में व्याप्त अपराध एवं भ्रष्टाचार की सफाई की जाए। क्योंकि आज व्यक्ति बौना हो रहा है, परछाइयां बड़ी हो रही हैं। अंधेरों से तो हम अवश्य निकल जाएंगे क्योंकि अंधेरों के बाद प्रकाश आता है। पर व्यवस्थाओं का और राष्ट्र संचालन में जो अंधापन है वह निश्चित ही गड्‍ढे में गिराने की ओर अग्रसर है। अब हमें गड्‍ढे में नहीं गिरना है, एक सशक्त लोकतंत्र का निर्माण करना है। 
 
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