• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. India's Step About Environment
Written By WD

पेरिस सम्मेलन से पहले भारत की संवेदनशील पहल

पेरिस सम्मेलन से पहले भारत की संवेदनशील पहल - India's Step About Environment
राजकुमार कुम्भज
जलवायु परिवर्तन के संकट 1 को देखते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ को भरोसा दिलाया है, कि वह वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती करेगा और अपनी अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता में 40 फीसदी तक का इजाफा करेगा।


याद रखा जा सकता है, कि इसी वर्ष 30 नवंबर से 11 दिसंबर 2015 तक पेरिस में होने वाले विश्व जलवायु सम्मेलन के पूर्व दुनिया के सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी के अपने-अपने लक्ष्य प्रस्तुत करना है। भारत का मौजूदा लक्ष्य सन् 2020 तक 20 से 25 फीसदी कमी का था, जो सन् 2010 तक 12 फीसदी पाया जा चुका है। 
 
पेरिस के विश्व जलवायु सम्मेलन में विश्व पर्यावरण संधि होने की प्रबल संभावना है। इससे पहले भारत कहता रहा है कि, चूंकि विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन, विकासशील देशों की अपेक्षा विकसित देशों में कहीं ज्यादा है इसलिए उनकी हमसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है। 
 
भारत ने अपनी ओर से पर्यावरण बचाने की 38 पेज की जो महत्वपूर्ण रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र को सौंपी है, उसमें पर्यावरण के लिए भारत का रोडमैप 'सबके साथ न्याय' की हिमायत की गई है। भारत द्वारा प्रस्तुत किए गए इस प्रस्ताव में कहा गया है कि 2030 तक गैर जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाकर 40 फीसदी ‍किया जाएगा। 3 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड का निपटान, अतिरिक्त जंगल लगाकर प्रस्तावित है। इसी के साथ भारत ने संयुक्त राष्ट्र को यह आश्वासन भी दिया है कि नदियों की साफ-सफाई से भी उत्सर्जन कम करना सु‍निश्चित करेंगे और नवीनीकरण ऊर्जा के तौर पर 175 गीगावॉट बिजली पैदा की जाएगी।
 
इस लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत के समक्ष कुछ बड़ी चुनौतियां हैं जिसमें मुख्यत: आबादी और गरीबी है। ढाई फीसदी कुल भूमि पर भारत में विश्व की 17 फीसदी आबादी निवास करती है और लगभग इतनी ही आबादी पशुओं की भी है, जो भारत में रहते हैं। यहां सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि 30 फीसदी गरीब आबादी की जरूरत-पूर्ति पर ऊर्जा खपत बढ़ेगी। इस सबके लिए भारत को 2015 से 2030 तक के दौरान तकरीबन 25 अरब डॉलर की जरूरत पड़ेगी।
 
भारत द्वारा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए यह एक महत्वाकांक्षी और विकासवादी लक्ष्‍य है, जो पर्यावरण सरंक्षण की दृष्टि से अब बेहद जरूरी भी हो गया है, जबकि एक अन्य आरंभिक अनुमान के अनुसार भारत को अक्षय ऊर्जा उत्पादन वृद्धि, कृषि, वन विस्तार, बुनियादी ढांचा, जल संसाधन व पारिस्‍थितिक तंत्र के लिए इसी समयावधि के दौरान तकरीबन 206 अरब डॉलर की आवश्यकता होगी। 
 
वहीं भारत के नीति आयोग का कहना है कि निम्न कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत को समग्र रूप से 834 अरब डॉलर चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यही है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए लगने वाली लागत की इतनी बड़ी रकम का इंतजाम कहां से और कैसे होगा? 
 
अब संक्षिप्त में यह भी देख लिया जाए कि यह कार्बन उत्सर्जन कैसे होता है? पेट्रोलियमन पदार्थों, कोयला, गैस, औद्योगिक अपशिष्ट, फ्रिज, एसी, कृषि और मोटरयान आदि से तो कार्बन उत्सर्जन होता ही है, किंतु इस सबसे भी एक बहुत बड़ा कारण शहरी बस्तियों के आसपास कार्यरत वे ईंट-भट्टे भी हैं‍ जिनमें अपरंपरागत सस्ते ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है।
 
ईंट-भट्टों में सामान्यत: कटे-फटे पुराने टायर और प्लास्टिक के कचरे से ही ईंधन का काम लिया जाता है, जो बहुतायत से न सिर्फ मनुष्यों और मवेशियों के लिए घातक है, बल्कि संपूर्ण वायुमंडल को, सांस नहीं ले पाने की हद तक प्रदूषित भी करते हैं। 
 
ईंट-भट्टों के कारण होने वाले वायु प्रदूषण में निरंतर वृद्धि होने रहने की एक प्रमुख वजह शहरीकरण का निरंतर विस्तार भी है। अभी यह विस्तार और अधिक बढ़ेगा, क्योंकि बढ़ती जा रही आबादी को देखते हुए मकानों का निर्माण अभी और अधिक बढ़ेगा। देशभर के टोल नाकों पर खड़े रहने को विवश वाहनों और ट्रैफिक जाम से होने वाले प्रदूषण का आकलन अलग से किया जा सकता है। 
 
कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए‍ ‍वन विस्तार, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा, बायो गैस आदि का उपयोग बढ़ाए जाने की महती जरूरत है। 2030 तक 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड सोखने की क्षमता का विकास किया जाना अति-‍आवश्यक है। भारत ने कहा है कि हम कार्बन उत्सर्जन की ‍तीव्रता 2030 तक 33 से 35 फीसदी तक ले आएंगे। यही नहीं, भारत ने यह भी कहा है कि हम ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी 2020 तक 20 से 25 फीसदी तक ले आएंगे। 
 
यहां यह देखना भी कोई कम दिलचस्प नहीं होगा कि भारत की 30 फीसदी आबादी गरीब है, 20 फीसदी लोगों के पास मकान नहीं हैं और 25 फीसदी लोगों तक अभी भी बिजली नहीं पहुंच पाई है। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस संख्याबल का भी विकास हो जाएगा और यह संख्‍याबल भी उपभोक्ता बन जाएगा तो कार्बन उत्सर्जन आंकड़े को कितना आगे बढ़ाएगा? 
 
भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन चीन और अमेरिका के बाद तीसरे क्रम पर पहुंच गया है, हालांकि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अभी भी बहुत कम है। किंतु फिर भी वह कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश तो बन ही गया है। 
 
वैश्विक ‍आंकड़ों को जांचने से ज्ञात होता है कि चीन दुनिया का सबसे अधिक 25 फीसदी कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने वाला देश है। चीन में गैस ईंधन की खपत सबसे ज्यादा होती है, जबकि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमेर‍िका दूसरे क्रम पर अर्थात तकरीबन 19 फीसदी प्रदूषण फैलाता है। ये दोनों देश कुल मिलाकर दुनिया के लगभग आधे प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। तीसरे क्रम पर भारत आता है, जो करीब-करीब 6 फीसदी प्रदूषण पैदा करता है। 
 
जहां तक पर्यावरण बचाने की वकालत करने और खुद को इसका अगुआ बताने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन का सवाल है, तो सूचना बड़ी दिलचस्प है कि ये दोनों देश भी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैला वाले शीर्ष 10 देशों में शामिल हैं। बावजूद इसके, समूची दुनिया के सामने सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण सवाल यही है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे सीमित किया जा सकता है?
 
वायुमंडल में सभी गैसों की मात्रा सु‍निश्चित है और 750 अरब टन कार्बन, कार्बन डाई ऑक्साइड की शक्ल में वातावरण में उपलब्ध है। कार्बन की मात्रा बढ़ने के साथ ही साथ पृथ्वी के गरम होने का खतरा भी बढ़ ही जाता है।
 
भारत में अभी भी ऐसे घर-परिवार बड़ी संख्या में हैं, जो भोजन तैयार करने में परंपरागत ईंधन अर्थात लकड़ी-कोयले का ही इस्तेमाल करते हैं। इसी कारण से अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां परंपरागत ईंधन के बहाने भारत पर दबाव बनाती हैं। भारत में ईंधन गैस का अभाव नहीं है। अभाव है तो बस यह कि इसे जनता तक पहुंचाने का नेटवर्क नहीं है।
 
भारत ने अगले 7 साल में अपारंपरिक ऊर्जा निर्माण का लक्ष्य 1 लाख 75 हजार मेगावॉट रखा है और 2030 तक सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य 375 मे‍गावॉट है। अगर निश्चित समय में ये लक्ष्य प्राप्त करने में भारत को सफलता प्राप्त हो जाती है, तो बहुत संभव है कि भारत का कार्बन उत्सर्जन सीमित हो जाएगा।
 
गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की 70वीं वर्षगांठ को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन के साथ 'जलवायु न्याय' का भी जिक्र किया था। अगर हम सिर्फ जलवायु परिवर्तन की चिंता करते हैं तो कहीं न कहीं हमारे निजी सुख को ही सुरक्षित करने की बू आती है, लेकिन यदि हम 'जलवायु न्याय' की भी बात करते हैं तो गरीबों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने के संवेदनशील संकल्प भी उभरकर सामने आते हैं।
 
30 नवंबर से 11 दिसंबर 2015 तक होने वाले पेरिस विश्व-जलवायु सम्मेलन से पहले भारत ने जो संवेदनशील पहल की है, शेष विश्व भी निश्चित ही इस पहल का संज्ञान लेगा। जलवायु परिवर्तन और जलवायु न्याय साथ-साथ ही होना चाहिए।