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मौत के 'महासागर' में डूबने को तैयार दुनिया...

मौत के 'महासागर' में डूबने को तैयार दुनिया... - Hydrogen bomb, nuclear test
उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग ने परमाणु बम से भी खतरनाक साबित होने वाले हाइड्रोजन बम के सफल परीक्षण करने का दावा किया है। हालांकि यह पहला मौका नहीं जब कोई परीक्षण हुआ है, लेकिन हथियारों की होड़ में दुनिया के देश इस कदर अंधे हो चुके हैं कि किसी दिन एक छोटी सी गलती समूची दुनिया को 'मौत के महासागर' में धकेल देगी। आखिर हाइड्रोजन बम होता क्या है और किस-किस देश के पास हैं इस तरह के मानव सभ्यता को निगलने वाले हथियार...
 
हाइड्रोजन बम को थर्मोन्यूक्लियर बम के रूप में भी जाना जाता है और उसमें अधिक विकसित टेक्नोलॉजी का उपयोग किया जाता है। उत्तर कोरिया ने 2006, 2009 तथा 2013 में अपने परमाणु परीक्षण किए थे। ये सभी परीक्षण भूमिगत किए गए थे और इसे लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उसके विरुद्ध प्रतिबंध भी लगाए थे।
 
हालांकि दक्षिण कोरिया की गुप्तचर एजेंसी ने खबर दी है कि उत्तर कोरिया के पास हाइड्रोजन बम की क्षमता होने के कोई सबूत नहीं हैं, लेकिन कहा जा रहा है कि इस परीक्षण के बाद उत्तर कोरिया 5.1 तीव्रता के भूकंप के झटकों से हिल गया। कोरिया ने पनगेयरी परमाणु केंद्र से कथित तौर पर हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया है। अमेरिकी भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण की ओर से भी दावा किया गया कि इस भूकंप का केंद्र उत्तर कोरिया के उत्तर-पूर्वी इलाके प्योंगयांग के आसपास रहा।
 
हाइड्रोजन बम : हाइड्रोजन बम एक ऐसा परमाणु हथियार है जिसमें विखंडन (फिशन) और विलय (फ्यूजन) से बड़े पैमाने पर ऊर्जा पैदा होती है। हाइड्रोजन बमों के सर्वाधिक सामान्य कान्फिगरेशन (विन्यास) से एक ऐसा बम बनाया जाता है जिसमें थर्मोन्यूक्लियर हथियारों को एकसाथ जोड़ दिया जाता है और इसके प्रत्येक स्तर (स्टेज) पर इतनी ऊर्जा पैदा होती है, जो कि अगले स्तर को आगे बढ़ाती है। 
 
इस बुनियादी विन्यास 'कान्फिगरेशन' को टेलर-उलाम कहा जाता है। एक हाइड्रोजन में होने वाले परमाणु विलयन से पैदा हुए न्यूट्रांस एक विखंडन प्रतिक्रिया से बहुत तेज होते हैं। ये न्यूट्रांस पहले विस्फोट के बाद बचे विखंडनीय ईंधन को बहुत तेज कर देते हैं जिससे इसका विखंडन बहुत अधिक तेजी से होता है। एक थर्मोन्य‍ूक्लियर हथियार वह होता है, जो कि परमाणु हथियार होता है लेकिन जिसकी मारक क्षमता परमाणु बमों से कहीं अधिक होती है। इसमें एक फिशन बम से पैदा हुई ऊर्जा एक फिजन बम के रूप में एक परमाणु फ्यूजन स्टेज पैदा करती है। इससे बहुत अधिक ऊर्जा पैदा होती है, जो कि बम की ताकत कहलाती है।
 
इसलिए कहा जाता है हाइड्रोजन बम : इस प्रकार के बम को हाइड्रोजन बम या एच बम ‍इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें हाइड्रोजन फ्यूजन का इस्तेमाल होता है। ऐसे ज्यादातर प्रयोगों में विध्वंसक ऊर्जा यूरेनियम के फिजन से भी पैदा होती है केवल हाइड्रोजन फ्यूजन से ही नहीं। यह तीन प्रकार के हथियारों का समावेश है ताकि इसमें फिशन की मात्रा को बहुत अधिक बढ़ा दिया जाता है।
 
क्या खासियत है हाइड्रोजन बम की... पढ़ें अगले पेज पर....

खासियत : हाइड्रोजन बम की विशेषताएं ये होती हैं कि इसका आकार तो थर्मोन्यूक्लियर हथियार की तरह होता है लेकिन इसमें प्राथमिक विस्फोटक से पहले स्तर पर विस्फोट किया जाता है लेकिन दूसरा या द्वितीयक विस्‍फोट भयंकर शक्तिशाली होता है। प्राथमिक विस्फोट के बाद परमाणु फिजन से होने वाले विस्फोट को उन एक्सरेज द्वारा कम्प्रेस (दबाया) किया जाता है, जो कि रेडिएशन एम्प्लोजन के जरिए विस्‍फोट के दूसरे चरण तक पहुंचती हैं। एक कोल्ड कम्प्रेशन (ठंडे संपीडन) द्वारा दूसरे विस्फोट के लिए दूसरे फिजन से विस्फोट कराया जाता है।
 
यह बात ध्यान देने योग्य है कि दुनिया में लड़ाइयों के दौरान अब तक किसी हाइड्रोजन बम का विस्फोट नहीं किया गया है। अमेरिका ने जापान के खिलाफ तक जिन दो परमाणु हथियारों का प्रयोग किया था वे परमाणु हथियार थे, जो कि फिजन आधारित थे।
 
परमाणु फिजन प्रतिक्रिया से न्यूट्रांस बड़ी तेजी से फैलते हैं, जो कि बाकी बचे फिसाइल फ्यूल (परमाणु ईंधन) पर तेजी से विस्फोट करते हैं। इस तरह ईंधन की मुख्य विस्‍फोटक ताकत फ्यूजन से आती है। इसकी डिजाइन विभिन्न स्तरों की होती है इसलिए माना जाता है कि तृतीयक स्तर दो स्तरों के ईंधनों का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ जाता है।
 
इस तरह बना सबसे पहला हाइड्रोजन बम... पढ़ें अगले पेज पर....

सबसे पहला हाइड्रोजन बम : सबसे पहला परमाणु बम बनाने में सोवियत रूस को सफलता मिली थी जिसके बाद अमेरिका ने एक हाइड्रोजन बम बनाने का प्रयोग किया। इस प्रकार के बम में ड्यूटेरियम और ट्राइटियम (हाइड्रोजन आइसोटोप्स) समस्थानिकों को हीलियम के साथ मिला दिया जाता है। इस प्रकार इतनी ऊर्जा पैदा होती है जिसका अनुमान लगाना संभव नहीं होता।
 
हाइड्रोजन बम बनाने को लेकर वैज्ञानिक भी दो गुटों में बंट गए थे। अमेरिका में इस सुपर बम का विचार एडवर्ड टेलर का था ज‍बकि वैज्ञानिक जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर, एनरिको फर्मी और आईआई राबी ने इसका विरोध किया था। उन्होंने लिखा था कि इस हथियार की विध्वंसक क्षमता की कोई सीमा नहीं थी इसलिए इसकी मौजूदगी और बनाने की जानकारी समूची मानवता के लिए खतरा बन सकती है। 
 
पर रूस और अमेरिका के बीच चले शीतयुद्ध के दौरान एडवर्ड टेलर के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने इसको विकसित करने पर जोर दिया। इसके लिए उन्होंने सेना और एटॉमिक इनर्जी पर ज्वॉइंट ‍कमेटी से संपर्क किया। 1 नवंबर, 1952 को अमेरिका ने 10.4 मेगाटन की क्षमता वाले बम का प्रशांत महासागर में मार्शल द्वीपों में एनवेटक अटॉल पर परीक्षण किया। इस परीक्षण को 'माइक' नाम का कोड नाम दिया गया और यह एडवर्ड टेलर और स्टानिसला उलाम के विचार का क्रियान्वयन था। 
 
'माइक' परीक्षण : उस समय पर चूंकि वैज्ञानिकों को इस बात की सीमित जानकारी थी कि लीथियम ड्यूटेराइड कैसे काम करती है इसलिए उन्होंने द्रव ड्यूटेरियम का इस्तेमाल किया था जिसको माइनस 417 डिग्री फारेनहाइट (माइनस 250 डिग्री सेल्सियम) के तापमान से नीचे रखना था इसलिए 6 मंजिला एक कोच में 'माइक' को बनाया गया था। यह इसलिए क्योंकि इसका कूलिंग सिस्टम बहुत जटिल था। 65 टन के वजन वाला यह उपकरण एक प्रायोगिक विधि थी जिसे हथियार कहना उचित नहीं होगा। एक द्वीप से दूसरे द्वीप तक 2 मील लंबी सुरंग बनाई गई जिसे हीलियम से भर दिया गया था और इसी के जरिए फ्यूजन रिएक्शन के आंकड़े हासिल किए जाने थे। 
 
जिन वैज्ञानिकों ने परमाणु परी‍क्षणों को देखा था वे विस्फोट की भयंकरता से सन्न रह गए। विस्फोट के बाद जो बादल उठा, वह करीब 100 मील तक चौड़ा था और इसकी ऊंचाई 25 मील से भी अधिक थी। विस्फोट की तीव्रता से यूलेजेलाब द्वीप पूरी तरह से भाप बन गया और इसमें एक मील से ज्यादा चौड़ा गड्‍ढा बन गया। इतना ही नहीं, आसपास के द्वीपों पर जो जीवन था, वह समाप्त हो गया।
 
यह था अमेरिका का महाघातक ब्रावो टेस्ट... पढ़ें अगले पेज पर...

ब्रावो परीक्षण :  इसके 14 माह बाद 1 मार्च, 1954 को अमेरिका ने मार्शल द्वीपों के बिकिनी आईलैंड पर एक ले जाने योग्य हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया जिसके लिए ठोस लीथियम ड्‍यूटेराइट का इस्तेमाल किया गया। इसे ब्रावो टेस्ट का नाम दिया गया था लेकिन इसके विस्‍फोट को लेकर वैज्ञानिकों के सारे अनुमान गड़बड़ा गए। अनुमान था कि इस विस्फोट की उपज 5 मेगाटन की थी लेकिन वास्तव में 'ब्रावो' से 14.8 मेगाटन ऊर्जा पैदा की। यह अमेरिका का अब तक का सबसे बड़ा परमाणु परीक्षण था। 
 
इस परीक्षण के बाद द्वीप पर आधे मील से अधिक चौड़ा गड्‍ढा बन गया, जो कि सैकड़ों फुट गहरा था। इसके जरिए हवा में कई लाख टन रेडियो ए‍‍क्ट‍िव मलबा फैल गया। विस्फोट के कुछेक सेकंडों में करीब 3 मील के व्यास का एक गुबार उठा था। 
 
दुष्प्रभाव : विस्फोट के दौरान द्वीपों पर कोई नहीं रहता था लेकिन इसका असर बिकिनी द्वीप से क्रमश: 100 और 300 मील पूर्व के द्वीपों पर 200 रेम्स (रिस्क इवैल्यूएशन एंड मिटीजेशन स्ट्रेटेजी) के विकिरण का असर हुआ और विस्फोट के 24 घंटों के अंदर रोंगलैप द्वीप के 236 लोगों को सुरक्षित स्थान पर लाया गया। समीपवर्ती यूट्रिक द्वीप के नागरिकों को नहीं निकाला गया, लेकिन उन पर भी विकिरण के हल्के प्रभाव को देखा गया।
 
बहुत सारे लोगों को विकिरण से पॉइ‍जनिंग का असर हुआ। चेहरे और आंखों में जलन हुई। उल्टी, डायरिया के साथ ही उनकी त्वचा जल गई और बाल गिर गए। विस्‍फोट के 10 वर्षों के बाद पहला थाइराइड ट्यूमर का मामला सामने आया। रोंगलैप द्वीप के 90 फीसदी लोगों को थॉयराइड ट्‍यूमर हो गए। 1964 में अमेरिका ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए क्षतिपूर्ति दी। 
 
मछुआरों पर असर : विस्फोट के समय फुकुरायू मारू (लकी ड्रैगन) नाम की एक छोटी जापानी नौका बिकिनी द्वीप से करीब 90 मील पूर्व की दूरी थी। विस्‍फोट के 2 घंटों के अंदर ही रेडियोधर्मी राख की स्नो (बर्फ) भाप बनी मूंगों की शक्ल में नौका पर आकर गिरी। इस घटना के कुछेक घंटों बाद ही नौका के चालक दल के सदस्यों ने जलन और उल्टियों की शिकायत महसूस की। कुछेक दिन बाद उनकी त्वचा काली पड़ गई और उनके बाल झड़ गए। जापान लौटते ही बहुतों को अस्पताल में भर्ती कराया गया और अंत में एक नाविक कोमा में चला गया और उसकी मौत हो गई। इस घटना की अमेरिका ने जिम्मेदारी नहीं ली लेकिन 'सहानुभूति' के नाम पर मृत नाविक की विधवा को 25 लाख येन का चेक दिया। 
 
1950 में राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन ने हाइड्रोजन बम पर काम जारी रखने को कहा और इसके लिए साउथ कैरोलाइना, सवन्ना नदी पर हाइड्रोजन बम बनाने की सुविधा जुटाई गई। पर देश की परमाणु क्षमता को बढ़ाने के लिए ट्राइटिरियम उत्पादन की सुविधा जुटाई गई लेकिन लोगों की सुरक्षा संबंधी कारणों के चलते उत्पादन को 1990 तक रोक दिया गया।
 
फिर रूस ने दिया इस तरह ब्रावो का जवाब... पढ़ें अगले पेज पर...

...और फिर सोवियत संघ ने दिया 'ब्रावो' का इस तरह जवाब : अमेरिका के ब्रावो टेस्ट के बाद सोवियत संघ ने हाइड्रोजन बम विकसित करने का कार्यक्रम चलाया। परीक्षण की शुरुआती शोध के लिए क्लॉस फस की मदद ली गई लेकिन बाद में आंद्रेई सखारोव ने दूसरा तरीका सुझाया। उन्होंने बम को 'लेयर केक' नाम दिया जिसमें क्रमश: हाइड्रोजन फ्यूल और यूरेनियम की परतों को एक के ऊपर दूसरे को रखा गया जिससे कि इस डिजाइन के कारण विस्फोट से पैदा होने वाली थर्मोन्यूक्लियर ऊर्जा की मात्रा को सीमित रखा जा सके। 
 
12 अगस्त 1953 को सोवियत संघ ने पहले फ्यूजन आधारित उपकरण का सेंट्रल साइबेरिया के एक टॉवर में परीक्षण किया। इस बम से 400 किलोटन की ऊर्जा पैदा की। हालांकि इसकी क्षमता 9 माह पहले अमेरिकी परीक्षण जितनी ही थी लेकिन इसका एक प्रमुख लाभ यह था कि यह एक प्रयोग किया जाने योग्य हथियार था और इसे हवाई जहाज से गिराया जा सकता था।
 
अमेरिकी 'ब्रावो' परीक्षण के बाद सखारोव की टीम ने इसी तरह से रेडियोएक्टिव इम्प्लोजन का प्रयोग किया गया लेकिन 'लेयर केक' की डिजाइन पर रोक लगा दी गई। 22 नवंबर 1955 में पहली बार सोवियत संघ ने पहला सच्चे अर्थों में हाइड्रोजन बम का विस्फोट सेमीपैलाटिंस्क टेस्ट स्थल पर किया।
 
इसके बाद सोवियत हाइड्रोजन बमों की श्रृंखला का परीक्षण किया। 23 अक्टूबर 1961 को ख्रुश्चेव ने कहा कि यह करीब 58 मेगाटन की क्षमता का विस्फोट था। यह और भी बड़ा हो सकता था लेकिन इससे परीक्षण स्थल से 4000 किमी दूर मॉस्को की इमारतों के कांच टूट जाते। लेकिन उन्होंने भी ओपनहाइमर की तरह से हाइड्रोजन बम बनाने का विरोध किया। ओपनहाइमर के विरोध के चलते ऐसे परीक्षणों की रफ्तार धीमी हो गई। उन पर शक किया गया कि उन्होंने बम संबंधी जानकारी सोवियत संघ को दी। उन पर मुकदमा भी चलाया गया जिसकी सुनवाई 4 हफ्तों तक चली। यह अमेरिका इतिहास का एक दुखद अध्याय था। 
 
इससे जहां ओपनहाइमर निराश थे वहीं अमेरिका का वैज्ञानिक समुदाय भी दो धड़ों में बंट गया। उन्होंने सार्वजनिक जीवन से विदा ले ली और वे प्रिंसटन के इंस्टीट्‍यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी ने डायरेक्टर बने रहे। अंत में उनके प्रति हुए अन्याय को पहचाना गया और 1963 में उन्हें परमाणु साइंस का प्रतिष्ठित पुरस्कार 'द एनरिको फर्मी' से सम्मानित किया गया। वर्ष 1967 में उनका कैंसर से निधन हो गया।
 
इस दौड़ में ब्रिटेन भी पीछे नहीं रहा... पढ़ें अगले पेज पर....

ब्रिटेन भी परमाणु ताकत बना : परमाणु हथियारों के विकास में ब्रिटेन पहला देश था जिसने पहल की थी। फरवरी 1940 में ऑटो फ्रिस्क और रुडोल्फ पाइरल्स ने मॉड कमेटी बनाई। (वास्तव में यह कोड नाम था, जो कि एक सदस्य की नैनी का पहला नाम था) और इसने फिजन हथियारों की संभावना पर गौर किया।
 
इसे ब्रिटिश मिशन का नाम दिया गया। बाद में ब्रिटेन और अमेरिका में परमाणु ऊर्जा कानून के तहत समझौता हुआ लेकिन तब ब्रिटेन ने महसूस किया कि इसकी अपनी परमाणु ताकत होनी चाहिए। 3 अक्टूबर 1952 को ब्रिटेन ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया और 'हरीकेन' के कूट नाम वाले इस परीक्षण की क्षमता 1.8 मेगाटन थी।
 
1954 में विंस्टन चर्चिल ने हाइड्रोजन बम बनाने की योजना को मंजूरी दी और प्रशांत महासागर के क्रिसमस द्वीप पर 8 नवंबर 1957 को इसका परीक्षण किया गया। इसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने नेवादा टेस्ट साइट पर मिलकर परीक्षण शुरू किया। परिणामस्वरूप ब्रिटेन के सभी परमाणु हथियारों का‍ डिजाइन अमेरिका आधारित था।
 
... और अगले पेज पर पढ़ें चीन का परमाणु कार्यक्रम

चीन के परमाणु हथियार :  पचास के दशक के अंतिम वर्षों में चीन ने सोवियत सहयोग से परमाणु हथियार विकसित करने शुरू किए। बाद में दोनों देशों के संबंध खराब हो गए तो सोवियत संघ ने चीन को मदद करना बंद कर दिया। लेकिन 60 के दशक में चीन ने परमाणु हथियारों को विकसित करने में असाधारण प्रगति की। पहला परमाणु परीक्षण लोप नोर में 16 अक्टूबर 1964 में किया गया।
 
फिजन डिवाइस से किए गए इस विस्फोट की क्षमता 25 किलोटन थी और परमाणु ईंधन के तौर पर यूरेनियम 235 का इस्तेमाल किया गया। इसके बाद 32 महीनों से भी कम समय में चीन ने 14 जून 1967 को अपना पहला हाइड्रोजन परमाणु परीक्षण किया। चीन पर शक है कि उसने पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में मदद की।
 
वर्ष 1958 में टेस्ट बैन संधि के तहत अमेरिका और सोवियत संघ ने परमाणु परीक्षणों पर रोक लगा दी लेकिन सितंबर 1961 में संधि तोड़ते हुए सोवियत संघ ने परमाणु परीक्षण शुरू कर दिए और इसके 2 सप्ताह बाद ही अमेरिका ने भी परमाणु परीक्षणों का सिलसिला जारी किया।
 
पहले अमेरिका, रूस और ब्रिटेन ने लिमिटेड टेस्ट बैन ट्रीटी (एलटीबीटी) का समझौता किया और वर्ष 1963 से 113 और देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। तब तक चीन और फ्रांस ने इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे लेकिन 1996 की कॉम्प्रीहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी (सीटीबीटी) के तहत इन देशों ने भी हस्ताक्षर कर दिए। 
 
इसके बाद ‍दक्षिण अफ्रीका, इसराइल, इराक और ईरान ने अपनी परमाणु क्षमताओं को बढ़ाया और विभिन्न देशों से चोरी-छिपे अपनी परमाणु क्षमताएं बढ़ाईं। इस दौरान भारत और पाकिस्तान जैसे देशों ने भी परमाणु हथियार बनाए और यह सूची अब उत्तर कोरिया तक आ पहुंची है। हालांकि उत्तर कोरिया ने 1985 में परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन इसने संधि का उल्लंघन करते हुए अपना परमाणु हथियारों का कार्यक्रम सक्रिय बनाए रखा। 
 
लीबिया भी ऐसे ही देशों में शामिल है, लेकिन हाइड्रोजन बम जैसा हथियार समूची मानवता के लिए खतरा है और उत्तर कोरिया को उन जिम्मेदार देशों की सूची में नहीं रखा जाता है जिन्हें परमाणु हथियारों के मामले में संजीदा समझा जाता है। इस कारण दुनियाभर के देशों में उत्तर कोरिया के हाइड्रोजन बम रखने वाले देशों में शामिल होने के दावे से हड़बड़ी मची हुई और यह अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है।