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Written By शरद सिंगी
Last Modified: सोमवार, 13 अक्टूबर 2014 (00:58 IST)

दम तोड़ता हाँगकाँग का प्रजातंत्र

दम तोड़ता हाँगकाँग का प्रजातंत्र -
प्रथम अफीम युद्ध में चीन की हार के पश्चात उसे हाँगकाँग, इंग्लैंड को भेंट कर देना पड़ा था। तब से लेकर 1997 तक हाँगकाँग, इंग्लैंड का उपनिवेश रहा। बाद  में इंग्लैंड और चीन के मध्य एक समझौता हुआ जिसके परिणामस्वरूप  हाँगकाँग, चीन को 1997 में इंग्लैंड ने वापस लौटा दिया। 
इस समझौते की एक प्रमुख शर्त के अनुसार प्रथम 50 वर्षों में  हाँगकाँग में उच्च स्तर की स्वायत्ता रखी जानी थी। अन्य शर्तों में हाँगकाँग की पूंजीवादी व्यवस्था को बरकरार रखना तथा रक्षा व विदेश विभागों को छोड़कर हाँगकाँग की प्रशासकीय व्यवस्था में चीन की कोई दखलंदाजी न होना शामिल था। चीन ने हाँगकाँग को एक विशिष्ट प्रशासकीय क्षेत्र घोषित कर 'एक देश दो प्रणाली' का फार्मूला अपनाया। 
 
देश के मुख्य भाग में साम्यवाद और इस विशिष्ट भाग में पूँजीवाद। चीन ने कुछ समय तक तो समझौते की इन शर्तों का पालन किया किन्तु अब उसे हाँगकाँग के मीडिया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता खटकने लगी है। चूँकि वह शर्तों से पीछे नहीं जा सकता अतः उसने प्रशासकीय तंत्र पर अपना अप्रत्यक्ष नियंत्रण करने के उद्देश्य से कुछ नए क़दमों की घोषणा की है। 
 
हाँगकाँग के नागरिक लोकतंत्र के विकास, मानवाधिकारों और अपने मताधिकार को लेकर खासे चिंतित रहे हैं। वे अपने मीडिया और अर्व्यवस्था को स्वतन्त्र देखना चाहते हैं। चीन की नई  घोषणा के अनुसार 2017 में होने वाले आम चुनावों में उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि की जाँच के पश्चात ही उन्हें चुनावों  में लड़ने योग्य घोषित किया जाएगा। इस आदेश का सीधा अर्थ हुआ कि बीजिंग समर्थक उम्मीदवारों को ही चुनाव लड़ने की पात्रता होगी। चीन सरकार की इस कुटिल मंशा के विरोध में महाविद्यालयों के छात्रों ने 22 सितम्बर से कक्षाओं का बहिष्कार आरम्भ किया। इस आंदोलन को तत्काल समाज के हर वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ और हज़ारों की तादाद में लोग हाँगकाँग की सड़कों पर उतर गए। इतने विशाल पैमाने पर हुए आंदोलन ने पूरे शहर के कामकाज को ठप कर दिया।  
 
चीन ने तुरंत इस आंदोलन को अवैधानिक घोषित कर दिया। भीड़ बढ़ने के साथ ही चेतावनी व धमकियों का सिलसिला भी शुरू हो गया। पच्चीस वर्ष पूर्व थ्एन आन मन चौक पर हुआ सैकड़ों जनतंत्र समर्थक छात्रों का कत्लेआम पूरे विश्व के संज्ञान में है और इस बढ़ते आंदोलन की खबर मिलते ही सम्पूर्ण विश्व समुदाय सांसत में था कि कहीं चीन वापस वैसा ही कोई कदम न उठा ले। यद्यपि छात्र उस स्थिति का सामना भी करने को तैयार थे।   
 
वर्तमान चीफ एग्जीक्यूटिव लिंग चुन यिंग बीजिंग समर्थित माने जाते हैं और हाँगकाँग की जनता को विश्वास हो चला है कि चीन ने हाँगकाँग के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया है। जनता चाहती है कि लोकतांत्रिक तरीके से वे अपना प्रतिनिधि चुने न कि कोई समिति जिसमें चीनी समर्थक सदस्य भरे हों।  
 
किसी ज़माने में अंग्रेज़ों ने चीनियों को अफीमची बनाया था किन्तु बाद के लगभग डेढ़ सौ वर्षों के अपने शासनकाल में उन्होंने  हाँगकाँगवासियों को लोकतंत्र की घुटी पिला दी। इतने वर्षों तक इंग्लैंड का उपनिवेश होने से हाँगकाँग की प्रशासकीय व्यवस्थाएं और प्रणालियाँ लोकतांत्रिक पद्धति में ढल चुकी हैं। हाँगकाँगवासियों ने इंग्लैंड का उपनिवेश होते हुए भी हर क्षेत्र में असाधारण तरक्की की। गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ जो दुनिया के किसी भी शहर से ज्यादा हैं, अत्याधुनिक यातायात व्यवस्था, भ्रष्टाचार रहित प्रशासन और सबसे महत्वपूर्ण तीव्र आर्थिक प्रगति। हाँगकाँग महज एक आयात निर्यात केंद्र तक सीमित नहीं रहा अपितु उसे बदलकर एक औद्योगिक और वित्तीय केंद्र बनाया। 
 
अपनी मुद्रा हाँगकाँग डॉलर को मजबूत किया जो आज दुनिया की नवें नम्बर की कारोबारी मुद्रा है। चीन चाहे तो वह हाँगकाँग को दुनिया के सामने एक मॉडल राज्य के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। उसे दिखाकर संसारभर से निवेश आमंत्रित कर सकता है। यह उसके ताज में लगे हीरे के समान है किन्तु चीन, हाँगकाँग को पांवों के तले रौंदने पर उतारू है। ऐसे में चीनी ड्रैगन की विशालता के सामने हाँगकाँग के प्रजातंत्र का अस्तित्व कितने दिन दम भर सकता है? 
 
हाँगकाँग लगभग 200 छोटे बड़े द्वीपों का समूह  है और  इसका  शाब्दिक  अर्थ  है सुगन्धित बंदरगाह। कहते हैं यहीं पूर्व, पश्चिम से आकर मिलता है। दुर्भाग्य देखिए कि विश्व का कि यह सुन्दर और सुगन्धित प्रदेश साम्यवाद के सैलाब में बह रहा है और विश्व असहाय सा इसे देखने के अतिरिक्त  कुछ नहीं कर सकता। हाँगकाँग की जनता इस सैलाब के प्रवाह के विरुद्ध कितने दिन तैर पाएगी वह भी तब जब उसे किसी बाहरी सहायता का कोई भरोसा न हो? 
 
जहाँ तक चीन का प्रश्न है उसे विश्व मत से कोई अंतर नहीं पड़ता और न ही उसे अपनी छवि की कोई परवाह है, उसे तो बस हर हाल में विरोधी सुरों पर नियंत्रण चाहिए। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिक होने के कारण, दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र पर खतरा उत्पन्न होने पर हमारी चिंता स्वाभाविक है। इस कहानी का उद्देश्य लोकतंत्र पर निरंतर आने वाले खतरों से अपने पाठकों को सजग करते हुए भारतीय लोकतंत्र की सुदृढ़ता को रेखांकित करना है। इन  खतरों से निपटने के लिए जरूरत है सतत जागरूकता की और आवश्यकता पड़ने पर बलिदानों की तभी लोकतंत्र को बाह्य और आंतरिक खतरों से महफूज़ रखा जा सकता है।