गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By Author शरद सिंगी

उदयीमान राष्ट्रों के लिए एक शिक्षा है ग्रीस का संकट

उदयीमान राष्ट्रों के लिए एक शिक्षा है ग्रीस का संकट - Greece crises
विश्व भर के अखबार और संचार मीडिया पिछले पखवाड़े ग्रीस के आर्थिक संकट की खाल निकलने में व्यस्त रहे। तिल भर की समस्या का ताड़ बना दिया गया। ग्रीस की दिवालिया सरकार पर वित्तीय संस्थाओं की शर्तों को मानने के लिए भारी दबाव बनाया गया। इस दबाव के चलते ग्रीस की सरकार ने इन शर्तों को मानने या न मानने के लिए जनमतसंग्रह का आदेश जारी कर दिया। मतसंग्रह क्या हुआ मानो ग्रीस के नागरिकों के हाथों में विश्व की अर्थव्यवस्था की बागडोर आ गई हो और मीडिया ने उन्हें विश्व अर्थव्यवस्था के तारणहार के रूप में पेश कर दिया। कहा जाने लगा कि यदि ग्रीस के नागरिक वित्तीय संस्थाओं की शर्तों को स्वीकार नहीं करेंगे तो विश्व की अर्थव्यवस्था को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। सम्पूर्ण विश्व के मीडियाकर्मी  ग्रीस में जमा हो गए। पल पल की खबरें प्रसारित होने लगी। थोड़ी भी जानकारी रखने वाले लोग टीवी से चिपक गए। 
 
हुआ क्या? मतसंग्रह हुआ। परिणाम आए किन्तु भूचाल नहीं आया। ग्रीस के नागरिकों ने आम धारणा के विरुद्ध वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय कमीशन की कड़ी शर्तों को मानने से इंकार कर दिया। भारतीय बाजार का सेंसेक्स तो मतसंग्रह के परिणामों को धता बताते हुए और ऊपर की ओर चला गया। वैश्विक बाजारों में भी कोई विशेष असर नहीं देखा गया। सीधी सी बात  है कि एक अदनी सी अर्थव्यवस्था जो विश्व की अर्थव्यवस्था का आधे प्रतिशत से भी कम है, तो क्या तो वह यूरोप को हिलायेगी और क्या विश्व को? 
 
सन् 2008 के वैश्विक  वित्तीय संकट से पूर्व ग्रीस की अर्थव्यवस्था लगभग चार प्रतिशत के मान से आगे बढ़ रही थी किन्तु वैश्विक वित्तीय संकट ने ग्रीस की छोटी सी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। सन् 2009 तक आते आते अर्थव्यवस्था मंदी में चली गई याने जीडीपी की विकास दर शून्य के नीचे। बजट घाटे पर कोई नियंत्रण नहीं रहा। यूरोपीय कमीशन ने सहायता देकर दो बार ऋण संकट से मुक्त किया।
 
संघ के दबाव में ग्रीस ने सरकारी खर्चों में कटौती की। पेंशन और स्वास्थ्य सुविधाओं में हो रहे खर्चों में कमी की गई। टैक्स चोरी पर अंकुश लगाया किन्तु अपेक्षित आंकड़ों  पर नही पहुँच पाये। सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाकर शाही जीवन जीने वाले ग्रीस के नागरिकों को सरकारी खर्चों में हुई कटौती रास नहीं आई। इन कटौतियों का विरोध कर विपक्षी दल ने अगला चुनाव जीत लिया। इस प्रकार वर्तमान प्रधानमंत्री एलेक्सिस सिप्रास सत्ता में आए जो मितव्ययता का विरोध करते हैं। 
 
ग्रीस की यह अय्याशी यूरोपीय संघ के अन्य देशों को रास नहीं आ रही क्योकि ग्रीस को जो धन दिया जा रहा है वह अन्य देशों खासकर जर्मनी के करदाताओं का धन है जो ईमानदारी से अपना कर चुकाते हैं। ये लोग ग्रीस के नागरिकों की सुविधाओं के लिए अपना धन देने के विरोध में हैं क्योंकि ग्रीस के नागरिक कर चुकाने में ईमानदार नहीं हैं। दूसरी ओर ग्रीस को कोई भी नई खैरात यूरोप के उन देशों को प्रोत्साहित करेगी जो गले तक कर्ज में डूबे हुए हैं जैसे इटली, स्पेन आदि। जब 1981 में यूरोपीय संघ में शामिल होकर ग्रीस ने  यूरो  को अपनाया था तब उसकी मुद्रा की कीमत एक यूरो के मुकाबले 340 थी। उसी से ग्रीस की अर्थव्यवस्था का अंदाज लगाया जा सकता है। उस समय ग्रीस ने छल करके अपनी देनदारियों का एक बड़ा भाग छुपाया और एक विशाल अर्थव्यवस्था में अपनी अर्थव्यवस्था को मिला दिया सोचकर कि शायद बाद में किसे पता चलेगा? अर्थात ग्रीस का यूरोपीय संघ के साथ होना एक झूठ पर आधारित सच्चाई है। 
 
ग्रीस को इस हाल तक पहुंचाने में स्वयं ग्रीस के नागरिक और वहां का नेतृत्व दोषी है। चुनावों को जीतने  के लिए ये नेता एक के बाद एक लुभावने वादे करते गए और जनता को सरकारी सुविधाओं की आदत डाल दी। सुविधाएँ आरम्भ करना जितना आसान होता है बंद करना उतना ही मुश्किल। प्रजातंत्र में दी गई सुविधाए, भविष्य  में लाभार्थी का हक़ बन जाती हैं। 
 
ग्रीस की इस स्व निमंत्रित वित्तीय संकट की इस कहानी से भारत की  केंद्रीय और राज्य सरकारों को भी सीखना होगा कि ऐसी कोई भी सुविधा किसी भी वर्ग को यदि बिना श्रम के दी जाती हैं तो उन्हें वापस लेना नामुमकिन जैसा है फिर चाहे सरकार वित्तीय संकट से ही क्यों न जूझ रही हो। गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर लाना प्राथमिकता होनी चाहिए किन्तु उन्हें अकर्मण्य बनाना न तो उनके स्वयं के हित में हैं और न ही राष्ट्र के हित में। 
क्या भारत के राजनीतिक दल, ग्रीस के दिवालिएपन से कुछ सबक लेना चाहेंगे ?

वहीँ ग्रीस के नागरिकों को भी सोचना  होगा कि वे कर्ज मांग रहे हैं, अधिकार नहीं। कर्ज के नियम तो साहूकार ही तय करेगा क्योकि कर्ज़दार अदायगी में बार बार विफल रहा है। इस लेख का मंतव्य यह है कि जैसे एक व्यक्ति की वित्तीय असफलता की कहानी सीख और चेतावनी का कारक बनती है वैसे ही ग्रीस जैसे आत्मघाती राष्ट्रों की कहानी भारत जैसे उदयीमान और त्वरित विकास की चाह में तीव्र गति से दौड़ते हुए राष्ट्रों के लिए एक चेतावनीसूचक उदाहरण बन जाती है।  समय रहते चेतावनी को समझ कर सतर्क हो जाना ही श्रेयस्कर है।